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वेदान्त
वैक्रियिक
ज्ञान, तथा छ' इन्द्रियोसे साक्षात् उत्पन्न ज्ञान । ४. अनुमान तीन प्रकार है-केवलान्ययी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। पाँच अवयवोका नियम नही। यथावसर हीनाधिक भी हो सकते है। शब्द-दो प्रकार है-पौरुषेय व अपौरुषेय । आप्तोक्त पौरुषेय है और वेद वाक्य अपौरुषेय है ।
७. शुद्धाद्वैत ( शैव दर्शन)
१. सामान्य परिचय ई श. १५ में इसकी स्थापना हई। वल्लभ, श्रीकण्ठ व भास्कर इसके प्रधान संस्थापक थे। श्रीकण्ठकृत शिवसूत्र व भास्कर कृत वार्तिक प्रधान ग्रन्थ है। इनके मतमें ब्रह्मके पर अपर दो रूप नहीं माने जाते। पर ब्रह्म ही एक तत्त्व है। ब्रह्म अशी और जड व अजड जगत् इसके दो अंश है।
२. तत्त्व विचार १.शिक ही केवल एक सत्र है। शंकर वेदान्त मान्य माया व प्रकृति
सर्वथा कुछ नहीं है। उस शिबकी अभिव्यक्ति १६ प्रकारसे होती है-परम शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या, माया, मायाके पाँच कुंचक या कला, विद्या. राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, महात् या बुद्धि, अहकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच तन्मात्राएँ, और पाँच भूत। उनमें से पुरुष आदि तत्त्व तो सांख्यवत् है। शेष निम्न प्रकार है।-२. एक व्यापक, नित्य, चैतन्य, स्वरूप शिव है। जड व चेतन सबमें यही ओतप्रोत है। आत्मा, परमेश्वर व परासं वित् इसके अपरनाम है । ३ सृष्टि, स्थिति व सहार (उत्पाद, धौव्य व्यय) यह तीन उस शिवकी शक्तियाँ है । सृष्टि शक्ति द्वारा वह स्वय विश्वाकार होता है। स्थिति शक्तिसे विश्वका प्रकाशक, संहार शक्तिसे सबको अपने में लय कर लेता है। इसके पाँच भेद है-चित्, आनन्द, ज्ञान, इच्छा व क्रिया। ४. 'अहं' प्रत्यय द्वारा सदा अभिव्यक्त रहनेवाला सदाशिव है। यहाँ इच्छा शक्तिका प्राधान्य है।५. जगतकी क्रमिक अभिव्यक्ति करता हुआ वही सदाशिव ईश्वर है। यहाँ इद अह' की भावना होनेके कारण ज्ञान शक्तिका प्राधान्य है । ६ 'अहं इद' यह भावना शुद्धविद्या है। ७. 'अहं' पुरुष रूपमे और 'इदं प्रकृति रूपमें अभिव्यक्त होकर द्वैत को स्पष्ट करते है यही शिवकी माया है। ६. इस मायाके कारण वह शिव पाँच कचुकोमें अभिव्यक्त होता है। सर्व कांसे असर्व कर्ता होनेके कारण कलावान है, सर्वज्ञसे असर्वज्ञ होनेके कारण विद्यावान, अपूर्णताके बोधके कारण रागी, अनित्यत्वके बोधके कारण काल सापेक्ष तथा सकुचित ज्ञान शक्तिके कारण नियतिवान् हो जाता है। ६. इन पाँच क चुकोसे आवेष्टित पुरुष संसारी हो जाता है।
1. सृष्टि व मुक्ति विचार १. जैसे वट बीजमें वट वृक्षकी शक्ति रहती है वैसे ही शिवमें ३५
तत्त्व सटा शक्तिरूपसे विद्यमान है। उपरोक्त क्रमसे बह शिव ही संसारी होता हुआ सृष्टिकी रचना करता है। २. पाँच कचुकोसे आवृत पुरुषकी शक्ति सकुचित रहती है । सूक्ष्म तत्त्वमें प्रवेश करनेपर वह अपनेको प्रकृतिके सूक्ष्म रूपके बराबर समझता हुआ 'यह मै हूँ' ऐसे द्वैतकी प्रतीति करता है। इस प्रती तिमें 'यह' और 'मैं' समान महत्वबाले होते है । तत्पश्चात् 'यह मै हूँ' की प्रतीति होती है। यहाँ 'यह' प्रधान है और 'मैं' गौण । आगे चलकर 'यह' "भै' में अन्तर्लीन हो जाता है। तब 'मै हूँ' ऐसी प्रतीति होती है। यहाँ भी मै' और 'हूँ' का द्वैत है । यही सदाशिव तत्त्व है । पश्चात् इससे भी सूक्ष्म भूमिमें प्रवेश करनेपर केवल 'अहं'की प्रतीति होती है यही शक्ति तत्त्व है।
