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७. स्त्रीप्रव्रज्या व मुक्तिनिषेध
ध/१,८,७५/२७८/१० कुदो । अप्पसत्यवेदोदएण दंसणमोहणीय रखवेत
जीवाणं बहूणमणुवल भा। - केवल विशेषता यह है कि मनुष्यणियोमे असयत सम्यग्दृष्टि, स यतासयत, प्रमत्त सयत और अप्रमत्तसयत गुणस्थानमे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है।७५। क्योकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयको क्षपण करनेवाले जीव बहुत नही पाये जाते है। ३. अप्रशस्तवेदके साथ आहारक आदि ऋद्धियोंका निषेध दे |वेद/६/१-मै क. पा-(अप्रशस्तवेदके उदयके साथ मन पर्यय
ज्ञान आदिका होना सम्भव नहीं।) दे. आहार /४/३-(भाव पुरुष द्रव्य स्त्रीको यद्यपि संयम होता है, परन्तु उनको आहारक ऋद्धि नही होती। द्रव्य स्त्रीको तो संयम ही नहीं होता, तहाँ आहार ऋद्धिका प्रश्न ही क्या।) . गो. जी./मू. व जी प्र./७१५/११५४/५,६ मणुसिणि पमत्त विरदे आहार
दुगं तु णत्थि णियमेण। ७१५॥ नुशब्दात् अशुभवेदोदये मन पर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । - मनुष्यणीको प्रमत्तविरत गुणस्थानमें नियमसे आहार व आहारक मिश्र योग नहीं होते। 'तु' शब्दसे अशुभ वेदके उदयमे मन पर्ययज्ञान व परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए। गो. जो/मू. जी. प्र./७२४/११६०/२.५ णवरि य संढिच्छीणं णस्थि
हु आहारगाण दुर्ग १७२४-भावषण्डदव्यपुरुष भावस्त्रीद्रव्यपुरुष च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिनालापौ न । = इतनी विशेषता है कि नपुसक व स्त्री वेदीको आहारकद्विक नहीं होते हैं। तात्पर्य यह कि भावनपुसक द्रव्यपुरुषों अथवा भावस्त्री द्रव्यपुषरुमे प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहार व आहारकमिश्र ये आलाप नहीं होते है।
६. वेदमार्गणामें सम्यक्त्व व गुणस्थान
१. सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश दे. वेद//नं. [ नरक गतिमें नपु सक वेदी १-४ गुणस्थान बाले होते है ।।तियंच त नो वेदोवाले १-५ गुणस्थान वाले होते है।४। मनुष्य तीनो वेदोमे १-१ गुण स्थानवाले होते है। और इससे आगे वेद रहित होते है ।४। देव स्त्री व पुरुष वेद में १-४ गुणस्थान वाले होते है ।२१] दे० नरक/४/ न [नरककी प्रथम पृथिवीमे क्षायिक औपमिक व क्षायोपशमिक तीनो सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु शेष छ पृथिवियोमे क्षायिक रहित दो ही सम्भव है ।२। प्रथम पृथिवी सभ्यग्दृष्टि पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनो अवस्थाओमें होते है पर शेष छ' पृथिवियोमें पर्याप्तक ही होते है 131] दे तियंच/२/नं.तियंच व योनिमति तिथंच १-५ गुण स्थानवाले होते है। तियंचको चोथे गुणस्थानमे क्षायिक सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु पोचवे गुणस्थानमे नही। योनिमतो तिर्यचको चौथे व पाँचवें दोनो ही गुणस्थानोमें क्षायिक्सम्यग्दर्शन सम्भव नही।११ तिर्यच तो चौथे गुणस्थानमें पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों सम्भव है, परन्तु योनिमति तियंच केवल पर्याप्त हो सम्भव है। पाँचवें गुणस्थानमे दोनो
ही पर्याप्त होते है अपर्याप्त नहीं /२१] दे मनुष्य/३/न. [ मनुष्य व मनुष्यणी दोनो ही सयत व क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने सम्भव है ।। मनुष्य तो सम्यग्दृष्टि पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो प्रकार के होते है, परन्तु मनुष्यणी सम्यग्दृष्टि केवल पर्याप्त ही होते है। शेष५-१४ गुणस्थानोमे दोनो पर्याप्त ही होते हैं ।२।] दे देव./३/नं.[कल्पवासी देवोमे क्षायिक औपशामिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु भवनत्रिक देवो व सर्व देवियोंमें क्षायिक रहित दो ही सभ्यक्त्व सम्भव है ।