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बेद
२. भोगभूमिज विच मनुष्यों में तथा सभी देवीने दो ही वेद होते है
ख. १/११ / सूत्र ११०/३४७ देवा चदुस ठाणेसु दुवेदा इत्थवेदा पुरिसदा । ११० - देव चार गुणस्थान मे स्त्री और पुरुष इस प्रकार दोगले होते है । म आ./१९२६ देवाय भोगभूमा अलखबासाउगा मणुनतिरिगण । ते हाति दोसु वेदे प्रत्थि तैसि तदियवेदो । ११२६ । चारो प्रकार के देव तथा असंख्यात की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष ) है तीसरा सवे) नहीं
१/१.१.११०/३००/१२) ।
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त सू. बस सि./२/५१/२६६ न देवा । ५९० न तेषु नपुमानि सन्ति । - देशो में नदी नहीं होते ( रा वा /२/२९/१२६/२० ( तसा / २ / ८० ) ।
गो. जी / नू / १२ / २१४. देवभोग होते है।
सुरभोगभूमा पुरिसिच्छीवेदगा चैव ॥१३॥ मनुष्य व तिर्मय केवल पुरुष व स्त्री बेदी ही
२०००-१०८० यथा दिविजनारीणा मारीवेदोऽस्ति नेतर । देवाना चापि सर्वेक्षा पाक पवेद एव हि । १०५७। भोगमौ नारीणां नारीवेदो न चेतर । एवेद केवल पुसा नान्यो वान्योन्यसंभव । २०६८ - जेसे सम्पूर्ण देबागनाओंके केवलस्त्री वेदका उदय रहता है अन्य दवा नहीं, सेहो सभी देव एक पुरुषवेदका ही उदय है अन्यका नहीं | १०८० भोगभूमि में स्त्रियोके स्त्री वेद तथा पुरुषवेद ही होता है अन्य नहीं स्त्री वेदी के पुरुषवेद और पुरुष बेदी के स्त्रीबेद नहीं होता है । १००० और भी वे०/वेद/४/३)।
२. कर्मभूमिज विकलेन्द्रिय व सम्मूच्छिम वियंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं।
१/११ / सूत्र २०६/२४५ तिरिक्सा सुद्धा एवं सगवेदा एह दिय-वि जान उरिदिया । १०६ । यिंग एकेन्द्रिय जोमोसे लेकर चतु रिन्द्रिय तक शुद्ध (केवल ) नपुसकवेदी होते है । १०६ । आ. / ९९२८ एइदिय निगलिदिय पारय सम्मुखमा खस वेदो गवसगा ते णादव्त्रा होति नियमादु । ११२८ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी सम्मूच्छिम असज्ञी व सज्ञी तियंच तथा सम्मूमि मनुष्य नियमसे नपुंसक लिंगी होते है। (जि.सा/२३१)। त. सू. / २ / ५० नारक संमूच्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ =नारक और मम्मूच्छिम नपुंसक होते है ( . सा/२/८०) (मोजो //१०/२१४) १ / १.१.११०/३००/११ तिर्यमनृतपर्या
द्विप्राश्च नपुसका एव । लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पचेन्द्रिय जीव नपुंसक हो होते है ।
पध
९०१०-२०११ तिर्यग्जात सर्वेषा एकाक्षाणा नपुसक वेदो विकलत्रयाणा वनीब. स्यात् केवल. किल । १०६०। पञ्चाक्षासंज्ञिना चापि तिरश्वा स्यान्नपुंसक । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्य कदाचन १८६११ = तियंचजातियों में भी निश्चय करके द्रव्य और भाव दानोको अपेक्षासे सम्पूर्ण एकेन्द्रियों के विकले जियो के और सम्म सन्द्रियों केवल एक नपुसक वेद होता है, अन्य वेद कभी नही होता । १०६०-१०६१।
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४. कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिथंच व मनुष्य तीनों वेदवाले होते हैं
ष ख १/११ / सूत्र १०७-१०६ / ३४६ तिरक्खा तिवेदा असण्णिपचिदियपहूडि जाव सजदासजदा ति ॥१०७॥ मणुस्सा तिवेदा मिच्याइठिप्पहूडि जान अणि १०० परवेश दि १०६॥
५. गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