यह परम शिवको उन्मीलनावस्था है। यहाँ आनन्दका प्रथम अनुभव होता है। यह प्रतीति भी पीछे परम शिवमें लीन होनेपर शून्य प्रतीति रह जाती है। यहाँ वास्तवमें सर्व चिन्मय दीखने लगता है। यही वास्तविक अद्वैत है। ३. जबतक शरीर में रहता है तबतक जीवन्मुक्त कहाता है। शरीर पतन होनेपर शिवमें प्रविष्ट हो जाता है। यहाँ आकर 'एकमेवाद्वितीयं नेह नानास्ति किंचन' तथा 'सर्व खल्विदं ब्रह्म का वास्तविक अनुभव होता है। वेदिका-पर्वत नदी द्वीप आदिको घेरे रहनेवाली दीवारको वेदिका
कहते है। लोकमे इनका अवस्थान व विस्तार-दे० लोक/७ । वेदिका बद्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । वेदिम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप/VRI वेदी-Boundary wall -दे० लोक ३/११७६/४॥ वेद्य-दे० वेदना/१। वेलंब-मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक एक भवनवासी
देव-दे० लोक/५/१०१ वेश्या - वेश्या गमन निषेध-दे० ब्रह्मचर्य/३। वैकालिक-गो जी |जी. प्र/३६७/980/६ विशिष्टा' काला विकालास्तेषु भवानि वै कालिकानि । दश वै कालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति दशवैकालिकं तच्च मुनिजनानां आचरणगोचरविधि पिण्डशुद्धिलक्षणं च वर्ण यति। -विशेषरूप कालको विकाल कहते है। उस कालके होनेपर जो होते है वे बैकालिक कहलाते है। इसमें दश वैकालिकका प्ररूपण है, इसलिए इसका नाम दशवकालिक प्रकीर्णक है। इसमें मुनियों के आचार व आहारकी शुद्धता और लक्षणका प्ररूपण है। वैक्रियिक-देवो और नारकियोके चक्षु अगोचर शरीर विशेषको वै क्रियिक शरीर कहते है। यह छोटे बडे हलके भारी अनेक प्रकारके रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है। किन्ही योगियोको ऋद्धिके बलसे प्रगटा वैक्रियिक शरीर वास्तवमे औदारिक ही है। इस शरीरके साथ होनेवाला आत्म प्रदेशोंका कम्पन वैक्रियिक काययोग है और कुछ आत्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकल कर फैलना वैक्रियिक समुद्धात है।
वैक्रियिक शरीर निर्देश वैक्रियिक शरीरका लक्षण । बैक्रियिक गरीरके भेद व उनके लक्षण । वैक्रियिक शरीरका स्वामित्व । कौन कैसी विक्रिया करे। वैक्रियिक शरीरके उ. ज. प्रदेशोंका स्वामित्व । मनुष्य तिर्यचोंका वैक्रियिक शरीर वास्तबमें अप्रधान है। तियच मनुष्योंमें वैक्रियिक शरीरके विधि निषेधका समन्वय। उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीरोंमें अन्तर । वैक्रियिक व आहारकमें कथंचित् प्रतिघातीपना । इस शरीरकी अवगाहना व स्थिति ।-दे वह वह नाम पाँचौ शरीरोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता। -दे शरीर/१।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-७६
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