Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 600
________________ वेदनीय वेदनीय ध. १५/पृष्ठ/पंक्ति-सादस्स जहष्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण नहीं है, क्योंकि, भिन्न-भिन्न विषयोंवाले, नयों का एक विषय मानने में छम्मासा। असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरो- विरोध आता है।-दे. नय/IV/३/३ | बमागि अंतोमुहूत्तभहियाणि । कुदो। सत्तमपुढविपवेसादो पुत्र घ. १३/१४.८८/३१७/४ अण्णाणं पि दुवप्पाययं दिस्स दि त्ति तस्स वि पच्छा च असादस्स अंतोमुत्तमेतकालमुदीरणुबलं भादो। (६२४२) । असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे। ण, अणियमेण दुक्रतुप्पायस्स सादस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादि- असादसे संते खरगमोग्गरादीणं पि असादावेदणीयत्तप्पसंगादो। रेयाणि। साइरस गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुहत्तं, उकस्से -प्रश्न--अज्ञान भी तो दुखका उत्पादक देखा जाता है, इसलिए, पि अंतोमुहूत्तं चेत्र । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ उक्कस्सं । उसे भी असाता वेदनीय क्यों न माना जाये ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, छम्मासा। मणुसगदोए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णेण एयसमओ. अनियमसे दुःखके उत्पादकको असाता वेदनीय मान लेनेपर तलवार उक्कस्सेण तोमुहुत्तं । (६८/६) । = सातावेदनीयकी उदीरणाका और मुद्गर आदिको भी असाता वेदनीय मानना पड़ेगा। काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। असाता ४. वेदनीयका कार्य बाह्य सामग्री सम्पादन है वेदनीयकी उदोरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त से अधिक तेत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि, सातवीं ध.६/१,६-१,१८/३६/पंक्ति-दुक्खुवसमहेउसुदब्बसंपादणे तस्स बाबारादी पृथिवा में प्रवेश करनेसे पूर्व और पश्चाव अन्तर्मुहूर्त मात्र काल 'ण च सुहदुक्वहेउदब्यसंपादयमण्णं कम्ममरिथ सि अणुवतक असातावेदनोयकी उदोरणा पायी जाती है। सातावेदनीयकी लंभादो।७१ = दुःख उपशमनेके कारणभूत सुव्योंके सम्पादनमें उदीरणामें अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से साधिक सातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है। सुख और दुःखके कारणभूत तेत्तीस सागरोपम प्रमाण है। गतिके अनुवादसे साताबेदनीयकी द्रव्यों का सम्पादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है। उदोरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त ही है। ध. १३/५.६.८८/३५७/२ दुक्खपडिकारहेदुदयसंपादयं.. कम्मं सादावेदअसातावेदनीयका जवन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह मास णीयं णाम ।..दुक्रवसमण हेदव्याणमवसारयं च कम्ममसादावेदणीयं प्रमाण है। मनुष्य गतिमें असाताकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे णाम । -दुःख के प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्रीका मिलनेवाला एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। कर्म सातावेदनीय है और दुःख प्रशमन करने में कारणभूत द्रव्योंका ध. १२/४,२,१३,५५/४००/२ घेयणीयउक्तस्साणुभागबंधस्स टिटदी अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। बारसमुहुत्तमत्ता। -वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागकी स्थिति बारह ध. १५/३/६/६ दुवस्खुवसमहे उदतवादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं मुहूर्त मात्र है। णिबद्ध तदुप्पत्तिकारणत्तादो। -दुःखोपशान्तिके कारणभृत द्रव्यादि की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है। उनमें वेदनीय ७. अन्य कर्मोको वेदनीय नहीं कहा जा सकता कर्म निबद्ध है, क्योंकि वह उनकी उत्पत्तिका कारण है। ध. ६/१,६-१.७१९०/७ वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उप्पत्तीए सव्व- पं.