________________
वेदनाभय
कुण तस्स कधं वेयणाववएसो ण उत्तरकाले फलदाइत्तण्णहाणुववतो बंधसमए वि वेदणभावसिद्धीए । कथंचित् बध्यमान वेदना होती है कि उससे अज्ञानादिरूप फलकी उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न- चूँकि बाँधा जानेवाला कर्म उस समय फलको करता नहीं है, अत उसकी वेदना सक्षा कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, इसके बिना वह उत्तरकालमें फलदाता बन नहीं सकता, अतएव बन्धसमय में भी उसे वेदना सिद्ध है । * वेदना नामका आध्यान दे० ध्यान आर्तध्यान । वेदनाभय - दे० भय । वेदना सन्निकर्ष.
-दे, सन्निकर्ष ।
-
वेदना समुद्घातरा. वा./१/२०/१२/०७/१३
यातिकादिरोगविद्यादिव्यसंम्भसंतापापादितवेदमाकृत वेदनासमुद्रात वात पित्तादि विकार जनित रोग या विषपान आदिकी तीव्रवेदनासे आत्म प्रदेशका बाहर लिना वेदना समुद्रात है।
घ. ४/१.३.२/२६/० तस्य वेदसमुग्धादो णाम अत्रि-सिरोवेदणादीहि जीवाणमुखरसेम सरीरतिगुण विष्णंने वेदना, शिरोवेदना, आदिके द्वारा जोवोके प्रदेशोंका उत्कृष्टत शरीरसे तिगुणे प्रमाण विसर्पणका नाम वेदनासमुद्घात है । (६.७/२.६.१/२११/८ );
(ध. १९/४.२.५.६/१८/७ ) 1 इ.सं./टी./१०/२५/३ तीमवेदनानुभवासवारीरमव्यवस्था आत्मप्रदेशानां बहिर्निगमनमिति वेदनासमुदात तीन पीडाके अनुभवसे मूल शरीर न छोडते हुए जो आत्माके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना सो वेदना समुद्घात है ।
२. वेदना समुद्घातमें प्रदेशोंका विस्तार
-
Jain Education International
=
ध. १९/४,२,५,६ /१८/७ वेयणावसेण जीवपदेसाणं विक्वं भुस्सेहे हि तिगुणविपंजणं वेयणासमुग्धादो णाम । णच एस नियमो सवेसि जीवपदेसा बेयणाए तिगुणं चैव विपुंजंति सि, किंतु सगविभादो तर तमसरूप दिवेणावसेज एगदोपदेसादीहि वि बड़ी होदि
१-वेदनाके बसे जीन प्रदेशोंके विष्कम्भ और उत्सेधकी अपेक्षा तिगुने प्रमाण में फैलनेका नाम वेदना समुद्घात है। (ध. ७) २.६.१.२११/-); (ऊपरवाला लक्षण (गो.जी./जी. २/०४/२०२३ / ८ ) । २. परन्तु सबके जीवप्रदेश वेदनाके वशसे तिगुणे ही फैलते हो, ऐसा नियम नहीं है किन्तु तरतम रूपसे स्थित वेदना के बासे अपने विष्कम्भकी अपेक्षा एक दो प्रदेशादिको से भी वृद्धि होती है। ३. निगोद जीवको वह सम्भव नहीं ध.१९/४,२.१.१२/२१/२ निगोवे सुष्पजमाणस्स अतिव्यवेणाभावेण निगोद जीवोमें सरतिपादस्स अभावाद । उत्पन्न होनेवाले जीनके अतिशय तीन वेदनाका अभाव होने व क्षित शरीरसे तिगुणा वेदना समुद्रचात सम्भव नहीं है। ४. जीव प्रदेशों के खण्डित होने की संभावना
५९१
।
स्था. मं./१/१०२/१६ शरीर भयात्ममदेशेभ्यो हि कतिध्यात्मप्रदेशान खण्डित शरीरप्रदेशेऽवस्थानादात्मनः खण्डनम् । तञ्चात्र विद्यत एव । अन्यथा दारीरात् पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् न च पण्डितस्यात्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्प्रसङ्ग प्रेश प्रवेशाद खण्डिताय संचन पश्चाद इति वेद. एकान्तेन वेदान पुपगमात पद्मासन्तु माथि स्वीकाराय । - शरीर से सम्बद्ध आत्म-प्रदेशोंमें कुछ आत्मप्रदेशोंके खण्डित शरीर में रहने की अपेक्षासे आत्माका खण्डन होता है, अन्यथा तलवार बादिसे कटे हुए शरीरके पृथग्भूत अस्वकम्पन न देखा जाता । खण्डित अवयवो में प्रविष्ट आत्मप्रदेशों में पृथक् आत्मा
