Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 588
________________ वृत्तिमत्त्व ५८१ वृषभ २. वृत्ति परिसंख्यान तपका प्रयोजन ज्ञानरूप आलोकसे बढाया हुआ ज्ञानरूपी नेत्र है उनको विद्वानोने वृद्ध कहा है ।४। जो मुनि तप, शास्त्राध्ययन, धैर्य, विवेक (भेदस सि./१/१६/४३८/८ वृत्तिपरिसख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगन्तव्यम् । ज्ञान), यम तथा सयमादिकसे वृद्ध अर्थात बढे हुए है वे ही वृद्ध -वृत्तिपरिएख्यान तप आशाकी निवृत्तिके अर्थ किया जाता है। होते है। केवल अवस्था मात्र अधिक होनेसे या केश सफेद होनेसे हो (रा, वा/8/१६/४/६१८/२५); (चा सा /१३५/२) कोई वृद्ध नही होता ।। जो वृद्ध होकर भी होनाचरणोसे व्याकुल ध १३/५.४,२६/५७/६ एसा केसिं कायया । सगतवोविसेसेण भव्वजण हो भ्रमता फिरे वह तरुण है और सत्सगतिसे रहता है वह तरुण मुखसमेदूण सगरस-रुहिर-माससोसणवारेण इंदियसंजममिच्छतेहि होनेपर भी सत्पुरुषोकी-सी प्रतिष्ठा पाता है ।१०। साहहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहरण चिहि भ आ./वि./११६/२७५/- वाचनामनुयोग वा शिक्षयत' अवमरत्नवा। प्रश्न-यह किसको करना चाहिए। उत्तर-जो अपने तप त्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भि सर्वेरेव । - जो ग्रन्थ विशेषके द्वारा भव्यजनोको शान्त करके अपने रस, रुधिर और मास और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण के शोषण द्वारा इन्द्रिय संयमकी इच्छा करते है, उन साधुओको देता है, वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में होन भी हो तो भी करना चाहिए, अथवा जो भाजन और भोजनादि विषय रागादिको उसके आने पर जो जी उसके पास अध्ययन करते है वे सर्वजन खडे दूर करना चाहते हैं, उन्हे करना चाहिए (चा. सा /१३५४१) हो जाये। भ आ./वि./६/३२/१८ आहारसंज्ञाया जयो वृत्तिपरिसल्यानं । आहार प्र. सा/ता./ /२६३/३५४/१५ यद्यपि चरित्र गुणेनाधिका न भवन्ति संज्ञाका जय करना वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है। तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छतविनयार्थ३. वृत्तिपरिसंख्यान नित्य करने का नियम नहीं मभ्युत्थेया। भ. आ. म./वि./१४७/४६९ अणुपुत्वेणाहारं संवठ्ठतो य सल्लिहइ देह। प्र. सा./ता./4 /२६७/३५८/१७ यदि बहुश्रुताना पार्श्वे ज्ञानादिगुणदिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहण कुणइ ।२४७१ दिवसुगहिगेण वृद्धयर्थ स्वय चारित्रगुणाधिकाऽपि बन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिन्दिनेऽनशनं, दोषो नास्ति । यदि पुन. केवल ख्यातिपूजालाभार्थ' वर्तन्ते तदातिएकस्मिन्दिने वृत्तिपरिसख्यान इति । -क्रमसे आहार कमी करते- प्रसगाहोषो भवति ।-चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन जिसका नियम सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुतकी विनय के अर्थ वह किया है ऐसे तपश्चरणसे अर्थात् एक दिन अनशन, दूसरे दिन वृत्ति- अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक परिसंख्यान इस क्रमसे क्षपक सल्लेखना करता है, अपना देह कृश होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनो के पास करता है। वन्दनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि १. वृत्तिपरिसंख्यान तपके अतिचार केवल ख्याति पूजा व लोभ के अर्थ ऐसा करता है तब अति दोष का प्रसग प्राप्त होता है। भ. आ./वि./४८७/७०७/८ वृत्तिपरिसख्यानस्यातिचारा' | गृहसकमेव प्र सा. मू./२६६ गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो प्रविशामि, एकमेव पाटकं दरिद्रगृहमेक । एवंभूतेन दायकेन दायि त्ति.। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अण तसंसारी। जो श्रमण्य कया वा दत्त गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्प । गृहसप्तकादिकादधिक में अधिक गुण वाले है तथापि होन गुणवालों के प्रति (वन्दनादि) प्रवेश', पाटान्तरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । = "मैं सात क्रियाओं में वर्तते है वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट घरों में ही प्रवेश करूंगा, अथवा एक दरवाजे में प्रवेश करू गा, किवा होते हैं। दरिद्री के घरमे ही आज प्रवेश करूंगा, इस प्रकार के दातासे अथवा इस प्रकारको खीसे यदि दान मिलेगा तो लेगे"-ऐसा सकल्प कर सात घरोसे अधिक घरोमे प्रवेश करना, दूसरोंको मै भोजन कराऊँगा रा. वा./४/४२/४/२५०/१८ अनुवृत्तपूर्वस्वभावस्य भावान्तरेण आधिक्यं इस हेतुसे भिन्न फाटकमे प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसख्यानके अति- वृद्धि। -पूर्व स्वभावको कायम रखते हुए भावान्तररूपसे अधिचार है। कता हो जाना वृद्धि है। २. चय अर्थाद Common difference, वृत्तिमत्त्व--वृत्तिता सम्बन्धसे पदार्थ में अन्वयवाला । जैसे-'भूतले २. अन्य सम्बन्धित विषय घटोऽस्ति' यहाँ विवक्षित भूमिपर घटका बृत्तिमत्त्व है। १. षट् वृद्धियोंके लिए नियत सहनानियाँ । -दे० गणित//३/४ ॥ वृत्तिमान-वृत्तिवाला या वृत्तिसहित । जैसे द्रव्य अपने गुणोंकी २. गुणहानि-वृद्धि। -दे० गणित/II//३ वृत्तिसहित होने के कारण वृत्तिमान है। . वृष-स्व. स्तो./५/१३ वृषो धर्मः । = वृष अर्थात् धर्म । वृत्तिविलास-कन्नड भाषाके 'धर्म परोक्षा' ग्रन्थ के कर्ता एक जैन कवि । समय --बि. श. १२ । (समाधितंत्र/प्र.६/पं जुगल किशोर ) वृषभ-द्र. स./टी १/६/१ वृषभो प्रधान । -१. वृषभ अर्थात् प्रधान । भ आ/पू./१०७०/१०६६ थेरा वा तरुणा बा बूढ़ा सीले हि होति बूढीहि। स्व, स्तो.टी.१/३ वृषो धर्मस्तेन भाति शोभते स वा भाति प्रगटी थेरा वा तरुणा वा तरुणा सीले हि तरुणेहि ।१०७० = मनुष्य वृद्ध हो भवति यस्मादसौ वृषभः। -वृष नाम धर्मका है। उसके द्वारा अथवा तरुण यदि उसके क्षमा आदि शील गुण वृद्धिगत है तो वह शोभाको प्राप्त होता है या प्रगट होता है इसलिए वह वृषभ कहवृद्ध है और यदि ये गुण वृद्धिगत नही है तो वह तरुण है। । केवल लाता है-अर्थात् आदिनाथ भगवान् । वय अधिक होनेसे वृद्ध नहीं होता।) ति. प./४/२१५ सिंगमुहकण्ण जिहालोयणभूआदिएहि गोसरिसो। बसहो ज्ञा /१५/४.५,१० स्वतत्व निकषोभूत विवेकालोकबद्धितम् । येषां त्ति तेण भण्णइ रयणामरजी हिया तत्थ ।२१। -(गंगा नदीका) बोधमय चक्षुस्ते वृद्धा विदुषा मता ४) तप श्रुतधृतिध्यानविवेक- वह कूटमुख सौंग, मुख, कान, जिह्वा, लोचन और भ्रकुटी आदिकयमसयमै । ये वृद्धास्तेऽत्र शस्यन्ते न पुन' पलिताङ्करै ।। हीना- से गौके सदृश है. इसलिए उस रत्नमयी जिहिका (जम्भिका) चरणसंभ्रान्तो वृद्धोऽपि तरुणायते। तरुणोऽपि सतां धत्ते श्रिय को वृषभ कहते है। (ह. पु./१/१४०-१४१), (त्रि. सा./५८३); सरसगवासित. १० = जिनके आत्मतत्त्वरूप कसौटीसे उत्पन्न भेद- (ज प./३/१५१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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