= तिर्यच असशी पचेन्द्रिय से लेकर सयतासयत गुणस्थान तक तीनो बेदो मे पुक्त होते है । १०० मनुष्य मिध्यादृष्टि गुणस्थान र अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेदवाले हाते है | १०८ ॥ नवमें धान के सभागके आगे सभी गुणस्थानवाले जी वेद रहिस हते है | ०६
मू आ / ११३० पचिदिया दु सेसा सण्णि असण्ण य तिरिय मणुमाय । ते होति इरिथपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहि । ९१३०१ = उपरोक्त सर्व विकल्पोसे शेष जो सज्ञी असज्ञी पचेन्द्रिय तियंच और मनुष्य स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनो वेदावाले होते है | ११३०१
त सू / २ / ५२ शेषास्त्रिवेदा १५२ = शेषके सब जीव तीन वेद वाले होते है (त.सा./२/२०)।
गोजो //१२/२९४ र सिरिये सिष्णि हौसिनर और ति में तीनों वेद होते है ।
त्रि सा / १३१ तिवेदा गभणर तिरिया । गर्भज मनुष्य व तिर्यंच तीनो बेदना होते है।
पं. ध / उ / १०६२ कर्मभूमौ मनुष्याणा मानुषीणा तथैव च । तिरश्चा वा तिरश्चीना] प्रयो वेदास्तयोदयात २०१२ कर्मभूमि मनुष्यों के और मनुष्यनियोंके तथा तियंषोंके और तियंचिनियों के अपने-अपने के अनुसार तोमो मेद होते है । २०६२ [अर्थात् य बेदी अपेक्षा [पुरुष] [] [स्त्री वेदी हाते हुए भी उनके भावकी अपेक्षा तीनो मेसे अन्यतम वेद पापा जाता है ।१०६३१०६५ । ]
५. एकेन्द्रियों में वेदभावकी सिद्धि
घ. १/ २.१.१०२ / ३४२/० एकेन्द्र नयवेद
कथ तरय तत्र सत्त्वमिति चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेद, तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभाव सिद्धयेत् सकलप्रमेयव्याप्युपलम्भबलेन तत्सिद्धि । न स छद्मस्थेष्वस्ति । एकेन्द्रियाणामप्रतिपस्त्रीपुरुषाणा वयं स्त्रीपुरुषाला घट सत्र अप्रस्त्रीयेन भूमिगृहान्त द्विमुपगतेन पूना पुरुषेण व्यभिचाराय | प्रश्न- एकेन्द्रिय जीवोके द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए परको उपलब्धि नहीं होनेपर एकेन्द्रिय जीयोमे नया वेदना अस्तित्व के से बतलाया । उत्तर- एकेन्द्रियोमे द्रव्यवेद मत होओ, क्योकि, उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है । अथवा द्रव्यवेदको एकेन्द्रियों में उपलब्धि नही होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयोमे व्याप्त होकर रहनेमा उपलम्भ प्रमाण (केवलज्ञानसे) उसकी सिद्धि हो जाती है । परन्तु वह उपलम्भ (केवलज्ञान ) छद्मस्थोंमें नहीं पाया जाता है। प्रश्न-जी स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ है ऐसे एकेन्द्रियो की स्त्री और पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात हैं और भूगृहके भीतर वृद्धिको प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुषके साथ उक्त कथनका व्यभिचार देखा जाता है।
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६. चीटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे
घ. १/१,१.१०६ / ३४६/२ पिपीलिकानामण्डदर्शनान्न ते नपुंसक इति चेन्न, अण्डाना गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावाद । - प्रश्न- चीटियों के देखे जाते है, इसलिए वेद नहीं हो सकते है। उत्तर- अग्डोकी उत्पति गर्भ में हाँ होती है। ऐसा कोई नियम नही ।
७. विग्रह गतिमें भी अव्यक्त वेद होता है
घ. ११.१.१०६/२४६/३ विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्त वेदस्य वाद-विग्रहगतिमें भी बेदका अभाव नहीं है, क्योंकि वहाँ भी अव्यक्त वेद पाया जाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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