________________
वेदान्त
६. माध्व वेदान्त या द्वैतवाद
४. गुण कर्मादि शेष पदार्थ विचार १. द्रव्यके लिए दे० उपरोक्त शीर्षक । २. दोषसे भिन्न गुण है। यह अनेक है -जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, सख्या, परिमाण, सयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, गुरुत्व, लघुत्व, मृदुत्व, काठिन्य, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, सस्कार, आलोक, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, बल, भय, लज्जा, गांभीर्य, सौन्दर्य, धैर्य, स्थैर्य, शौर्य, औदाय, सौभाग्य आदि । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द ये पाँच गुण पृथिवी में पाक्ज है और अन्य द्रव्योमे अपाकज । ये लोग पीलुपाक वाद (दे० वैशेषिक ) नही मानते। ३ पुण्य पापका असाधारण व साक्षात् कारण कर्म है, जो तीन प्रकार है... विहित. निषिद्ध और उदासीन । वेद विहित क्रियाएँ विहित कर्म है । यह दो प्रकार है-फलेच्छा सापेक्ष 'काभ्य
र्म तथा ईश्वरको प्राप्त करनेके लिए 'अकाम्य' कर्म । काम्य कर्म दो प्रकार है-प्रारब्ध और अप्रारब्ध । अप्रारब्ध भी दो प्रकार हैइष्ट व अनिष्ट । वेद निषिद्ध कार्य निषिद्ध कर्म है। उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुचन, प्रसारण, गमन, भ्रमण, बमन, भोजन, विदारण इत्यादि साधारण म उदासीन कर्म है। कर्म के अन्य प्रकार भी दो भेद है-नित्य और अनित्य । ईश्वर के सृष्टि सहार आदि नित्य कर्म है। अनित्य वस्तु भूत शरीरादिके कार्य अनित्य कर्म है। ४ सामान्यदो प्रकारका है-नित्य और अनित्य । अन्य प्रकारसे जाति व उपाधि इन दो भेदो रूप है । ब्राह्मणत्व आदि जाति सामान्य है। और प्रमेयत्व जीवत्व आदि उपाधि सामान्य है। यावद्वस्तु भावि जाति नित्य सामान्य है और ब्राह्मणत्वादि यावद्वस्तु भावि जाति अनित्य सामान्य है। सर्वज्ञत्व रूप उपाधि नित्य सामान्य है और प्रमेयपादि अनित्य सामान्य है। ५ देखने में भेद न होनेपर भी भेदके व्यवहारका कारण गुण गुणीका भेद विशेष है। नित्य व अनित्य दो प्रकार का है। ईश्वरादि नित्य द्रव्योमें नित्य और घटादि अनित्य दव्योमे अनित्य है। ६ विशेषणाके सम्बन्धसे विशेषका जो आकार वही विशिष्ट है । यह भी नित्य व अनित्य है। सर्वज्ञत्वादि विशेषणोसे विशिष्ट परब्रह्म नित्य है और दण्डेसे विशिष्ट दण्डी अनित्य । ७ हाथ, बितस्ति आदिसे अतिरिक्त पट, गगन आदि, प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ अशी है। यह भी नित्य व अनित्य दो प्रकार है। आकाशादि नित्य अशी है और पट आदि अनित्य । ८. शक्ति चार प्रकार है।-अचिन्त्य शक्ति, सहज शक्ति, आधेय और पद शक्ति। परमारमा व लक्ष्मी आदि की अणिमा महिमा आदि शक्तियाँ अचिन्त्य है । कार्यमात्रके अनुकूल स्वभाव रूप शक्ति ही सहज शक्ति है जैसेदण्ड आदिमे घट बनानेकी शक्ति । यह नित्य द्रव्योमे नित्य और अनित्य द्रव्योमे अनित्य होती है। आहित या स्थापित आधेय शक्ति कहलाती है जैसे प्रतिमामे भगवान् । पद व उसके अर्थ में वाच्य वाचकपनेकी शक्ति पदशक्ति है। वह दो प्रकार है -मुख्या 4 परमुख्या। परमात्मामें सब शब्दोकी शक्ति परमुख्या है, और शब्द में केवल मुख्या। यह उसके सहश है'ऐसे व्यवहारका कारण पदार्थ 'सादृश' कहलाता है। यह नाना है। नित्य द्रव्यमे नित्य और अनित्य द्रव्यमे अनित्य है। १०. ज्ञानमें निषेधात्मक भाव 'अभाव' है। वह चार प्रकार है-प्राक्, प्रध्वस, अन्योन्य व अत्यन्त । कार्यकी उत्पत्तिसे पूर्व अभावको प्रागभाव, उसके नाश हो जानेपर प्रध्वंसाभाव है। सार्वकालिक परस्परमें अभाव अन्योन्याभाव है। बह नित्य व अनित्य दो प्रकार है । अनित्य पदार्थोमें परस्पर अभाव अनित्य है और नित्य पदार्थोमें नित्य । अप्रामाणिक वस्तुमे अत्यन्ताभाव-जैसे शशशु ग।
