Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 612
________________ वैधम्र्म्यसमा अवृत्ति जतन रहना निश्चित हो उसको वैध कहते है। २ उदाहरणका एक भेद - दे० उदाहरण | वैधर्म्यसमा - दे० साधर्म्यसमा । वैनयिक - १. वैनयिक मिथ्यात्वका स्वरूप . स. सि/०/२/३०५/८ सर्वदेवताना सर्वसमयाना च सम्यग्दर्शन वि कम्। - सब देवता और सत्र मतोको एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है । ( रा वा /८/१/२८/५६४/२१), ( त सा /५/८ ) । घ ८३.६/२०/० अइहिय-पारतियमुहाइ सम्मापि विजयाद ए पाम- सण तमोरवास किले से हो ति अहिजिसो वेइयमिच्छत्तं । =ऐहिक एवं पारलौकिक सुख सभी विनयसे हो प्राप्त होते है, न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास जनित क्लेश से, ऐसे अभिनिवेशका नाम वैनयिक मिभ्यारण है। वसा १०-१२ व तिथे या समुभयो अि सामुखियसीसा सिंहिनो गंगा के यदुव य समया भत्ती य सव्वदेषाणं णमणं द डुव्त्र जणे परिकलिय तेहि मूढेहि |१६| = सभी तीर्थंकरो के तीर्थोमे वैनयिकोका उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुण्डे, कोई शिखाधारी और कोई मग्न रहे है। चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् दोनो समानता से भक्ति करना और सारे ही देवोको दण्डवत् नमस्कार करना, इस प्रकारके सिद्धान्तोको उसने लोगो चलाया |१६| 1 भावग्रह वेणइयमिच्छादिट्टी हबइ फुडं तावसो हु अण्णाणी । णिगुण्जणं पि विणओ पउज्जमाणो : हु गयविवेओ विवादो इह मोल किन पुगू रोण गहाई अनुनिय गुणागुणेण य विषय मिच्छत्तनडिए || = वैनयिक मिध्यादृष्टि अभिनेत्री तापस होते है। निर्गुण जनो की यहाँ तक कि कभी विनय करने अथवा उन्हें नमस्कार आदि करनेसे मोक्ष होता है, ऐसा मानते है । गुण और अवगुणसे उन्हे कोई मतलब नही । गो /// १००० मणवय कायदा गरि सुरविणाणि • दाते पम्म च काय चेदि अम. राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता, पिता इन आठोकी, मनवचन, काय व दान, इन चारों प्रकारोसे विनय करनी चाहिए। (ह पु / १० / ५६ ) । अन ध / २ / ६ / १२३ शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम् । नि शक मृतपाठोऽयं नियोग कोऽपि दुविध | ६| शिव या गुरुकी पूजादि मात्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जा ऐसा मानने वाले है, उनका दुर्दैव निशक होकर प्राणिवध मे प्रवृत्त हो सकता है । अथवा उनका सिद्धान्त जीवोको प्राणिवधकी प्रेरणा करता है । भा. पा. टी / १३३/२०३/२१ मातृपितृलोकादिविनयेन मोहाचा तापसानुसारिणा प्राविशन्तानि भवन्ति माता पिता राजा यसो आदि विनयसे मोस माननेवाले तासानुसारी मठ १२ होते है । । = २. विनयवादियोंके ३२ भेद 1 रा. वा /८/१/१२/५६२ / १० वशिष्ठपाराशरजतुकर्ण वाल्मीकिरोमहर्षिणिसत्यदत्तासेला पुत्री पमन्यवेन्द्रदत्तायस्थूलादि मार्गभेदात् वैनयिका' द्वात्रिशगणना भवन्ति वशिष्ठ, पाराशर, जतुक बातमीकि, रोमहर्षणि सत्यदत्त, व्यास, एसापुत्र श्रीपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अयस्थूल आदिको मार्गभेद बैक ३२ होते है। (शब ( ४. १/१.१.२/१०८/२), (/६/४,१.