Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 617
________________ व्यंतर १ १ १ १ २ ३ व्यतरोंके आहार व श्वासका अन्तराल । व्यंसके धान व शरीरकी शक्ति विक्रिया आदि। ४ ५ व्यंतरदेव मनुष्योंके शरीरोंमें प्रवेश करके उन्हें विकृत ४ व्यंतर देव निर्देश व्यंतर देवका लक्षण देवोमेद। किनर किपुरुष आदिके उत्तर भेद कर सकते है। ६ व्यतरोंके शरीरोंके वर्णं व चैत्य वृक्ष । १ २ ३ ४ ५ - दे० वह वह नाम । व्यंतर मरकर कहाँ जन्मे और कौन स्थान प्राप्त करे । दे० जन्म / ६ | ७ , स्वंतरीका जन्म दिव्य पशरीर, आहार, मुख, दु:ख सम्यक्त्वादि । -दे० देन 11/२/२० - दे० वह वह नाम । व्यतकी आयु व अवगाहना । -- दे० वह वह नाम । व्यंतरोंमें सम्भव कषाय, लेश्या, वेद, पर्याप्ति आदि । व्यतरोंगे गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि की २० प्ररूपणा | व्यंतरों सम्बन्धी सत् सख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव व अल्पबहुत्व । व्यंतर इन्द्र निर्देश व्यतर इन्द्रोंके नाम व संख्या । व्यंतरेद्रोंका परिवार । व्यंतरोंमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व । - दे० - दे० वह वह नाम । - दे० सत् । की देवियोंका निर्देश १६ इन्द्रोंकी देवियोंके नाम व संख्या । श्री ही आदि देवियोंका परिवार । Jain Education International १० वह वह नाम । व्यंतर लोक निर्देश व्यंतर लोक सामान्य परिचय | निवासस्थानोंके भेद व लक्षण । व्यंतरोंके भवनों व नगरों आदि की संख्या । भवनों व नगरों आदिका स्वरूप । मध्यलोक व्यन्तरों व भवनवासियोंका निवास मध्यलोकमें व्यंतर देवियोंका निवास । द्वीप समुद्रोके अधिपति देव । भवन आदिका विस्तार ६१० १. व्यंतरदेव निर्देश १. व्यंतरदेवका लक्षण स.सि./४/११/२४३/१० विविधदेशान्तराणि येषा निवासारले 'व्याम्सरा. इत्यन्वर्था सामान्ययमष्टानामपि विकल्पाना जिनका नाना प्रकारके देशो में निवास है, वे व्यन्तरदेव कहलाते है। यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठो ही भेदोंमें लागू है। (रा. वा./४/११/९/२१०/१५) । २. व्यंतरदेवोंके भेद १. व्यंतर देव निर्देश त. सू / ४ / ११ व्यन्तरा किनर किंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूत पिशाचा. [११] व्यन्तरदेव आठ प्रकार के है- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ( ति.प./६/२५ ); { त्रि. सा. / २५१ ) । ३. व्यंतरोंके आहार व श्वासका अन्तराल ति प /६/८८-८६ पलाउजुदे देवे कालो असणस्स पंच दिवसाणि । दोणि चिचय शादन्यो दसमाससहस्स आउम्मि ८८ परियोममाउतो पचमुतेहि एदि उसासो सो अजूदाउजुदे बेतरवम्मि असत्त पाहि = पत्यप्रमाण आयुसे युक्त देवोके आहारका काल दिन, और १०,००० वर्ष प्रमाण आयुवाले देवोके आहारका ५ काल दो दिन मात्र जानना चाहिए व्यन्तर देवो में जो पल्यप्रमाण आयुसे युक्त है वे पाँच मुहूर्त्तोमे और जो दश हजार प्रमाण आयुसे संयुक्त है में सात प्राणो (उपवास निश्वासपरिमित काल विशेष दे० गणित //१/४) में उच्छ्वासको प्राप्त करते है | (वि. स. २०१) । ४. व्यंतरों के ज्ञान व शरीरको शक्ति विक्रिया आदि ति प / ६ /गा. अब बाहिरिती अजुदारदस्स पंचकोसाणि । उक्किट्ठा पण्णासा हेट्ठोवरि पस्समाणस्स || पलिदो माउ जुतो बेतरदेवो तत्तम्मि उपरिग्मि अमीर जीमणार्थ एक्क लक्ख पलोएदि |११| दसवास सहस्साऊ एक्कसय माणुसाण मारेदुं । पोमेदु पि समत्यो एक्केको बेतरी देवो इस पण्णाधियसय पमा विभहुत सो खेल गिय सत्ती उक्लनिर्ण खवेदि अण्णत्थ | ३ | पल्लदृदि भाजेहि छक्खाणि पि एक्कपलाऊ | मारेदु पोसेदु तेसु समत्यो ठिदं लोय ॥६४॥ उक्कस्से रूपसदं देवो विकरेदि अजुत्ता उदरे सरुवाणि मज्झिमाण |१| ऐसा बेतरदेवा नियणिय ओहीण जेत्तियं खेत्त । पूर तितेतिय पिपत्वक विवरणले संखेज्जजोयगाणि संखेनाऊ य एक्कसमयेण । जादि असंखे जाणि ताणि असंखेज्जाऊ य । १७७ नीचे व ऊपर देखनेवाले दश हजार वर्ष प्रमाण आयुसे युक्त व्यन्तर देवों के जघन्य अवधिका विषय पाँच कोश और उत्कृष्ट ५० कोश मात्र है ||वस्थोपममा आयुसे युक्त व्यन्तरदेव अवधिज्ञान से नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण देखते है । १६१। दश हजार प्रमाण आयुका धारक प्रत्येक व्यन्तर देव एक सौ मनुष्योंको मारने व पालनेके लिए समर्थ है |२| वह देव एक सौ पचास धनुषप्रमाण विस्तार व बाहय से युक्त क्षेत्रको अपनी शक्तिसे उखाडकर अन्यत्र फेंक सकता है | १३ | एक पत्यप्रमाण आयुका धारक प्रत्येक व्यन्तर देव अपनी भुजाओं से छह खण्डों को उलट सकता है और उनमें स्थित लोगोंको मारने व पालने के लिए भी समर्थ है । ६४ । दश हजार वर्षमात्र आयुका धारक व्यंतर देव उत्कृष्टरूपसे सौ रूपोंकी और अन्य रूपसे साठ रूपकी विक्रिया करता है । मध्यमरूपसे वह देव सातसे ऊपर और सौ से नीचे विविध रूपोंको विक्रिया करता है | १५| बाकी के व्यन्तर देवोमेंसे प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानों का जितना क्षेत्र है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639