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वैदान्त
४. रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत
१. पंचीकृत विचार (तत्त्व बोध), (भारतीय दर्शन) प्रत्येक भूतका आधा भाग ग्रहण
करके उसमे शेष चार भूतोके १/८-१/८ भाग मिला देनेसे वह पचीकृत भूत कहलाता है। जैसे-१/२ आकाश+१/८ वायु+१/८ तेजस +१/८ जल + १/८ पृथिवी, इन्ही पचोकृत भूतोसे समष्टि व व्यष्टि रूप स्थूल शरीरोको उत्पत्ति होती है।
५. मोक्ष विचार (तत्त्व बोध ); ( भारतीय दर्शन ) अविद्या वश ईश्वर व प्राज्ञ. सूत्रात्मा
व तेजस, वैश्वानर व विश्व आदिमे भेदकी प्रतीति होतो है। तत्त्वमसि ऐसा गुरुका उपदेश पाकर उन सर्व भेदोसे परे उस अद्वैत ब्रह्म की ओर लक्ष्य जाता है। तत्र पहले 'साऽहं' और पीछे 'अह ब्रह्म'को प्रतीति होनेसे अज्ञानका नाश होता है। चित्त वृत्तियाँ नष्ट हो जाती है। चित्प्रतिबिम्ब ब्रह्मसे एकाकार हो जाता है। यही जीव व ब्रह्मका ऐक्य है। यही ब्रह्म साक्षात्कार है। इस अवस्थाकी प्राप्तिके लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन, व अष्टाग योग साधनकी आवश्यकता पडती है। यह अवस्था आनन्दमय तथा अबाड़मनसगोचर है। तत्पश्चात् प्रारब्ध कम शेष रहने तक शरीरमें रहना पड़ता है। उस समय तक वह जीवन्मुक्त कहलाता है। अन्तमें शरीर छूट जानेपर पूर्ण मुक्ति हो जाती है।
६. प्रमाण विचार (भारतीय दर्शन) १. प्रमाण छह है-प्रत्यक्ष. अनुमान, उपमान,
आगम, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। पिछले चारके लक्षण मीमांसकों वत है। चित्त वृत्तिका इन्द्रिय द्वारसे बाहर निकलकर विषयाकार हो जाना प्रत्यक्ष है। पर ब्रह्मका प्रत्यक्ष चित्त वृत्तिसे निरपेक्ष है। २ इस प्रत्यक्षके दो भेद है-सविकल्प व निर्विकल्प अथवा जीवसाक्षी व ईश्वर साक्षी अथवा ज्ञप्तिगत व ज्ञेयगत अथवा इन्द्रियज व अतीन्द्रियज । सविकल्प व निर्विकल्प तो नैयायिको वत है। अन्त'करणको उपाधि सहित चैतन्यका प्रत्यक्ष जीव साक्षी है जो नाना रूप है। इसी प्रकार मायोपहित चैतन्यका प्रत्यक्ष ईश्वर साक्षी है जो एक रूप है । ज्ञप्तिगत स्वप्रकाशक है और ज्ञेयगत ऊपर कहा गया है। पॉचों इन्द्रियोका ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष और सुख-दुखका वेदन अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ३, व्याप्ति ज्ञानसे उत्पन्न अनुमतिके कारणको अनुमान कहते है। वह केवल अन्वय रूप ही होता है व्यतिरेक रूप नही। नैयायिकोकी भॉति तृतीय लिग परामर्शका स्वीकार नहीं
करते। ३. भास्कर वेदान्त या द्वैताद्वैत
१. सामान्य परिचय स्या./सं म./परि-च./४४१ ई. श १० में भट्ट भास्करने ब्रह्मसूत्रपर भाष्य रचा। इनके यहाँ ज्ञान व क्रिया दोनो मोक्षके कारण है। ससारमे जीव अनेक रहते है । परन्तु मुक्त होनेपर सब ब्रह्ममें लय हो जाते है। ब्रह्म व जगत में कारण कार्य सम्बन्ध है, अत दोनो ही सत्य है।
२. तत्त्व विचार (भारतीय दर्शन) १. मूल तत्त्व एक है । उसके दो रूप है-कारण ब्रह्म व कार्य ब्रह्म । २, कारण ब्रह्म एक, अखण्ड. व्यापक, नित्य, चैतन्य है और कार्य ब्रह्म जगत स्वरूप व अनित्य है। ३. स्वत' परिणामी होने के कारण वह कारण ब्रह्म ही कार्य ब्रह्ममें परिणमित हो जाता है। ४. जीव व जगत्का प्रपञ्च ये दोनों उसी ब्रह्मकी शक्तियाँ है। प्रलयावस्थामें जगत्का सर्व प्रपञ्च और मुक्तावस्थामें जीव
