Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 613
________________ व्यास्व वृष्यमिति यते ।१६। - उन आचार्य आदिपर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदिवा उपद्रव होनेपर उसका प्रासुक औषधि आहारपान आश्रय चौकी तन्ता और सायरा आदि धर्मोपकरणोंसे प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्व मार्गमे दृढ करना वैयावृत्त्य है | १५| औषधि आदिके अभाव मे अपने हाथसे खकार नाक आदि भीतरी मनका साफ करना और उनके अनुकूल वातावरणको बना देना आदि भी वृष्य है। (चा सा./१२२/१) । ८.२१/८८/ व्याप यावृष्यम्व्याप्त अर्थात् रागादिसे व्याकुल साधुके विषय मे जो कुछ किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है । १५.४.२६/६३/६ व्यादि किया-आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है वह वैयावृत्य नामका तप है। ६०६ चा सा०/१००/ ३ का दुष्परिणामव्युदासार्थं काव्यारेणापदेदोनच व्यावृत्तस्य सत्कर्म देवशरीरको पीडा अथवा दुष्ट परिणाम को दूर करनेके लिए शरीरकी चेष्टामे, किसा औषध आणि अन्य से अबवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्य है। (अन ध /७/७८ /७११) । का अ / /४५६ जो उत्रयरदि जदोण उवसग्ग जराड खीणकायाण । यादपि बेायच पो तस्स २५६ - जो मुनि उपसर्गने पीडिता और आदिके कारण जिनको काम क्षीण हो गयी हो । जो अपनी पूजा प्रतिष्ठाको अपेक्षा न करके उन मुनियोका उपकार करता है, उसके वैयावृत्य तप होता है। निश्चय लक्षण का / म् /४६० जो ब्रावर मरुवे समदमभावम्मि मुद्र उवजुत्तो । यादो परम विशुद्ध उप्योगमे पुत हुआ जो मुनि शमदम भाव रूप अपने आत्मस्वरूप मे प्रवृत्ति करता है और लोक व्यवहारमे विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्त्य तप होता है। २. वैयावृत्य के पात्रों की अपेक्षा १० भेद आ / २६० गुगधी उम्काए वरिस सिस्से यहुब्बले साहुगणे कुले सबै समणुण्णेय चापदि ॥३१०१ = गुणाधिकमे, उपाध्यायोमे, तपस्वियों में शिष्योमे, दुर्बलोमे, साधुओमे गणमे, साधुओ के कुलचतुर्विधमे, मनोज़मे, इन दसमे उपद्रव आनेपर वैयावृत्त्य करना कर्त्तव्य है । 1 त. सू./१/२४ आचार्योध्यायतपस्वि शेक्षग्लानगण कुल सघसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ - आचार्य, उपाध्याय, उपस्वी, दीस (शिष्य), ग्लान ( रोगी ), गण, कुल, सघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्त्य के भेदसे केयाश्य इस प्रकारका है २४ (१३/५४.२६/१/६), (चा. सा./१५०१३), (भा पा/टी./०८/२२४/१६ ) | २. वैयावृत्य योग्य कुछ कार्य भ. आ / मू / ३०५-३०६ / ५१६ सेज्जागास णिसेज्जा उबधी पडिलेहणाउहिंदे आहारो सहायक समादी २०५ | अदान तेन सावयरायणदीरागास उमे मेजावरच उतं संगहणारक्खणोवेद | ३०६ | शयनस्थान- बैठनेका स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार - औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात् व्याख्यान करना, अशक्त मुनिका मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना । ३०५ थके हुए साधुके पोव हाथ व अग दबाना, नदीसे रुके हुए अथवा रोग पीडितका उद्या आदि दूर करना, दुर्भिक्ष