५. सृष्टि व प्रलय विचार १, सष्टिका क्रम निम्न प्रकार है-इच्छा युक्त परमात्मा 'प्रकृति'के गर्भमें प्रवेश करके उसके त्रिगुणोमे विषमता उत्पन्न करनेके द्वारा उसे
कार्योन्मुख करता है। फल स्वरूप महदसे ब्रह्माण्ड पर्यन्त तत्त्व तथा देवताओकी सृष्टि होती है। फिर चेतन अचेतन अशोको उदरमें निक्षेपकर हजार वर्ष पश्चात नाभिमें एक कमल उत्पन्न होता है, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न होते है। ब्रह्माके सहस्र वर्ष पर्यन्त तपश्चरणसे प्रसन्न परमात्मा पचभूत उत्पन्न करता है, फिर सूक्ष्म रूपेण चौदह लोकोका चतुर्मखमें प्रवेशकर स्थूल रूपेण चौदह लोकोको उत्पन्न करते है। बादमे सब देवता अण्डके भीतरसे उत्पन्न होते है । (और भी दे वेदान्त ४) २. धर्म सकट में पड़ जानेपर दश अवतार होते है-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिह, वामन, राम, परशुराम, श्री कृष्ण, बुद्ध. कतकी । श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् है और शेष अवतार परमात्माके अश। ३. प्रलय दो प्रकार है-महाप्रलय व अवान्तर प्रलय । महाप्रलयमे प्रकृतिके तीन गुणोका व महत आदि तत्त्वोका तथा समस्त देवताओका विध्वस, भगवान् के मुखसे प्रगटी ज्वालामे हो जाता है। एक बट के पत्रपर शून्य नामके नारायण शयन करते है, जिनके उदरमे सब जीव प्रवेश करके रहते हैं। अवान्तर प्रलय दो प्रकार है- दैनंदिक तथा मनुप्रलय। दैनन्दिक्में तीनो लोकोका नाश होता है। पर इन्द्रादिक महर्लोकको 'चले जाते. है। मनुप्रल यमे भूलोकमे मनुष्यादि मात्रका नाश होता है. अन्य दोनो लोकोके वासी महर्लोकको चले जाते है ।
६. मोक्ष विचार १. भक्ति, कीर्तन, जप व्रतादिसे मोक्ष होता है। वह चार प्रकार हैकर्मक्षय, उत्कान्तिलय, अचिरादि मार्ग और भोग। इनमें से नं.२ व ३ वाला मोक्ष मनुष्योको ही होता है, देवताओं आदिको नही। २ अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न होनेपर समस्त नवीन पुण्य व पाप कर्मोंका नाश हो जाता है। कल्पो पर्यन्त भोग करके प्रारब्ध कर्मका नाश होता है। प्रारब्ध कर्म के नाशके पश्चात सुषुम्नानाडी या ब्रह्मनाडी द्वारा देहसे निकल कर आत्मा ऊपर उठता है । तब या तो चतुर्मुख ( ब्रह्मा) तक और या परमात्मा तक पहुँच जाता है। यही कर्मक्षय मोक्ष है। अत्यन्त दीर्घ कालके लिए देव योनिमें चले जाना अतिक्रान्ति मुक्ति है, यह वास्तविक मुक्ति नहीं। क्रम मुक्ति-उत्तरोत्तर देहोमे क्रमश लय होते-होते, चतुर्मुखके मुखमे जब जीव प्रविष्ट होता है तब ब्रह्माके साथ-साथ विरजा नदीमे स्नान करनेसे उसके लिग शरीरका नाश हो जाता है । इसके नाश होनेपर जीवत्वका भी नाश समझा जाता है।-(विशेष दे० वेदान्त/६ )। ४. भोगमोक्षअपनी-अपनी उपासनाकी तारतम्यताके अनुसार सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य, और सायुज्य, इन चार प्रकारके मोक्षोंमे ब्रह्मादिकोंके भोगोमे भी तारतम्यता रहती है, पर वे ससारमें नही आते। ७. कारण कार्य विचार
कारण दो प्रकार है-उपादान व अपादान या निमित्त । परिणामी कारणको उपादान कहते है । कार्यकी उत्पत्तिसे पूर्व वह सत है और उत्पत्तिके पश्चाव असत् । उपादान व उपादेयमें भेद व अभेद दोनों है। गुण क्रिया आदिमें अभेद है और द्रव्यके साथ न रहनेवालोमे भेद व अभेद दोनो।
८.ज्ञान व प्रमाण विचार १ आत्मा, मन, इन्द्रिय व विषयोंके सन्निकर्षसे होनेवाला आरमाका परिणाम ज्ञान है। वह सविकल्प ही होता है। ममता रूप, व अपरोक्ष रूप। ममता रूप ससारका और अपरोक्ष रूप मोक्षका कारण है। तथा वैराग्य आदिसे उत्पन्न होता है। ऋषिलोग अन्तष्टि, मनुष्य बाहा दृष्टि और देवता लोग सर्वदृष्टि है। २. स्व प्रकाशक होनेके कारण ज्ञान स्वत. प्रमाण है। वह तीन प्रकार है-प्रत्यक्ष अनुमान व शब्द । ३. प्रत्यक्ष आठ प्रकार है- साक्षी, यथार्थ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org