१। कल्पवासी देव तो असंयत मम्यग्दृष्टि गुणस्थानमै पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो होते है, पर भवनत्रिकदेव व सर्व देवियाँ नियमसे पर्याप्त ही होते है ।२१] क. पा. ३/३-२२/६४२६/२४१/१३ जहा अप्पसत्थ वेदोदएण मणपज्जवणा- णादीणं ण संभवो तहा दंसणमोहणीयबबवणाए तत्थ कि संभवो अत्यि णत्थि त्ति संदेहेण घुलं तहियस्स सिस्ससदेहविणासणट्ठ मणुसस्स मणुसिणीए वा त्ति भणिदं । जिस प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयके साथ मन पर्यय ज्ञानादिकका होना सम्भव नही है-(दे शीर्षक नं. ३) इसी प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयमें दर्शनमोहनीयको क्षपणा क्या सम्भव है या नहीं है, इस प्रकार सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिए सूत्रमे 'मणुसस्स मणुस्सणीए वा' यह पद कहा है। ( मनुष्यका अर्थ पुरुष व नपुंसक वेदी मनुष्य है और मनुष्यणीका अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य है।-दे. वेद/३/५ । अत तीनो वेदोमे दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है।] गो. जी /जी./प्र/७१४/११५३/११ असयततैरश्च्या प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असं यतमानुष्या प्रथमोपशमवेदकक्षायिक्सम्यक्त्वत्रय च सभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव। योनिमतीना पञ्चमगुणस्थानादुपरि गमनासभवाव द्वितीयोपशमसम्यक्त्व नास्ति । --असयत तिर्यचौमे प्रथमोपशम व वेदक ये दो ही सम्यक्त्व होते है और मनुष्यणोके प्रशमोपशम, वेदक व क्षायिक ये तीनो सम्यक्त्व सम्भव है। तथापि तहाँ एक भुज्यमान पर्याप्त आलाप ही होता है। योनिमती मनुष्य या तिर्यचका तो पंचमगुणस्थानसे ऊपर जाना असम्भव होनेसे यहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता। २. अप्रशस्त वेदोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प होते हैं ष. स्त्र १/१,८/सू ७५/२०८ णवरि विसेसो, मणुसिणीसु असंजद संजदासजद-पमत्तापमत्तसजदाणे सवयोवो खइयसन्माइट्ठी १७५॥
७. स्त्रीप्रव्रज्या व मक्तिनिषेध
१. स्त्रीको तद्भवसे मोक्ष नहीं होता शी. पा/म् /२६ सुणहाण य गोपसुमहिलाण दोसदे मोक्खो। जे शोधंति चउत्थं पिच्छिज्जता जणेहि सव्वेहिं ।२६। = श्वान, गर्दभ, गौ आदि पशु और खी इनको मोक्ष होते हुए किसने देखा है। जो चौथे मोक्ष पुरुषार्थ का शोधन करता है उसको ही भुक्ति होती है ।२६॥ प्र.सा./प्रक्षेपक/२२५-८/३०४ जदि दसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता। घोर चरदि य चरिय इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ।। -सम्यग्दर्शनसे शुद्धि, सूत्रका अध्ययन तथा तपश्चरणरूप चारित्र इन कर सयुक्त भी खीको कर्मोंकी सम्पूर्ण निर्जरा नही कही गयी है। मो. पा /टो./१२/३१३/११ खीणामपि मुक्तिर्न भवति महावताभावात् ।
महाबतोका अभाव होनेसे स्त्रियोको मुक्ति नहीं होती।-(और भी दे. शीर्षक न.४) दे. शीर्षक न.४-(सावरण होनेके कारण उन्हे मुक्ति नही है।) दे. मोक्ष/४/५-(तीनो ही भाव 'लिगोसे मोक्ष सम्भव है, पर द्रव्यसे केवल पुरुषवेदसे ही होता है)। २. फिर भी भवान्तरमें मुक्तिकी अभिलाषासे जिन दीक्षा लेती हैं प्र. सा/ता, वृ /प्रक्षेपक २२५-८/३०५/७ यदि पूर्वोक्तदोषा' सन्त. स्त्रीणां
तहि सीतारुक्मिणीकुन्तीद्रौपदीसुभद्राप्रभृतयो जिनदीक्षा गृहीत्वा विशिष्टतपश्चरणेन कथं षोडशस्वर्ग गता इति चेत् । परिहारमाह-तत्र दोषो नास्ति तस्मात्स्वर्गादागत्य पुरुषवेदेन मोक्ष यास्यन्त्यग्रे ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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