पीडितको सुभिक्ष देश में Jain Education International वैयावृत्य लाना ये सब कार्य यावृत्य कहलाते है आ / ३६१-३१२), (आ / २३०-३४०) ( और भी दे०/१) ( और भी दे० सलेखना / ५) । ४. वैयावृत्यका प्रयोजन व फल भ. आ / मू / ३०१-३१०/५२३ गुणपरिणामो सड्ढा बच्छल्लं भत्तिपत्तलभो य। सघाण तवपूगा अव्वोच्छिती समाधी य | ३०६ | आणा सजमसाखिल्लदा य दाण च अविदिगिछा य वेज्जावश्चस्स गुणा पभावणा वज्जपुणाणि । ३१०| गुणग्रहण के परिणाम श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदिका पुन सधान, उपज, तीर्थ, अभ्युच्छिति, समाधि | ३०६ जना, संयम, सहाय. दान. निर्विचिकित्सा, प्रभावना, कार्य निर्वाहण ये वैयावृत्त्यके १८ गुण है (भ. आ. सू./३२४-३२८)। समाध्याधानविचिकित्साभावप्रवचनवात्सस.सि /१/२४/४४०२/१९ त्याद्यभिव्यक्त्यर्थम् | यह समाधिकी प्राप्ति, विचिकित्साका अभाव और ग्रवचन वात्स्यकी अभिव्यक्तिके लिए किया जाता है । ( रा वा / ६ / २४/१७/६२४ / १) ( चा सा./१५२/४ ) । धर्म/७/२ (सकोयावृत्य निर्जराको निमित्त है। ५. वैयावृत्य न करनेमें दोष २००-३०८/२१ महिलापरिओ ज्यो देसेण । जदिण करेदि समत्यो सतो सो होदि णिद्धम्मा १३०७ | तिथवरागाको सुविधा अणायारो अप्पापपण महासमर्थ होते हुए तथा अपने बलको नहाते हुए भी जिनोट वैधवृत्य जो नहीं करता है वह धर्मभ्रष्ट है | ३०७३ जिनाज्ञाका नग, शास्त्र कथित धर्मका नाश, अपना साधुवर्गका व आगमका लाग, ऐसे महादोष वैयावृत्त्य न करने से उत्पन होते है । ३०५ (ओर भी दे साय /- ) | भ.आ./मू./१४६६/१३६३ वेज्ज व बस्स गुणा जे पुत्रं विरेण अक्खादा । तेसि फडियो सो होह जो उवेच्खेज त खवय १९४१६ वैयावृत्य के गुणका पहले शीर्षक न ४ मे) विस्तारसे वर्णन किया है। जो क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोसे भ्रष्ट होता है । १४६६ । ६. वैयावृत्यको अत्यन्त प्रधानता भ.आ./वि./१२२ / ५४९ पदे गुगा महत्लानागपुदस्स बहुया य । अप्पट ठिदो हु जायदि सज्झाय चैव कुब्बतो ३२६ | आत्मप्रयोजनपर एवं आयने स्वाध्यायमेव कुर्ववैश्यस्तु स्व पर बोद्धरतीति मरते । वैयावृत्य करनेवालेको उपरोक्त (शीर्षक) बहुत स्मोकी प्राप्ति होती है।" स्वाध्याय करनेवाला स्वत की ही आत्मोन्नति कर सकता है, जब कि वैयावृत्त्य करनेवाला स्वयको व अन्यको दोनोको उन्नत बनाता है ( और भी दे, सल्लेखना / ५) । - [भ] आ. लारा टीका / ३२६ / २४२/० स्वाध्यायकारिणौऽपि विषपनि पाते स्वाध्याय करनेवालेपर यदि विपत्ति आयेगी तो उसको वैयावृत्त्य वालेके मुखकी तरफ ही देखना पडेगा । दे /३/२-वृत करनेकी प्रेरणा दी गयी है । ७. वैयावृत्य में शेष १५ भावनाओंका अन्तर्भाव ध ८ / ३.४१ / ८८ /= जेण सम्मत्त णाण अरहंत बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छदिजीव सोज्जाजोगी वेगव वि ताए एवं बिहाएएकाए वि तिरथरणामकम्म बधइ । एत्थ सेसकारणाण जहासभवेण अतभावो वत्तत्रो । जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादिसे जीव वैयावृत्त्यमे लगता है वह बेयावृत्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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