वेदनीय
का प्रसग भी नहीं आता है, क्योंकि, वे फिरसे पहले ही शरीर में लौट आते है । प्रश्न- आत्मा के अवयव खण्डित हो जानेपर पीछे फिर एक कैसे हो जाते है ? उत्तर-हम उनका सर्वथा विभाग नही मानते कमसनासके राम्तुओ की तरह आत्मा प्रदेशका छेद स्वीकार करते है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
* बद्धायुष्क व अवद्वायुष्क सबको होता है। दे० मरण /२/० * वेदना व मारणान्तिक समुद्घातमें अन्तर ।
* वेदना समुद्वातका स्वामित्व
- दे० क्षेत्र/३ ।
* वेदना समुद्घातकी दिशाएँ व काल स्थिति । - दे० समुद्घात । वेदनीय: "बाह्य सामग्री के संयोग व वियोग द्वारा जीवके बाह्य सुख-दुःखको कारण वेदनीय दो प्रकारका होता है-सुखको कारणभूत सातावेदनीय और दुखको कारणभूत असाला वेदनीय क्योंकि माद्य पदार्थोंगे इटानिकी कल्पना मोहके आधीन है, इसलिए इस कर्मका व्यापर भी मोहनीयके सहमत है।
१. वेदनीय कर्मका सामान्य लक्षण
स.सि /८/४/३८०/४ वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम् । स.सि /८/३/२०६/१ वैद्यस्य सदसलक्षणस्य सुखस्वेदन जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। सद- अलक्षणनाले वेदनीयकर्म की प्रकृति सुख व दुखका संवेदन कराना है। ( रा था / २/३/२/५६८/१+४/४६७/३). (घ. ६/१.२-१.७/१०/०६६ (गो९४/१०); (गो.क./
श्री. प्र./२०/१३/१४) ।
६/१.१ १.०/१०/३ जीवस्स हायपोग्लो मिच्तादिपश्चययसेन कम्मपाय परिषदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे । =जीवके सुख और दुखके अनुभवनका कारण, मिथ्यात्व आदिके प्रत्ययोके वशसे कर्मरूप पर्यायसे परिणत और जीवके साथ समवाय सम्बन्धको प्राप्त पुद्गलस्कन्ध 'वेदनीय' इस नामसे कहा जाता है।
घ. १३/२२.१६/२०८/० जीवस्य सह-दुखपाप की माम
जीवके सुख और दुखका उत्पादक कर्म वेदनीय है। (ध. १५/३/६ / ६ ), (द्र.सं./ टी / ३३/१२/१०) ।
२. वेदनीय कर्मके भेद-प्रभेद
ष. वं./६/१,६ - १ / सूत्र १७ - १८/३४ वेदणीयस्स कम्मस्स दुवै पयडीओ | १७ | सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेत्र | १८ | = वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ है | १७ | सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो ही बेदनीय कर्मको प्रकृतियों है | १८१ ( प . / ११ / ४.२.१४/सूत्र ६०/४०९) (१/११/२०२ / ००० / ३५4 ) ( म. नं. १/१५/२०) (सू. आ. / १२२६), (त.सु /८/-), (पं.सं./प्रा./२/४ ); ( त, सा./५/२७ ); (गो. क / जी. प्र. / २५/१७/७) ।
ध. १२ / ४,२, १४, ७/४८१ / ४ सादावेदणीयमसादा वेदणीयमिदि दो चैव सहावा, सुहदुस्ववेयणाहितो धनुदार अणिस्से यणार अणुसंभादो सुइभेदेण दुइभेदेन च वर्णतवियपेण वेयणीयमस् अताओ सत्तीओ किरण पढिदाओ । सच्चमेदं जदि पज्जवर ठियणओ अवलंविदो किंतु एत्थ दव्वट्ठियणओ अवलंबिदो त्ति वेयणीयस्स ण तत्तियमेत्तसत्तीओ, दुवे चैव । सातावेदनीय और असातावेदनीय इस प्रकार वेदनीयके दो ही स्वभाव है, क्योंकि, गुलम दुखरूप वेदनाओसे भिन्न अन्य कोई वेदना पायी नहीं जाती । प्रश्न - अनन्त विकल्प रूप सुखके भेदसे और दुखके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org