Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 605
________________ वेदान्त ५९८ ५. निम्बार्क वेदान्त या द्वैताद्वैत वाद ५. प्रमाण विचार भारतीय दर्शन प्रमाण इन्द्रिय, विषय, व भूत इस होके परिणाम है । यही अविद्या पा माया है। त्रिगुण शून्य तथा सृष्टि प्रलयका कारण काल सत्त्वशून्य है। ४. चित् अचित तत्त्वोका आधार, ज्ञानानन्द स्वरूप, सृष्टि व प्रलय कर्ता, भक्त प्रतिपालक व दुष्टोका निग्रह करनेवाला ईश्वर है। नित्य आनन्द स्वरूप व अपरिणामी 'पर' है। भक्तोकी रक्षा व दुष्टोका निग्रह करनेवाला व्यूह है। सकर्षणसे सहार, प्रद्य म्नसे धर्मोपदेश व वर्गोंकी सृष्टि तथा अनिरुद्धसे रक्षा, तत्त्वज्ञान व सृष्टि होती है। भगवानका साक्षात अवतार मुख्य है और शक्त्यावेश अवतार गौण । जीवोंके अन्त करणकी वृत्तियोका नियामक अन्तर्यामी है और भगवान्की उपास्य मूर्ति अर्चावतार है। प्रत्यक्ष अनुमान शब्द । ___ प्रत्यक्ष सविकल्प निर्विकल्प बेद पुराण ऐतिहा अर्वाचीन अनर्वाचीन इन्द्रियज अनिन्द्रियज ३. ज्ञान व इन्द्रिय विचार (भारतीय दर्शन) १. ज्ञान स्वयं गुण नही द्रव्य है । सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न ये ज्ञान के ही स्वरूप हैं। यह नित्य आनन्द स्वरूप व अजड़ है। आत्मा संकोच विस्तार रूप नहीं है पर ज्ञान है। आरमा स्व प्रकाशक और ज्ञान पर प्रकाशक है। अचित के ससर्गसे अविद्या, कर्म, व वासना व रुचिसे वेष्टित रहता है। बद्ध जीवोका ज्ञान अव्यापक, नित्य जीवोंका सदा व्यापक और मुक्त जीवोंका सादि अनन्त व्यापक होता है। २. इन्द्रिय अणुप्रमाण है। अन्य लोको मे भ्रमण करते समय इन्द्रिय जीवके साथ रहती है। मोक्ष होनेपर छूट जाती है। स्वयंसिद्ध दिव्य १. यथार्थ ज्ञान स्वत' प्रमाण है। इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष है। योगज प्रत्यक्ष स्वयसिद्ध और भगवत्प्रसादसे प्राप्त दिव्य है। २. व्याप्तिज्ञान अनुमान है। पाँच अवयवोका पक्ष नहीं। ५.३, वा २ जितने भी अवयवोसे काम चले प्रयोग किये जा सकते है। उपमान अर्थापत्ति आदि सब अनुमानमें गर्भित है। अवमान है। पांच बार भगवत्प्रसाद इन्द्रियज्ञान । ४. सृष्टि व मोक्ष विचार बस्थामे मान ज्ञानेन्द्रिय का प्रलय पर्यन्त महा इन्द्रियाँ (भारतीय दर्शन) १ भगवान् के संकल्प विकल्पसे मिश्रसत्त्वकी साम्यावस्थामे वैषम्य आनेपर जब वह कर्मोन्मुख होती है तो उससे महत अहंकार, मन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय उत्पन्न होती है। मुक्त जीवोकी छोडी हुई इन्द्रियाँ जो प्रलय पर्यन्त संसारमें पड़ी रहती है, उन जीवोके द्वारा ग्रहण कर ली जाती है जिन्हे इन्द्रियों नहीं होती। २. भगवान के नाभि कमलसे ब्रह्मा, उनसे क्रमश देवषि, ब्रह्मर्षि, प्रजापति, १० दिक्पाल, १४ इन्द्र, १४ मनु, ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, देवयोनि, मनुष्यगण, तियंग्गण, और स्थावर उत्पन्न हुए (विशेष दे. वेदान्त/६ ।। ३. लक्ष्मीनारायणको उपासनाके प्रभावसे स्थूल शरीर के साथ-साथ सुकृत दुष्कृतके भोगका भी नाश