Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 597
________________ वंदक वेदना ८. मुक्ति निषेध हेतु उत्तम संहननादिका अभाव प्र सा/ता. वृ /प्रक्षेपक २२.-८/३०४/१८ किच यथा प्रथममहननाभावात्सो सप्तमनरक न गच्छति तथा निर्वाणमपि। पुवेद वेदंता पुरिसा जे व नगमे डिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा माणुवजुत्ता य ते दु सिझ ति । इति गाथाकथितार्थाभिप्रायेण भावतीणा कथ निर्वाण मिति चेत् । तासा भावस्रोणा प्रथमसहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमायपरिणाम प्रतिबन्धकतीवकामोद्रेकोऽपि नास्ति। द्रव्यमीणा प्रथमसहनन नास्तीति, स्मान्नागमे कथितमास्त इति चेत् । प्रश्न-जिस प्रकार प्रथम सहनन के अभावसे स्त्री सप्तम नरक नही जाती है, उसी प्रकार निर्वाणको भी प्राप्त नहीं करती है। सिद्धभक्तिमे कहा है कि द्रव्यसे पुरुषवेदको अथवा भावमे तीनो वेदोको अनुभव करता हुआ जीव क्षपकश्रेणीपर आरूढ ध्यानसे सयुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है। इस गाथामे कहे गये अभिप्रायसे भावस्त्रियोको निर्वाण कैसे हो सकता है। उत्तर-भावस्त्रोको प्रथम सहनन भी होता है और द्रव्य स्खीवेदके अभावसे उसको मोक्षपरिणामका प्रतिबन्धक तीव्र कामोद्रेक भी नही होता है। परन्तु द्रव्य खोको प्रथम सहनन नही होती, क्योकि, आगममें उसका निषेध किया है। ९. स्त्रीको तीर्थकर कहना युक्त नहीं -दे. सहनन। प्र सा./ता वृ /प्रक्षेपक २२५-८/३०५/३ किंतु भवन्मते मल्लितीर्थकर' नीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्भयादिपांडशभावना पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टे स्रीवेदकर्मणो बन्ध एवं नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति। कि च यदि मलितीर्थ करो वान्यः कोऽपि वा वीभूत्वा निर्वाण गत तहि स्त्रीरुपप्रतिमाराधना कि न क्रियते भवदभि । = किन्तु आपके मतमें मल्लितीथंकरको स्त्री कहा है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि, तीर्थंकर पूर्वभवमे षोडशकारण भावनाओको भाकर होते है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव खोवेद कर्मका अन्ध ही नहीं करते, तब वे स्त्री कैसे बन सकते है। [ सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोमे उत्पन्न नही होते-दे० जन्म/3] । और भी यदि मल्लितीर्थकर या कोई अन्य स्त्री होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ है तो आप लोग स्त्रीरूप प्रतिमाकी भी आराधना क्यो नही करते। दे० तीर्थकर/२/२ (तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध यद्यपि तीनो वेदोमें होता है पर उसका उदय एक पुरुषवेदमे ही सम्भव है।) वेदक-ल सा/भाषा/२७२/३२६/७ वेदक कहिए उदयका भोक्ता। २ वेदकका सत्त्वकाल-दे० काल/६। वेदक सम्यग्दर्शन-१ वेदक व कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन निर्देश। -दे० सम्यग्दर्शन । IV/४ । २--वेदक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें अन्तर ।-दे०क्षायोपशम/२। वेदन-त्या, वि. /१/२/१७/२१ वेदनम् ज्ञानम् । =वेदन अर्थात ध १२/१,२.१०.१/३०२/७ अनुभवनं वेदना। - अनुभव करनेका नाम वेदना है। दे. उपलब्धि-(चेतना, अनुभूति, उपलब्धि व वेदना ये ठाब्द एकार्थवाची है।) २. कर्म व नोकर्मके अर्थ में ध ११/१,२,१०,१/३०२/४ वेद्यते वेदिष्यत इति वेदनाशब्दसिद्ध । अठ्ठबिहकम्मपोग्गलक्रबंधो वेयणा । णोकामपोग्गला वि वेदिज्जति त्ति तेसि वेयणासण्णा क्ण्णि इच्छज्जदे। ण, अविहकम्मपरूवणाए परूविजमाणाए णोकम्मपरूवणाए संभवाभावादो। =जिसका वर्तमानमें अनुभव किया जाता है, या भविष्य में किया जायेगा वह वेदना है. इस निरुक्तिके अनुसार आठ प्रकारके कर्म पुद्गलस्बन्धको वेदना कहा गया है। प्रश्न-नोकर्म भी तो अनुभव के विषय होते है, फिर उनकी वेदना संज्ञा क्यों अभीष्ट नहीं है। उत्तर-नही, क्योकि, आठ प्रकारके कर्मकी प्ररूपणाका निरूपण करते समय नोकर्म प्ररूपणाकी सम्भावना ही नही है। घ १४/५.