ध./पू./५८१ सद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह कम्माण वेदणीयत्तं पसजदे । ण एस दोसो, रूढिबसेण कुसलसहो करोति जोत्रो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।५८११ -सातावेदनीयके व अप्पिदपोग्गलपंजे चेत्र वेदणीयसहपउत्तीदो। -प्रश्न-'जो उदयसे प्राप्त होनेवाले घर धनधान्य और सी पुत्र वगैरहको जीव वेदन किया जाय वह वेदनीय कर्म है' इस प्रकारकी व्युत्पत्ति के स्वयं ही करता है तथा स्वयं ही भोगता है। द्वारा तो सभी कर्मोंके वेदनीयपनेका प्रसंग प्राप्त होता है ! उत्तर- दे. प्रकृतिबंध/३/३ (अघाती काँका कार्य संसारकी निमित्तभूत यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, रूढिके वशसे कुशल शब्दके समान ___ सामग्रीका प्रस्तुत करना है।) विवक्षित पुद्गल पुंजमें ही वेदनीय, इस शब्दकी प्रवृत्ति पायी। वर्णव्यवस्था/१/४ (राज्यादि सम्पदाकी प्राप्तिमें साता वेदनीयका जाती है। जमे 'कुशल' शब्दका अर्थ 'कुशको लानेवाला' ऐसा होने- ___व्यापार है)। पर भी वह 'चतुर' अर्थ में प्रयोग होता है, इसी प्रकार सभी कर्मोंमें वेदनीयता होते हुए भी वेदनीय संज्ञा एक कर्म विशेषके लिए ९. उपघात नाम कर्म उपरोक्त कार्यमें सहायक है ध. ६/१६-१,२८/१६/५ जीवस्स दुक्खुप्पायणे असादावेदणीयस्स बावारो ध.१०/४.२,३,३/१६/६ वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संवबहार- चे, होदु तत्थ तस्स वावारो, किंतु उवधादकम्मं पि तस्स सहकारिदंसणादो। ण च ताणि सुहदुक्खाणि वेयणीयपोग्गलबंधं कारणं होदि, तदुदयणिमित्तपोग्गलदव्यसंपादणादो। -जीवके दुःख मोत्तण अण्णकम्मदवे हितो उपज्जति, फलाभावेण बेयणीय- उत्पन्न करने में तो असातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है। [फिर कम्माभावप्पसंगादो । तम्हा सव्यकम्माणं पडिसेहं काऊण यहाँ उपघात कर्मको जीव पीड़ाका कारण कैसे बताया जा रहा है ] : पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव बेयणा त्ति उत्तं । अण्णं कम्माणमु- उत्तर-तहाँ असाता वेदनीयका व्यापार रहा आवे, किन्तु उपधातदयगदपोग्गलक्खंधो बेदणा ति किम₹ एत्थ ण घेप्पदे । कर्म भी उस असातावेदनीयका सहकारी कारण होता है, क्योंकि, ण, एदम्हि अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे उसके उदयके निमित्तसे दुःरखकर पुदगल द्रव्यका सम्पादन होता है। अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, भिण्ण विसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादा। -वेदनाका अर्थ सुख दुख है. क्योंकि, लोकमें वैसा व्यवहार १०. सातावेदनीय कथंचित् जीवपुद्गल विपाकी है देखा जाता है। और वे सुख-दुख बेदनीय रूप पुदगलस्कन्धके सिवा घ.६/१,६-१,१८/३६/२ एवं संते सादावेयणीयस्स पोग्गलविवाइत अभ्य कर्म द्रव्योंसे नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस प्रकार फलका होइ ति णासंकणिउज, दुक्खबसमेणुप्पण्ण सुवस्थियकणस्स दुक्रवाअभाव होनेसे वेदनीय कर्मके अभावका प्रसंग आता है। इसलिए विणाभाविस्स उवयारेणेव लसुहसण्णास्स जीवादो पुधभूदस्स हेदुत्तप्रकृत में सब कर्मों का प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्यको ही णेण मुत्ते तस्स जीव विधाइत्तमुहहेदुत्ताणमुबदेसादो। तो वि जीववेदना ऐसा कहा है। प्रश्न-आठ कर्मोका उदयगत पुद्गलस्कन्ध पोग्गल बिवाइत्तं सादावेदणीयस्स पायेदि ति चे ण, इत्तादो। वेदना है. ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते-दे. वेदना । उत्तर-नहीं, तहोबएसो णस्थि त्ति चेण, जीवस्स अस्थित्तण्णहाणुववत्तीदो तहोवक्योंकि, वेदनाको स्वीकार करनेवाले अजुसूत्र नयके अभिप्रायमें वैसा देसस्थित्त सिद्धीए। ण च सुह-दुक्ख हेउदवसंपादयमण्णं कम्ममस्थि मानना सम्भव नहीं है। और अन्य अजुसूत्रमें अन्य अजुसूत्र सम्भव त्ति अणुवलं भादो। - [सुखके हेतुभूत बाह्य सामग्री सम्पादतमें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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