Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 603
________________ वेदान्त २. शंकर वेदान्त या ब्रह्माद्वैत है। इसी में घिरा हुआ चैतन्य उपचारसे जीव कहलाता है, जो क्र्ता, भोक्ता, सुख, दुख, जन्म मरण आदि सहित है। ५ इस शरीर युक्त चैतन्य (जीव) में ही ज्ञान, इच्छा व क्रिया रूप शक्तियॉ रहती है । वास्तवमे (चैतन्य ) ब्रह्म इन सबसे अतीत है । ६. जगत इस ब्रह्मका विवर्तमात्र है। जो जल-बुद्बुद्धत् उसमें से अभिव्यक्त होता है और उसीमे लय हो जाता है। १. जैन व वेदान्तकी तुलना (जैनमत भी किसी न किसी अपेक्षा वेदान्तके सिद्वान्तोको स्वीकार करता है, सग्रह व व्यवहारनयके आश्रयपर विचार करनेसे यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे-पर सग्रह नयकी अपेक्षा एक सत् मात्र ही है इसके अतिरिक्त अन्य किसी चीजकी सत्ता नहीं। इसी का व्यवहार करनेपर यह सत् उत्पाद व्यय धौव्य रूप तीन शक्तियोसे युक्त है, अथवा जीव व अजीव दो भेद रूप है। सत् ही वह एक है, वह सर्व व्यापक, ब्रह्म है। उत्पाद व्यय धौव्य रूप शक्ति उसकी माया है। जीव ब अजीव पुरुष व प्रकृति है। उत्पादादि त्रयसे ही उसमें परिणमन या चंचलता होती है। उसीसे सृष्टिकी रचना होती है । इत्यादि ( दे० साख्य ) इस प्रकार दोनोमे समानता है। परन्तु अनेकान्तवादी होनेके कारण जेन तो इनके विपक्षी नयोको भो स्वीकार करके अद्वेतके साथ द्वेत पक्षका भो ग्रहण कर लेते है। परन्तु वेदान्तो एकान्तबादी होनेके कारण द्वेतका सर्वथा निरास करते है। इस प्रकार दोनोमे भेद है। वेदान्तवादो सग्रहनयाभासी है। (दे० अनेकान्त/२/६) । ४. द्वैत व अद्वैत दर्शनका समन्वय प.वि.//२६ द्वैतं ससृतिरेव निश्चयवशादद्वेतमेवामृत, संक्षेपादुभयत्र जनियतमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम् । निर्गत्यादिपदाच्छनै' शबलितादन्यसमालम्बते. य' सोऽसज्ञ इति स्फुट व्यवहते ब्रह्मादिनामेति च ॥२६॥ -निश्चयसे द्वेत ही ससार तथा अद्वेत ही मोक्ष है, यह दोनोके विषयमें सक्षेपसे कथन है, जो चरम सोमाको प्राप्त है। जो भव्य जीव धीरे-धीरे इस प्रथम (द्वेत ) पदसे निकलकर दूसरे अद्वैत पदका आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयत' वाच्य वाचक भावका अभाव हो जानेके कारण सज्ञा (नाम) से रहित हो जाता है, फिर भी व्यवहारसे वह ब्रह्मादि (पर ब्रह्म परमात्मा आदि ) नामको प्राप्त करता है। दे. द्रव्य/४ वस्तु स्वरूप में द्वेत व अद्वेतका विधि निषेध व उसका समन्वय । दे उत्पाद/२ (नित्य पक्षका विधि निषेध व उसका समन्वय )1 ५. मर्तृप्रपंच वेदांत स्या. म./परि-च/पृ. ४४० भर्तृ प्रपंच नामक आचार्य द्वारा चलाया गया। इसका अपना कोई ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है । भतृप्रपंच वैश्वानरके उपासक थे। शकरकी भाँति ब्रह्मके पर अपर दो भेद मानते थे। २. माया व सृष्टि (तत्त्व बोध ), (भारतीय दर्शन ) १. सत्त्वादि तीन गुणोकी साम्यावस्थाका नाम अव्यक्त प्रकृति है। व्यक्त प्रकृतिमे सत्व गुण ही प्रधान होनेपर उसके दो रूप हो जाते है-माया व अविद्या । विशुद्धि सत्त्व प्रधान माया और मलिन सत्त्व प्रधान अविद्या है। २. मायासे अवच्छिन्न ब्रह्म ईश्वर तथा अविद्यासे अवच्छिन्न जीव कहाता है। ३. माया न सत् है न असत, बल्कि अनिर्वचनीय है । समष्टि रूपसे एक होती हुई भी व्यष्टि रूपसे अनेक है। मायावच्छिन्न ईश्वर सकल्प मात्रसे सृष्टिको रचना करता है। चेतन्य तो नित्य, सूक्ष्म व अपरिणामी है । जितने भी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थ है वे मायाके विकास है। त्रिगुणोकी