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वैक्रियिक
हिश
उत्पन्न होनेवाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए वे क्रियिक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समय मे लगाकर शरीर पर्याप्त पूर्ण होने अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको वै क्रियिकमिश्र काय कहते है । उसके द्वारा होनेवाला जो सयोग है ( दे. योग / १ ) वह वै क्रियिकमिश्र काययोग कहलाता है। अर्थात देव नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय से लेकर शरीरपर्याप्त पूर्ण होनेतक कार्मणशरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले क्रियायोगको वैकिसिकमिश्र काययोग कहते है (ध १/
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१.१.३६/ १६२-१६३/२६९) गो जी // २३२ - २२४/४१६४१७ ) घ १ / १.१.३६/२६९६ तदमहम्मद समुत्पन्नपरिस्पन्येन योग क fromrusोग | कामगमे क्रियस्वन्द समुपवीर्येण योग वैक्रियिकमिश्रकाययोग । उस ( वै क्रियिक) शरीरके अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है उसे वैक्रियिक काययोग कहते है। कार्मण और वैक्रियिक वर्गणाओं के निमित उत्पन्न हुई शक्ति जो परिस्पन्दके लिए प्रयत्न होता है, उसे ये काययोग कहते है। गोजी/जी/ २२३/४१२/१५ वेकिक
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परिणमनयोग्य
शरीरवर्गणास्कन्धाकर्षणशक्ति विशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पन्द स बैगू
विककाययोग इति ज्ञेय ज्ञातव्य । अथवा वै क्रियिककाय एव वैक्रियिककाययोग कारणे कार्योपचारात् । गो.जी./जी./२२४/४६८ / १ वै किकिकामिश्रेण सह या सप्रयोग कर्म नोकर्माकर्षणशक्तिसगतापर्याप्तकाल मात्रात्मप्रदेश परिस्पन्दरूपो योग स मे किविककाय मिश्रयोग अपर्याप्तयोगे निधकाययोग इत्यर्थक्रिय शारीरके अर्थ तिस शरीररूप परिणमने योग्य जो आहारक वर्गणारूप स्कन्धोके ग्रहण करनेकी शक्ति, उस सहित आत्मप्रदेशों के चंचलपनेको वैक्रिलिक काययोग कहते है । अथवा कारणमें कार्यके उपचारसे वैक्रियिक काय हो वैकियिक काय योग है । वै क्रियिक कायके मिश्रण सहित जो संप्रयोग अर्थात् कर्म व नोकर्मको ग्रहण करनेकी शक्ति, उसको प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्म- प्रदेश के परिस्पन्दनरूप योग, वह बैकिfre मिश्र काययोग है। अपर्याप्त योगका नाम मिश्रयोग है, ऐसा तात्पर्य है।
२. वैविक व श्रियोगका स्वामित्व
१. ख./१/११/१४ कायजोगो मिस्साजोग देवराणं । ( ३८ / २६६) । वेउव्वियकायजोगो सण्णिमिच्छाइठिप्पहूडि जाव असंजदसम्माइट्ठिति । ( ६२/३०५) । वेउव्त्रियकायजोगो पज्जन्त्ताण उयिमिस्सकायजोगो अपज्ज(७७/३१७) | देव और नारकियोके वैकिकिकाययोग और वैकिविक मित्रकाययोग होता है । वैकिविकका योग और बैकिकमिकाययोग सही मिध्यादृष्टिसे लेकर असयत सम्यग्दृष्टि तक होते है । ६२ । वैक्रियिककाययोग पर्याप्तकोके और बैंकिगायोग अपर्याप्त को होता है 1001 और भी दे० किमि०/२/३ ) ।
३. वैकियिक समुद्घात निर्देश
१. वैक्रिषिक समुद्रातका लक्षण