स्वयं ब्रह्ममें लय हो जाते है। जीव उस ब्रह्मकी भोवतृशक्ति है और आकाशादि उसके भोग्य । १. जीव अणु रूप व नित्य है। कर्तृत्व उसका स्वभाव नहीं है । ६.जड़ जगत् भी ब्रह्मका ही परिणाम है। अन्तर केवल इतना है कि जीवमें उसकी अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष है और उसमें अप्रत्यक्ष।
३.मुक्ति विचार (भारतीय दर्शन) १. विद्याके निरन्तर अभ्याससे ज्ञान प्रगट होता है और
आजीवन शम, दम आदि योगानुष्ठानोके करनेसे शरीरका पतन, भेदका नाश, सर्वज्ञत्वकी प्राप्ति और कर्तृत्वका नाश हो जाता है। २. निवृत्ति मार्ग के क्रममें इन्द्रियाँ मनमे, बुद्धि आत्मामें और अन्तमें वह आत्मा भी परमात्मा लय हो जाता है। ३. मुक्ति दो प्रकार की है-सद्योमुक्ति व क्रममुक्ति। सद्योमुक्ति साक्षात ब्रह्मको उपासनासे तत्क्षण प्राप्त होती है। और क्रममुक्ति, कार्य ब्रह्म द्वारा सत्कृत्योके कारण देवयान मार्गसे अनेको लोकोमें घूमते हुए हिरण्यगर्भ के साथ-साथ होती है। ४. जीवन्मुक्ति कोई चीज नही। बिना शरीर छूटे मुक्ति असम्भव है। ४. रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत
१. सामान्य परिचय (भारतीय दर्शन) यामुन मुनिके शिष्य रामानुजने ई. १०५० में श्री भाष्य
व वेदान्तसारकी रचना द्वारा विशिष्टाद्वैतका प्रचार किया है । क्योकि यहाँ चित् व अचित्को ईश्वरके विशेष रूपसे स्वीकार किया गया है । इसलिए इसे विशिष्टाद्वैत कहते है। इसके विचार बहुत प्रकारसे निम्बार्क वेदान्तसे मिलते है। (दे, वेदान्त/५ )
२. तत्त्व विचार भारतीय दर्शन
तत्त्व
चि.
चित्.
अचित्
अचिव
ईश्वर
बद्ध
मुक्त नित्य शुद्धसत्त्व मिश्रसत्त्व सच्वशून्य
स आत पर युह विभव अन्तर्यामी अर्वावतार संकर्षण प्रद्य म्न अनिरुद्ध मुख्य गौण
१. मम बुद्धिसे भिन्न ज्ञानका आश्रयभूत, अणु प्रमाण, निरवयव, नित्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, निर्विकार, आनन्दरूप जीवात्मा चित है। यह ईश्वरको बुद्धिके अनुसार काम करता है। २. संसारी जीव बद्ध है इनमें भी प्रारब्ध कर्मका आश्रय लेकर मोक्षको प्रतीक्षा करनेवाले दृप्त
और शीघ्र मोक्षकी इच्छा करनेवाले आर्त है। अनुष्ठान विशेष द्वारा बैकुण्ठको प्राप्त होकर वहाँ भगवान्की सेवा करते हुए रहनेवाला जीव मुक्त है। यह सर्व लोको में अपनी इच्छासे विचरण करता है। कभी भी ससारमें न आनेवाला तथा सदा ईश्वरेच्छाके आधीन रहनेवाला नित्य जीव है। भगवान्के अवतारके समान इसके भी अवतार स्वेच्छासे होते हैं। ३. अचिव जड तत्त्व व विचारवान होता है। रजतम गुणसे रहित तथा आनन्दजनक शुद्धसत्त्व है । बैकुण्ठ धाम तथा भगवान्के शरीरोके निर्माणका कारण है। जड है या अजड़ यह नहीं कहा जा सकता। त्रिगुण मिश्रित तथा बद्ध पुरुषों के ज्ञान व आनन्दका आवरक मिश्रसत्त्व है। प्रकृति, महत,, अहंकार, मन,
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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