होता है। तब यह जीव सुषुम्ना नाडीमे प्रवेश कर ब्रह्म-रन्ध्रसे निकलता है। सूर्यको किरणोके सहारे अग्नि लोकमे जाता है। मार्गमे-दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण व सवत्सरके अभिमानी देवता इसका सत्कार करते है। फिर ये सूर्यमण्डलको भेदकर पहले सूर्यलोक्में पहुंचते है। वहाँसे आगे क्रम पूर्वक चन्द्रविद्यु द वरुण, इन्द्र व प्रजापतियो द्वारा मार्ग दिखाया जानेपर अतिवाहक गणोके साथ चन्द्रादि लोकोसे होता हुआ वैकुण्ठकी सीमामें 'विरजा' नामके तीर्थ मे प्रवेश करता है। यहाँ सूक्ष्म शरीरको छोडकर दिव्य शरीर धारण करता है, जिसका स्वरूप चतुर्भुज है। तब इन्द्र आदिको आज्ञासे वैकुण्ठमे प्रवेश करता है। तहाँ 'एरमद' नामक अमृत सरोवर व 'सोमसवन' नामक अश्वत्थ को देखकर ५०० दिव्य अप्सराओसे सत्कारित होता हुआ महा मण्डपके निकट अपने आचार्य के पलंगके पास जाता है। वहाँ साक्षात भगवानको प्रणाम करता है । तथा उसकी सेवामे जुट जाता है । यही उसकी मुक्ति है। ५. निम्बार्क वेदान्त या द्वैताद्वैत वाद १. सामान्य परिचय ई श. १२ में निम्बार्काचार्यने स्थापना की। वेदान्त पारिजात, सौरभ व सिद्धान्त रत्न इसके प्रमुख ग्रन्थ है। भेदाभेद या द्वैताद्वैत वादी है। इनके यहाँ शूद्रोको ब्रह्म-विद्याका अधिकार नहीं । पापियोको चन्द्रगति नहीं मिलती। दक्षिणायणमें मरनेपर विद्वानोको ब्रह्म प्राप्ति होती है। यमालयमें जानेवालोको दुखका अनुभव नही होता। विष्णुके भक्त है। राधा-कृष्णको प्रधान मानते है। रामानुज वेदान्तसे कुछ मिलता-जुलता है।--दे. वेदान्त/४ । २. तत्त्व विचार १. तत्त्व तीन है-जीवात्मा, परमात्मा व प्रकृति । तीनोको पृथक्-पृथक् माननेसे भेदवादी है और परमात्माका जीवात्मा व प्रकृतिके साथ सागर तरंग बत् सम्बन्ध माननेसे अभेदवादी है। २. जीवात्मा तीन प्रकारका है सामान्य, बद्ध व मुक्त । सामान्य जीव सर्व प्राणियोमें पृथक्-पृथक् है। बन्ध व मोक्षकी अपेक्षा परमात्मा पर निर्भर है। अणुरूप होते हुए भी इसका अनुभवात्मक प्रकाश सारे शरीरमे व्याप्त है, आनन्दमय नहीं है पर नित्य है। शरीरसे शरीरान्तरमें जाने वाला तथा चतुर्गतिमे आत्मबुद्धि करने वाला बद्ध-जीव है। मुक्त जीव दो प्रकारका है-नित्य व सादि। गरुड आदि भगवान् नित्य मुक्त है। सत्कर्मों द्वारा पूर्व जन्मके कर्मोंको भोगकर ज्योतिको प्राप्त जीव सादि मुक्त है। ईश्वरकी लीलासे भी कदाचित् सक्लप मात्रसे शरीर उत्पन्न करके भोग प्राप्त करते है। पर ससारमें नही रहते । ३ परमात्मा स्वभावसे ही अविद्या अस्मिता, राग-द्वेष, तथा अभिनिवेश इन पाँच दोषोसे रहित है। आनन्द स्वरूप, अमृत, अभय, ज्ञाता, द्रष्टा, स्वतन्त्र, नियता विश्वका व जीबोको जन्म, मरण, दुःख, सुखका कारण, जीवोको कर्मानुसार फलदायक, पर स्वयं पुण्य पाप रूप कर्मोसे अतीत, सर्वशक्तिमान है । जगत्के आकार रूपसे परिणत होता है। वैकुण्ठमें भी जीव इसीका ध्यान करते है। प्रलयावस्था, यह जीव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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