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वृक्ष
प्रकार रत्नमयी उपशाखाओ से मूँगा समान फूलोसे तथा मृदग समान फक्त पृथिवीमय है, चनरपतिरूप नहीं है।
२. चैत्य वृक्ष निर्देश
१. जिन प्रतिमाओ प्राश्रय स्थान होते हैं तिचे
मूस परोकर उदिसामुत्र चेति जिपडिमा पलियकठिया सुरेहि महनिला 135 वृक्ष के मूल चारों दिशाओदिशा पास स्थित और देवामे पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान होती है -३ (दि. प / ३ / १३७), (त्रिसा / २१५ ) |
दि
२/० ममिमहाडहेर जुत्ता एसम्म पतार तार एक-एक के आश्रित आट महाप्रातिहार्यो से सयुक्त चार चार मणिमत्र जिन प्रतिमाएँ होती है ।०७। (त्रि सा / २५४, १००२) (
२.
चैत्य
वृक्ष का स्वरूप व विस्तार
ति, प /३/३१-३६ तब्बाहिरे असोयं मत्तच्यदच पचवणपुण्णा । णियजाणता चेति चेतमा ३१ दोणि समा जोयणाणि पण्णासा । चत्तारो मज्मम्मिय अते कोसदूध१२ उच्विाणि पीडागि। पोटोवर मरम्मा चेति चेतमा ३ पक अवगाहं कासमेकमुद्दि ं । जोयणख दुच्छे हो साहादीहत्तण च चत्तारि |४| विविह्वररयण साहा विचित्तकुसुमो वसोभिदा सव्वे । वरमरगयचरत्ता दिव्वतरू ते विरायति |३५| विविध कुरुचेचझ्या विधिहरू विहिरयणपरिणामा छादित जुत्ता बटालादिरमपिज्जा ३६ ] भवनवासी देवोंके भवनो के बाहर बेडियों है ] वेदियो के बाह्य भाग चैत्यसे सहित और अपने नाना वृझोसे युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चपकत्रन और आम्रवन स्थित है | ३१ चैr स्थलका विस्तार २५० योजन तथा ऊँचाई मध्यमे चार योजन ओर अन्त कोसप्रमाण होती है ३२ पीढोकी भूमिका विस्तार यह योजन और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठीक उपर बहुमध्य भागमे रमणीय चैत्य वृक्ष स्थित ह े है । ३३ । प्रत्येक वृक्षका अवगाढ एक कोस, स्कन्धका उत्सेध एक रोजन और शाखाओकी लम्बाई योजनप्रमाण कहो गया है । ३४ । वे तब दिव्य वृत विविध प्रकार के उत्तम रत्नोकी शाखाआसे युक्त, विचित्र पुष्पोसे अलकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्र से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभाको प्राप्त होते है |३३| विविध प्रकार के अकुरोसे मण्डित. अनेक प्रकारके फलोसे युक्त, नानाप्रकार के रत्नोसे निर्मित छत्रके ऊपर छत्रसे सयुक्त घण्टाजाल रमणीय है |३६|
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यो
ति प /४/८०६-८१३ का भावार्थ २ समवशरणोमें स्थित चैत्यवृक्षो के आश्रित तीन-तीन कोटोसे वेष्टित तीन पीठो के प्पर चार-चार मानस्तम्भ होते है | जो बानियो क्रीडनशालाओ व नृत्यशालाओ व उपमियो शोभित है। २१०-०१२ ( इसका चित्र दे 'समवशरण) की ऊँचाई अपने-अपने रोकी ऊँचाई से १२ गुण है।
चैत्यवृक्ष भूमि
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२. वृक्ष
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प्रमष्ट
२. चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते है
ति १/४/२० आदिक्षिणेण होगा पृढनिम्मा जोलिया होसिमामा देवोके भवनो में स्थित ) ये सब चेत्यक्ष प्रदिअन्त से रहित तथा पृथिवीका परिणामरूप होते हुए नियमसे जीवोकी उत्पत्ति और बिनाशके निमित्त होते हैं। इसी प्रकार पाण्डुस्मनके चैयावय तथा व्यन्तरदेवो भवनमे स्थित जो वैश्य है उनके सम्बन्धमे भी जानना] ( १/२/२००), (ति १/६/२) ( और भी दे ऊपरका शीर्षक }
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निर्दश
४. चैत्यवृक्षोके भेद निर्देश
ति प / ३ / १३६ सस्सत्यसत्तत्रण- सपलजनू य वेतसव डबा । तह पीगुसरिसा पलासरायमा कम । १३६ ।
ति प /६/२८ कमसो असोप्रचपणागदुमत्वूर य गोहे | कटयरुक्खो तुलसी कदम विदओ तिते २८ अशुरकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवोके भवनो क्रमसे - अश्वत्थ ( पीपल ), सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदम्ब तथा प्रियगु, शिरीष, पलाश और राजद्रम ये दश प्रकारके चैत्यवृक्ष होते है | १३६ | किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवोके भवनो मे क्रमसे - अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तम्बूरु, न्यग्रोव ( वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष ये आठ प्रकार के होते है |२८|
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ति प /४/८०५ एक्केकाए उवत्रणखिदिए तरवो यसोयसत्तदला । चपय
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चूदा सुदरभूदा चत्तारि चत्तारि |50| = समवशरणो में ये अशोक, सप्तच्छद, चम्पक व आम्र ऐसे चार प्रकारके होते है । ८०५
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