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बृहत्
क्षेत्र समास
वृषभ
गिरि- ति प /४/२६८-२६६ सेसा विपच रुडा णामेण होति म्लेच्छखड ति । उत्तरतियखडेसु मज्झिमवडस्स बहुमज्भे ॥२६५॥ चक्कीण माणमलणो णाणाचकाहरणाम संछण्णो । मूलोवरिममज्भेस् रयणमओ होदि वसहगिरि । २६६ | = ( भरत क्षेत्र के आर्यखण्डको छोड़कर) शेष पाँचो हो खण्ड म्लेच्छखण्ड नामसे प्रसिद्ध है लेतर भारत के लोन खण्डोने से मध्यखण्ड के बहु मध्य भागमे चक्रवर्तियोके मानका मर्दन करनेवाला, नाना चक्रवतियो के नामोसे व्याप्त और मूलमे ऊपर एवं मध्यमे रत्नोंसे निर्मित ऐसा वृषभ गिरि है | २६८ २६६ । (त्रि सा / ७१०) । इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में जानना । दे० लोक / ३/३ | वृषभसेन - म. पु/सर्ग / श्लो पूर्वभव न ७ में पूर्व विदेहमे प्रीतिवर्धन राजाका सेनापति (०/२११) पूर्वभवन मे उत्तरपुरु मनुष्य (८/२१२)। नमेान स्वर्ग प्रभार
नामका देव । ( ८/२१४), पूर्वभव नं ४ मे अकम्पनमेनिक) (८/२१ अम२ ),
पूर्वभव न २ में राजा वज्रसेनका पुत्र 'पीठ' । (११/१३) । पूर्वभव नं १ मे सर्वार्थसिद्धिमे अहमिन्द्र । (११/१६० ) । वर्तमान भव में भदेवका पुत्र भरतका छोटा भाई । ( १६ / २ ) । [ युगपत् सर्व भत्र - ४७ / ३६७-३६६ ] पुरिमताल नगरका राजा था। भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर हुए। ( २४ / १७२ ) । अन्तमें मोक्ष सिधारे (४०/३६६) ।
वेणा - १. भरतक्षेत्रमे आर्यखण्डकी एक नदी (दे० मनुष्य / ४ ) | २ बम्बई प्रान्त में सितारा जिलाकी एक नदी । वर्तमान नाम ', / 19/H L.Jam)
वेणु - विजयार्थको उत्तरका नगर विद्याधर) २. मानुषोसर पर्वतके रमटका रशमी कुमारदेव००/२०१
१.
३. शाल्मली वृक्ष का रक्षक देव । - दे. लोक / ३ / १३ ।
वेणुधारी
मानुषान्तर पर्वत के सर्वरत्न कूटका स्वामी सुपर्णकुमार देव - दे०सोक /५/१०/२० शाक्मली वृक्ष का रक्षक नेब - (दे० लोक ३ / १३ ) ।
वेणुन - "हालार और बरडो प्रान्तके बीचकी पर्वत श्रेणीको 'बरडो' कहते है । इसी श्रेणीके किसी पर्वतका नाम वेणुन है। (नेमि चरित/प्र./ प्रेमी जी ) ।
वेणुपुर दक्षिण कर्नाटक देशका विद्री नामक ग्राम (विशेष
०वी)।
वेणुमतिमानुषोत्तर पर्वत के सर्वरत्नकूट का स्वामी एक भवनवासी कुमार देव दे० लोक/७ 1
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वेणुवती-पूर्वी खण्डकी एक नदी०मनुष्य ४ वेत्ता - जीवको वेत्ता कहनेकी विवक्षा दे० जीव / १/३ । वेत्रवती- १ 'मेघदूत' की अपेक्षा यह मालवादेशकी नदी है। और
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'नेमिचरित' की अपेक्षा द्वारिकाके प्राकारके पास है । गोमती नदीका हो दूसरा नाम 'बैजनी' प्रतीत होता है (मचरित प्र / प्रेमो जो ) । २ वर्तमानको मालवा देशकी बेतवा प. ४६ / पं. पन्नालाल )
नदी ( म. पु. /
वेत्रासन
के समान
आकार
(ज. प / प्र.२५) ।
वेद -- व्यक्तिमे पाये जानेवाले खोत्व, पुरुषत्व व नपुसकत्वके भाव वेद कहलाते है । यह दो प्रकारका है-भाव व द्रव्यवेद । जीवके उपरोक्त भाव तो भाववेद है और शरीरमे स्त्री, गोपा विशेष द्रव्यवेद है । द्रव्यवेद जन्म पर्यन्त नहीं बदलता
पुरुष व नपुंसक के
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पर भाववेद कपाय विशेष हनेिक कारण क्षणमात्र मे बदल सकता है । द्रव्य वेदसे पुरुषको हो मुक्ति सम्भव है पर भाववेदसे तीनको मोक्ष हो सकती है।
१
*
५
२
१ वेद मार्गणामे भानवे रह है। वेद जीवका औदयिक भाव है । वेद कषाय रागरूप है ।
जीवको व्यपदेश ।
*
३
भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान
वेद सामान्यका लक्षण
१ लिग के अर्थ मे ।
२ शास्त्र के अर्थ में । वेद के भेद | स्त्री आदि वेदोके लक्षण | द्रव्य व भाववेदके लक्षण |
साधुके द्रव्यभाव लिंग ।
अपगत वेदका लक्षण |
arh लक्षण सम्बन्धी शकाएँ ।
वेद निर्देश
४
५
- दे० वह यह नाम
- दे० लिंग ।
वेद व मैथुन सज्ञामें अन्तर । अपगत वेद कैसे सम्भव है । तीनो वेदोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है। तीनों वेदोंक बन्ध योग्य परिणाम ।
वेद मार्गणामे कर्मों का बन्य उदय स
- दे० कषाय / ४ । - दे० जीव२/३। - दे० सज्ञा ।
-दे० मोहनीय/३/41
- दे० वह वह नाम । पुरुषादि वेद कमका बन्ध उदय सत्त्र - दे० वह वह नाम ! मार्गणा स्थानों में आपके अनुसार व्यव होनेका
नियम ।
- दे० मार्गणा ।
३ तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय
१
स्त्री पुरुष नपुंसकका प्रयोग
२ तिच व तिर्यचनोका प्रयोग ।
३
४
५
४
१ दोनोंके कारणभूत कर्म भिन्न छ ।
२
३
तिर्यच व योनिमती विचका प्रयोग
मनुष्य मनुष्यणी व योनिमती मनुष्यका प्रयोग ।
उपरोक्त शब्दों सैद्धान्तिक अर्थ
द्रव व भाववेदमें परस्पर सम्बन्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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दोनों कहीं समान होते है और कहीं असमान ।
चारों गतियों की अपेक्षा दोनोंमें समानता और
असमानता ।
भाववेद में परिवर्तन सम्भव है ।
द्रव्यवेद में परिवर्तन सम्भव नही।
साधुके द्रव्य व भावलिंग सम्बन्धी चर्चा व समन्वय ।
-दे० लिग ।
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