४५/ २०/१२/७४/७). २०२/७)। Jain Education International ६०५ वैवावृत्य ह पु/१०/६० मनोवाक्कायदानाना मात्राद्यष्टक्योगत | द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टय 1६०1 = [ देव, राजा आदि आठकी मन, वचन, काय व दान इन चार प्रकारोसे विनय करनी चाहिए- दे० पहले शीर्षक गोक./८८८] इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चारका देव आदि आठके साथ सयोग करनेपर वैनयिक मिथ्यादृष्टियोके ३२ भेद हो जाते है । ★ अम्य सम्बन्धित विषय १. सम्यक विनयवाद । २ - दे० विनय / १/२ । द्वादशाग श्रुतज्ञानका पाँचत्रों अंग । - दे० श्रुतज्ञान / III | ३. वैनयिक मिथ्यात्व व मिश्रगुणस्थानमे अन्तर । - दे० मिश्र / २ | वैभाविक शक्ति- -दे० विभाव / १ । वैभाषिक - दे० बौद्ध दर्शन । वैमनस्क वैमानिक देव वैयधिकरण्य नरकका पाँच दे० नरक/३/१९४ दे०स्वर्ग /१० श्लो वा / ४ / २ / ३३ / न्या. / ४५६/५५१/१६ पर भाषाकार द्वारा उद्धृत। युगपदनेकावस्थितिर्वैयधिकरण्यम् एक वस्तु एक साथ दो विरोधी धर्मोके स्वीकार करनेसे, नैयायिक लोग अनेकान्तवादियो पररण्य दोष उठाते है। = == भरा./८२/९ अस्तित्वाधिकरणम्नास्तित्वस्याधिकरणमन्य दिव्यस्त्निास्रियोरिस | [च] विभिन्नकरणवृत्तित्यस्। अस्तिका अधिकरण अन्य होता है और नास्तिका अन्य होता है, इस रीति से अस्तित्व और नास्तित्वका वैयधिकरण्य है। वैयधिकरण्य भिन्न-भिन्न अधिकरण में वृत्तित्वरूप है । [ अर्थात् इस अनेकान्त बादमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनो एक ही अधिकरणमे है । इसलिए नैयायिक लोग इसपर वैयधिकरण्य नामका दोष है।]] वैयाकरणी११ वेषिक दर्शन शब्दार्थ परसे सिद्धान्तका निर्धारण करनेके कारण वैयाकरणी है- दे० वैशेषिक दर्शन। २. वैयाकरणी मरा शब्द समभिरूद्र व एस नाभासी है दे० अनेकान्स/२/६ वैयावृत्य - १. व्यवहार लक्षण - ८. क श्र./ ११२ व्यापत्तिव्यपनोद पदयो सवाहनं च गुणरागात । वैयावृत्त्य यावानुपग्रहोऽन्योऽपि सर्यामिना । ११२ । = गुणोमे अनुरागपूर्वक संयमी पुरुषो के खेदका दूर करना, पॉव दबाना तथा और भी जितना कुछ उपकार करना है, सो वैयावृत्त्य कहा जाता है। सि./६/२४ / २२६/३ गुणवदु खोपनिपाते निरवयन विधिमा तद पहरण वैयावृत्य। स.सि /६/२०/४३६/७ कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैयावृत्त्यम् । = १. गुणी पुरुषो के दुख में आ पडनेपर निर्दोष विधि से उसका दुख दूर करना वैयावृत्त्य भावना है। ( रा. वा /६/२४/६/५३०/४), (चा. सा/२४/९) (स सा./०/२०) (भा.पा./टी./०७/२२१/१) २. शरीरकी चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्य तप है ( रा वा / १/२४/२/२३/१)। रा. वा./१/२४/१५-१६ / ६२३ / ३१ तेषामाचार्यादीना व्याधिपरीष मनपा प्रामुकोपथियातिपीठस्तरणादिभिर्धमौपकरणे स्तत्प्रतीकार. सम्यक्स्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादि यास्यम् ॥१५॥ बाह्यस्पोषचभक्तपानावेरसभवेऽपि स्वकायेन श्लेष्मान्तकापकर्षणादि तदानुष्ठानं चा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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