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स्थिति नोकवायके उदय प्राप्त होती है वह भाग है। (गो. जी. यू. / २०१ / २६१), (घट / १०८०-१०८२ ) । रावा /२/६/३/१०६/२ द्रव्यलिङ्ग नामकर्मोदयापादितं. भावलिड्गमात्मपरिणाम. स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षण स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य यस्य स्त्रीवेदपुवेदनपुंसक वेदस्योदयाद्भवति । - गामकर्मके उसे होनेवाला उपसिग है ओर भाग लिग आत्मपरिणामरूप है। वह स्त्री पुरुष व मसक इन सीनोमे परस्पर एक दूसरेकी अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोहके विकरूप] स्त्री पुरुष नपुंसकवेद नामके नोकषायके उदयसे होता है।
४. अपगतवेदका लक्षण
पं.सं.प्रा.३/१/१०८
अवयवेदा जीवा सयसंभवणं तवरसोक्खा | १०८ |
करिता मग्गीसरिसपरिणामवेदका
जो कारीष
अर्थात् कण्डेकी अग्नि तृणकी अग्नि और इष्टपाककी अग्नि के समान क्रमश स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकमेवरूप परिणामोके वेदनले उन्मुक्त है और अपनी आत्मामें उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत बेदी कहलाते है। ( ध १ / १,१० १०१/गा. १७३ / ३४३) (गो.जी./मू./२७६/५६७ ) ।
ध. १/१,१,१०१/३४२/३ अपगतास्त्रयोऽपि वेदसतापा येषा तेऽपगतवेदा' । प्रक्षीणान्तर्दाह इति यावत् । = जिनके तीनो प्रकारके वेदोसे उत्पन्न होनेवाला सन्ताप या अन्तर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव है ।
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५. वेदके लक्षण सम्बन्धी शंकाएँ घ. १/१.१.४/१४०/५ मे इति वेद अडकनोंदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत् प्रत्यविशेषादिति चेन्त्र, 'सामान्ययोदनाश्च विशेषेप्यनठिन्ते इति विशेषावगा उत्पत्ति इति वा । अथवात्मप्रवृत्ते. संमोहोत्पादो वेद । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेश' स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशाद। अथवात्मवृत्ते में धुनसंमोहोत्पादो वेद । = जो बेदा जाय उसे वेद कहते है। प्रश्न- वेदका इस प्रकारका लक्षण करनेपर आठ कर्मों के उदयको भी वेद सज्ञा प्राप्त हो जायेगो, क्योंकि, वेदनको अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनो ही समान है ' उत्तर-ऐसा नही है. १. क्योकि सामान्यरूपसे की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषो में पायी जाती है, इसलिए विशेषका ज्ञान हो जाता है। (ध. ७/२.१.२७/०१/१) अथवा २, रोडिक शन्दोकी उत्पत्ति रूढि अधीन होती है, इसलिए वेदान् पुरुषवेदादि रूढ होनेके कारण 'वैद्य' अर्थात जो वेदा जाय इस व्युत्पत्तिसे वेदका ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके उदयका नही । अथवा आत्म प्रवृत्तिमें सम्मोहके उत्पन्न होनेको वेद कहते है । प्रश्न -- इस प्रकारके लक्षणके करनेपर भी सम्पूर्ण मोहके उदयको मेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योकि, वेदकी तरह शेष मोह भी व्यामोहको उत्पन्न करता है ? उत्तर- ऐसी शका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, रूढिके बलसे वेद नाम के कर्मके उदयको ही वेद सज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है ।
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सोकने मेहनादि लिंगको स्त्री पुरुष आदि पना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नही ) । २. वेद निर्देश
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१. वेदमार्गणा माववेद इष्ट
रावा/८/१/४/०४/२२ ननु लोके प्रतीत योनिमुदुस्तनादिस्त्रीद लिङ्गम्, न तस्य नामकर्मोदयनिमित्तत्वात, अत पंसोऽपि स्त्री
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२. वेद निर्देश