६,६८/४/३ वैद्यन्त इति वेदना । जीवादो पृधभूदा कम्मणोकम्मबंधपाओग्गरखंधा अवधणिज्जा णाम। तेसि कधं वेदणाभावो जुज्जदे । ण, दम्ब खेत्तकालभावेहि वेदणापाओग्गेसु दव्य ठ्ठियणयमस्सिदूण वेदणासद्दपवुत्तीए अब्भुवगमादो। वेदनात्वमात्मा स्वरूपं येषा ते वेदनात्मान पुद्गला' इह गृहीतव्या' । कुदो। अण्णेसिं बधणिज्जत्ताभावादो। ते च बधणिज्जा पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खधसरूवाण ताणं तपरमाणुपोग्गल समुदयसमागमेण बंधपाओग्गपोग्गलस - मुप्पत्तीदो। जो वेदे जाते है उन्हे वेदन कहते है, जीवसे पृथग्भूत बन्धयोग्य कर्म और नोकर्म स्कन्ध बन्धनीय कहलाते है। प्रश्न-वे वेदनरूप कैसे हो सकते है। उत्तर-नही, क्योकि, जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा वेदनायोग्य है, उनमें द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा वेदना शब्दकी प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है। वेदनपना जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप है वे वेदनात्मा कहनाते है। यहाँ इस पदसे पुद्गलोका ग्रहण करना चाहिए, क्यो कि अन्य कोई पदार्थ अन्धनीय नहीं हो सकते। वे बन्धनीय पुदगल स्कन्धसमुद्दिष्ट अर्थात स्कन्ध स्वरूप कहे गये हैं, क्योकि स्कन्धरूप अनन्तानन्त परमाणुपुद्गलोंके समुदायरूप समागमसे बन्धयोग्य पुद्गल होते हैं। २. निक्षेपोंकी अपेक्षा वेदनाके भेद व लक्षण ध. १०/१,२,१.३./७/८ तवदि रित्तणोआगमदव्ववेयणा कम्मणोक्म्मभेएण दुविहा । तत्थ कम्मवेयणा णाणावरणादिभेएण अट्ठविहा । णोकम्मणोआगमदबवेयणा सचित्त-अचित्त-मिस्सभेएण तिविहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा कम्मणोक्म्मभेएण विहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा सिद्वजोबदव्य । अचित्तदव्ववेयणा पोग्गल कालागास-धम्माधम्मदव्वाणि । मिस्सदबवेयणास सारिजीवदव्य, कम्मणोक्म्मजीवसमवायस्स जीवजीवे हितो पृधभावदसणादो। -[नाम, स्थापना, आदि निक्षेपो रूप भेद तो यथायोग्य निक्षेपोयत जानने ] तद्वचतिरिक्त नोआगम द्रव्य वेदना कम और नोकर्म के भेद से दो प्रकारकी है। उनमेसे कर्मवेदना ज्ञानावरण आदि के भेदसे आठ प्रकार की है' तथा नोकर्म नोआगम द्रव्य वेदना सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। उनमें से सचित्त द्रव्यवेदना सिद्धजीव द्रव्य है । अचित्त द्रव्य वेदना पुदगल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य है। मिश्र द्रव्यवेदना संसारी जीवद्रव्य है, क्योकि, म और नोवर्मका जीवके साथ हुआ सम्बन्ध जीव और अजीबसे भिन्न रूपसे देखा जाता है। ..बध्यमान द्रव्यको वेदना सज्ञा कैसे ध १२/४,२,१०,३/१०४/8 सिया मज्झमाणिया वेयणा होदि, तत्तो अण्णाणादि फलुप्पत्तिदं सणादो। बज्झमाणस्स कम्मरस फलम वेदना १ सुख दुःख अर्थमें स सि 18/१२/४४७/५ वेदनाशब्द सुखे दू खे च बर्तमानोऽपि आर्तस्य प्रकृतत्वाद् दुखवेदनाया प्रवर्तते। ='वेदना' शब्द यद्यपि सुख और दुख दोनो अर्थोमे विद्यमान है पर यहाँ आर्त ध्यानका प्रकरण होनेसे उससे दुखवेदना ली गयी है। (रा वा /8/३२/१/६२८/२०)। रा.वा./६/११/१२/५२१/६ विदेश्चेतनार्थस्य ग्रहणात । विदे चुरादिण्यन्तस्य चेतनार्थस्येदं वेद्यमिति । == बिद्, विदल, विन्ति और विद्यति ये चार विद् धातुएंक्रमा ज्ञान, लाभ, विचार और सद्भाव अर्थको कहती है। यहाँ चेतनार्थक विद्ध धातुसे चुरादिण्यन्त प्रत्यय करके वेद्य शब्द बना है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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