साम्यावस्थामें माया कारण शक्तिरूपसे विद्यमान रहती है। पर तमोगुणका प्राधान्य होने पर उसकी विक्षेप शक्तिके सम्पन्न चैतन्यसे आकाशकी, आकाशसे वायुकी, वायुसे अग्निकी, अग्निसे जलकी, और जलसे पृथिवीकी क्रमश उत्पत्ति होती है। इन्हे अपचीकृत भूत कहते है। इन्हीसे आगे जाकर सूक्ष्म व स्थूल शरीरोकी उत्पत्ति होती है। ४. अविद्याकी दो शक्तियाँ है--आवरण व विक्षेप। आवरण द्वारा ज्ञान की हीनता और विक्षेप द्वारा राग द्वेष होता है। २. शंकर वेदांत १. शकर वेदांतका तत्त्व विचार षड्दर्शन समुच्चय/६८/६७); ( भारतीय दर्शन ) १. सत्ता तीन प्रकार है-पारमार्थिक, प्रातिभासिक व व्यावहारिक। इनमे से ब्रह्म ही एक पारमार्थिक सत् है । इसके अतिरिक्त घट, पट आदि व्यावहारिक सत् है। वास्तबमें ये सब रस्सीमे सर्पको भॉति प्रातिभासिक है। २. ब्रह्म, एक निर्विशेष, सर्वव्यापो, स्वप्रकाश, नित्य, स्वयं सिद्ध चेतन तत्त्व है। ३. मायासे अवच्छिन्न होनेके कारण इस के दो रूप हो जाते है-ईश्वर व प्राज्ञ । दोनोमें समष्टि व व्यष्टि, एक व अनेक, निशुद्ध सच्च व मलिन सत्त्व, सर्वज्ञ व अल्मज्ञ, सर्वेश्वर व अनीश्वर, समष्टिका कारण शरीर और व्यष्टिका कारण शरीर आदि रूपसे दो भेद है। ईश्वर, नियन्ता, अव्यक्त, अन्तर्यामी, सृष्टिका रचयिता व जोवों को उनके कर्मानुसार फलदाता है। ४. साख्य प्ररूपित बुद्धि व पॉचो ज्ञानेन्द्रियोसे मिलकर एक विज्ञानमय कोश बनता ३. इन्द्रिय व शरीर (तत्त्व बोध ), ( भारतीय दर्शन ) १ आकाशादि अपंचीकृत भूतोके पृथक-पृथक् सात्त्विक अंशोसे क्रमश श्रोत्र, त्वक, चक्षु, जिहा, और घाण इन्द्रियकी उत्पत्ति होती है। २. इन्ही पॉचके मिलित सात्त्विक अशोमे बुद्धि, मन, चित्त व अहंकारकी उत्पत्ति होती है। ये चारो मिलकर अंत करण कहलाते है। ३. बुद्धि व पाँच ज्ञानेन्द्रियोके सम्मेलको ज्ञानमय कोष कहते है। इसमें घिरा हुआ चैतन्य ही जीव कहलाता है। जो जन्म मरणादि करता है। ४. मन व ज्ञानेन्द्रियोके सम्मेलको मनोमय कोष कहते हैं। ज्ञानमय कोषकी अपेक्षा यह कुछ स्थूल है । ५. आकाशादिके व्यष्टिगत राजसिक अंशोसे पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती है । ६. और इन्ही पाँचोके मिलित अंशसे प्राणकी उत्पत्ति होती है। वह पाँच प्रकारका होता है-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। नासिकामें स्थित वायु प्राण है, गुदाकी ओर जानेवाला अपान है, समस्त शरीरमें व्याप्त व्यान है, कण्ठमें स्थित उदान और भोजनका पाक करके बाहर निकलनेवाला समान है। ७. पाँच कर्मेन्द्रियो व प्राणके सम्मेलसे प्राणमय कोष बनता है। ८. शरीरमे यही तीन कोष काम आते है। ज्ञानमय कोषसे ज्ञान, मनोमय कोषसे इच्छा तथा प्राणमय कोषसे क्रिया होती है। ६ इन तीनो कोषोके सम्मेलसे सूक्ष्म शरीर बनता है। इसीमें वासनाएं रहती है। यह स्वप्नावस्था रूप तथा अनुपभोग्य है। १०. समष्टि रूप सूक्ष्म शरीरसे आच्छादित चैतन्य सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ या प्राण कहा जाता है तथा उसीके व्यष्टि रूपसे आच्छादित चैतन्य तैजस कहा जाता है । ११. पचीकृत उपरोक्त ५च भूतोसे स्थूल शरीर बनता है। इसे ही अन्नमय कोष कहते है। यह जागृत स्वरूप तथा उपभोग्य है। वह चार प्रकारका है-जरायुज, अण्डज, स्वेदज, व उद्भिज (बनस्पति)। १२. समष्टि रूप स्थूल शरीरसे आच्छादित चैतन्य वैश्वानर या विराट कहा जाता है। तथा व्यष्टि रूप स्थूल शरीरसे आच्छादित चैतन्य विश्व कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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