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रा. वा./१/२०/१२/७७/१६ एकरवपृथक्त्वनानाविधविक्रियशरीरवाकूप्रचारप्रहरणादिविक्रियायोजन वैककिसमुद्वास' एकाव पृथक् आदि नाना प्रकारको विक्रियाके निमित्त से शरीर और वचनके प्रचार, प्रहरण आदिको विक्रियाके अर्थ वैक्रियिक समुद्रघात होता है ।
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घ. १/१.३.२/२८/
यसरी
उमाद पाम वराननेसामावियमागार घडियागारेण । = वैक्रियिक शरीर के उदयवाले देव और नारकी जीवोका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य आकारसे रहने तकका नाम वैक्रियिक समुद्धात है ।
प. ०/२६.१/२६६/१० विविद्वित्स माह सखेज्जास खेज्जीय पाणि सरीरेण ओहिय अट्ठाणं वेडव्विादोनाम |
विविध दियोके माहात्म्य संख्यात व असंख्यात योजमोको शरीरमें व्याप्त कर के जीवप्रदेशों के अवस्थानको वैक्रियिक समुद्रात कहते है।
द्र
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स./टी./१०/२०/२ सशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमारप्रदेशाना महिर्गमन मिति विक्रियासमुद्धात किसी प्रकारको विक्रिया उत्पन्न करनेके लिए अर्थात् शरीरको छोटा बडा या अन्य शरीर रूप करनेके लिए मूल शरीरका न त्याग कर जो आत्माका प्रदेशों का बाहर जाना है उसको 'विक्रिया' समुद्घात कहते है । वैखरी वाणी० भाषा
वैजयंत
१ विजयार्धको दक्षिण व उत्तर श्रेणीके दो नगर । - दे० विद्याधर । २ एक ग्रह - दे० ग्रह । ३. एक यक्ष-दे० यक्ष । ४. स्वर्ग के पच अनुत्तर विमानों में से एक । -- दे० स्वर्ग / ३.५ । ५ जम्बूद्वीपकी वेदिकाका दक्षिण द्वार-दे० लोक/३/११ वैजयंती
वैधम्य
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१. अपर विदेहके सुप्रभ क्षेत्रकी प्रधान नगरी । - दे० लोक२/२२ नन्दीश्वर द्वीपको पश्चिम दिशामें स्थित एक बा - दे० लोक ५ / ११1३. रुचक पर्वत निवासिनी दिवकुमारी देवी व महत्तरिका - दे० लोक / ५ /१३ | वैदूर्यलोके अन्त मे सम्म सागर द्वीप -३० सोक/७/१ २ सुमेरू पर्वतका अपर नाम का है दे० सुमेरु ३. महा हिमालका एक फूट उसका रक्षक देव ३० लोक/२/४४. ह्रद स्थित एक कूट - दे० लोक /५/७ । ५ मानुषोत्तर पर्वतका एक ट०/२/२००६. रुपक पकाएक ट० लोक ५/१३० सोधर्म स्वर्गका १४० स्वर्ग/५/३। वैतरणी - १. नरककी एक नदी २ भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-३० मनुष्य वैतरणी अरकुमार जातिका एक भवनवासी देव दे० अर वैताढ्य - भरत और ऐरावत क्षेत्रके मध्यमे पूर्वापर लम्बायमान विजया पर्वतको सभा ३२ विदेहों १२ विजयार्थीको वेताक्य कहते है । हैमवत आदि अन्य क्षेत्रके मध्य शब्दवान् आदि कूटाकार पाते है दे० लोक ६.७।
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वैतृष्णा — दे० उपेक्षा |
वैतृष्ण्य --- समताका पर्यायवाची -३० सामायिक/१ । दे० वैदर्भ - भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य / ४ । वैदिक दर्शन वैदिक दर्शन व उनका विकासक्रम ३० दर्शन वैदिश-वर्तमान भेलसा नामक ग्राम (यु. अ.प्र. ३६ / प. जुगल किशोर)। वैद्यसार आ. पूज्यपाद (ई. श. ५) कृत आयुर्वेद विषयक संस्कृत ग्रन्थ० पूज्यपाद
वैधर्म्य- - १. स भं, त. / ५३/३ - वैधम्यं च साध्याभावाधिकरणावृत्तित्वेन निश्चितत्वम् साध्यके अभाव के अधिकरणमें जिसका
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