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वेदोदय । कदाचिद्योषितोऽपि वेदोदयोऽप्याभ्य । शरीराकारस्तु नामकर्ममिति एतेनेतरी व्याख्याती । रा.वा./२/६/३/१०१/२ प्रसिद्ध नामकर्मोदयापादित तदिह नाथिकृतम् आत्मपरिणामप्रकरणात् भावलिङ्गमात्मपरिणाम प्रश्नतो योनि व मृदुस्तन आदिको स्त्री वेद या सिग कहते है, आप दुसरी प्रकार लक्षण के से करते है उत्तर नहीं, क्योंकि १. वह नामकर्मोदयसे उत्पन्न होता है, अतः कदाचित् अन्तरंग परिणामोकी विशेषतासे द्रव्य पुरुषको स्त्रीवेदका और द्रव्य स्त्रीको पुरुषवेदका उद देखा जाता है (०४) शरीरोके आकार नामकर्मसे निर्मित है, इसलिए अन्य प्रकारसे व्याख्या की गयी है । २ यहाँ जीवके औयिकादि भावोका प्रकरण है, इसलिए नामकर्मोदयापादितव्य लिगका यहाँ अधिकार नहीं है। भावसिंग आत्म परिणाम है, इसलिए उसका ही यहाँ अधिकार है।
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घ. १/१.१.१०४/३४३५/१न द्रव्यवेदस्याभावस्तेन विकाराभावात् । अधिकृतोऽत्र भाववेदस्ततस्तरभावादपगतवेदो नान्यथेति यद्यपि गुणस्थान से आगे द्रव्यवेदका सद्भाव पाया जाता है; परन्तु केवल अपवेदसे ही विकार उत्पन्न नहीं होता है। यहॉपर तो भाववेदका अधिकार है। इसलिए भाववेद के अभाव से हो उन जोषोको अपगतवेद जानना चाहिए, मेदके अभाव से नहीं विशेष दे. शीर्षक
न ३ ) ।
.२/१६/१२/- वेदो अददो नि अस्थि, एथ भाववेदेन पपई वेदेश कि कारणं भागदवेदो विवादो
- मनुष्य स्त्रियों के ( मनुषणियोके) स्त्रीवेद और अपगत वेद स्थान भी होता है । यहाँ भाववेदसे प्रयोजन है, द्रव्य वेदसे नहीं । इसका कारण यह है कि यदि यहाँ द्रव्यवेदसे प्रयोजन होता तो अपगत वेदरूप स्थान नही बन सकता था, क्योंकि, द्रव्यवेद चौदहवे गुणस्थानके अन्तत होता है परन्तु अपगत वेद भी होता है इस प्रकार वचन निर्देश नीचे गुणस्थानके अवेद भागसे किया गया है ( . . . १/१.१ / सूत्र १०४ / ३४४)। जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भानवेदसे प्रयोजन है द्रव्यसे नहीं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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ण च
घ. ११/४,२,६,१२/११४/६ देवणेरइयाणं उक्कस्साउअबंधस्स तीहि वेदेहि विरोहो णत्थि चि जाणावणट्ठ इस्थिवेदस्म वा पुरिवेदस्स वा सदस्य वा त्ति भणिद । एत्थ भाववेदस्स गहणमण्णहा दव्त्रित्थवेदेण वि णेरइयाणमुक्कस्साउअस्स बधप्पसंगादो । रोणस तस्स बचो, आ पचमीति सोहा इत्थओ जति छट्टियपुढवि त्ति देण सुत्तेण सह विरोहादो। ण च देवाण उकस्साउब दब्बिरिथ वेदेण सह वज्ड, णियमा णिग्गंथलिगेणे त्ति सुतेण सह विरोहादो । ण च दव्वित्थीण णिग्गथत्तमत्थि । =देवो और नारकियोकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका तीनो वेदोके साथ विरोध नही है, यह जतलानेके लिए 'इत्थि वेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णवस सयवेदस्स वा' ऐसा उपरोक्त सूत्र नं. १२ मे कहा है । यहाँ भाववेदका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि १. द्रव्यवेदका ग्रहण करनेपर द्रव्य स्त्रीवेदके साथ भी नारकियोकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका प्रसंग आता है। परन्तु उसके साथ नारकियोको उत्कृष्ट आयुका बन्ध होता नही है, क्योंकि, पॉचवी विनीत सिंह और बठी पृथिवी तक स्त्रियों जाती है। इस सूत्र के साथ विरोध आता है । ( दे. जन्म / ६ / ४ ) । देवोकी भी उत्कृष्ट आयु द्रव्य स्त्रीवेदके साथ नहीं बँधती, क्योकि, अन्यथा 'अच्युत कल्पसे ऊपर नियमत निर्ग्रन्थ लिगसे ही उत्पन्न होते है इस सूत्र के साथ विरोध आता है । (दे० जन्म /६/३.६ ) और द्रव्य स्त्रियों ( व द्रव्य नपुंसको) के निर्ग्रन्थता सम्भव नही है (दे. वेद/७/४) । दे. मार्गणा - सभी मार्ग माओकी प्ररूपणाओने भाग मार्गणाएँ इस है द्रव्य मार्गणाऍ नहीं ) ।
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