Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 587
________________ वृक्षमूल वृत्ति परिसंख्यान ५. चैत्यवृक्ष देवोंके चिह्न स्वरूप हैं १२१८। एक-दो आदि फाटको तक प्राप्त हो अथवा विवक्षित फाटक्में प्राप्त ही, अथवा विवक्षित घरके ऑगनमें ग्राप्त ही, अथवा विवक्षित ति.प./४/१३५ ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होति विविहरयणमया। फाटककी भूमि में प्राप्त ही, (घरमें प्रवेश न करके फाटककी भूमि में ही असुरप्पहुदि कुलाणं ते चिण्हाई इमा होति ।१३।। - (भवनवासी यदि प्राप्त होगा तो), अथवा एक या दो बार परोसा ही, अथवा एक देवो के भवनोमें ) ओलगशालाओके आगे विविध प्रकारके रत्नोसे या दो आदि दाताओं द्वारा दिया गया ही, अथवा एक या दो आदि निर्मित चैत्यवृक्ष होते है। वे ये चैत्य वृक्ष असुरादि देवोके कुलोसे ग्रास ही, अथवा पिण्डरूप ही द्रवरूप नहीं, अथवा द्रवरूप ही पिण्डरूप चिह्नरूप होते है। नही, अथवा विवक्षित धान्यादिरूप आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा अन्यथा नहीं ।२१६। कुलत्यादि धान्योंसे मिश्रित ही, अथवा थाली६. अशोकवृक्ष निर्देश के मध्य भात रखकर उसके चारो ओर शाक पुरसा होगा तो, अथवा ति, प./४/६१५-६१६ जेसिं तरूणमूले उप्पण्ण जाण केवल णाणं । उप- मध्यमें अन्न रखकर चारो तरफ व्यंजन रखे होगे तो, अथवा व्यंजनोंसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।६१॥ णग्गोहसत्तपणं के बीचमे पुष्पोके समान अन्न रखा होगा तो, अथवा मोठ आदि साल सरलं पियंगु तं चेव । सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली धान्यसे अमिश्रित तथा चटनी वगैरह व्यजनोसे मिश्रित ही, अथवा पलास तेंदूवं ।।१६। पाडलजबूपिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा लेबड (हाथको चिकना करनेवाला आहार) हो, अथवा अलेवड ही, य। कंकल्लि चंपबउल मेसयसिंग धव साल ।।१७। सोहंति असोयतरू अथवा भातके सिक्थो सहित या रहित ही भोजन मिलेगा तो लूगा पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहि । लंबंतमालदामा घटाजालादिरमणिज्जा अन्यथा नहीं ।२२०॥ सुवर्ण या मिट्टो आदिके पात्रमें पुरसा ही, अथवा 18१८। णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहि सरिसउच्छेहा । उसह- बालिका या तरुणी आदि विवक्षित दातारके हाथसे ही, अथवा जिणप्पहुदीणं असोयरुक्रवा वियर ति।१६-ऋषभ आदि तीर्थकरों भूषण-रहित या ब्राह्मणी आदि विवक्षित स्त्रीके हाथ से ही आहार को जिनवृक्षोके नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है (दे. तीर्थ कर/५) मिलेगा तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नही1 इत्यादि नानाप्रकारके नियम वे ही अशोकवृक्ष है ।११। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरल, प्रियगु, करना वृत्तिपरिसख्यान नामका तप है ।२२१॥ शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा). धूलिपलाश, तेदू, पाटल, जम्बू. मू आ./३५५ गोयरपमाणदायगभायणणाणविधाण ज गण्णं । तह पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, ककेलि ( अशोक ), चम्पक, एसणस्स गहणं विविधस्स वृत्तिपरिसंखा ।३५३१ - गृहोका प्रमाण, बकुल. मेषशृग, धव और शाल ये २४ तीर्थंकरोके २४ अशोकवृक्ष है, भोजनदाताका विशेष, कॉसे आदि पात्रका विशेष, मीठ, सत्तू आदि जो लटकतो हुई मालाओसे युक्त और घण्टासमूहादिकसे रमणीक भोजनका विशेष, इनमें अनेक तरहके विकल्पकर भोजन ग्रहण करना होते हुए पल्लव एवं पुष्पोसे झुकी हुई शाखाओसे शोभायमान होते वृत्तिपरिसख्यान है ।३५३॥ (अन, ध./७/२६/६७५ ) हैं।६१६-६१८। ऋषभादि तीर्थंकरोंके उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारहमे गुणित अपने-अपने जिनको (तीर्थकरकी) ऊँचाईसे युक्त स.सि /8/११/४३८/७ भिक्षार्थिनो मुनेरेकागारादिविषय. सकल्प होते हुए शोभायमान है।६१६ [प्रत्येक तीर्थ करकी ऊँचाई-दे, चिन्ताबरोधो वृत्तिपरिसरव्यानम् । --भिक्षाके इच्छुक मुनिका एक तीर्थकर/५] घर आदि विषयक सकल्प अर्थात् चिन्ताका अवरोध करना वृत्ति परिसख्यान तप है। वृक्षमूल-१. वर्षाकालमे वृक्षके नीचे ध्यान लगाना वृक्षमूल योग रा, बा./8/१६/४/६१८/२४ एकागारसप्तवेश्मरथ्याई प्रामादि विषय, कहलाता है-दे, कायक्लेश। २. वृक्षमूल आदि वनस्पति-दे. संकल्पो वृत्तिपरिसंख्यानम्। -एक अथवा सात घर, एक-दो आदि बनस्पति । वृत्त-Circle-(जं.प./प्र. १०८); (ध.५/प्र.२८) गली, आधे ग्राम आदिके विषयमें संकल्प करना कि एक या दो घरसे ही भोजन लूगा अधिकसे नहीं, सो वृत्तिपरिसंख्यान तप है। (चा. -दे. मणित/II/७ ! सा./१३५४१) वत्तविष्कंभ-Drameter, width of a ring वृत्त विष्कंभ निकालनेकी प्रकृति-दे. मणित/II/७। घ. १३/५,४,२६/५७/४ भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा बुत्ती णाम । तिस्से वुत्तीए परिसंवाणं गहणं वृत्तिपरिसंखाण णाम । एदम्मि वृत्ति-१, न्या, वि./q./२/३०/६२/१४ वृत्तिः वर्तनं समवायो।। बुत्तिपरिसखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो बुत्तिपरिसरखाण णाम -वृत्ति अर्थात वर्तन या समवाय। गुण गुणीकी अभिन्नता। तवो त्ति भणिदं होदि। -भोजन, भाजन, घर बार (मुहल्ला) २ गोचरी आदि पॉच भिक्षा वृत्ति-दे, भिक्षा/१ । और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्तिका परिसख्यान अर्थात ग्रहण करना वृत्तिपरिसख्यान है । इस वृत्तिपरिसख्यानमें प्रतिबद्ध वृत्ति परिसंख्यान जो अवग्रह अर्थाद परिमाण नियन्त्रण होता है वह वृत्तिपरिसख्यान भ. आ./न./२१८-२२१/४३३ गत्तापञ्चागद उज्जु वीहि गोमुत्तियं च पेल- नामका तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। क्यि । सबूकावट्ट'पि य पदंगवीधीय गोपरिया ।२१। पडियणियसण भिक्खा परिमाण दत्तिघासपरिमाण। पिडेहणा य पाणेसणा य त. सा /७/१२ एकवस्तुदशागारपानमुद्गादिगोचरः। संप. क्रियते यत्र जागूय पुग्गलया ।२१६। ससि फलिह परिवरवा पृष्फोवहिद व बृत्तिसख्या हि तत्तप.११२॥ = मैं आज एक वस्तुका ही भोजन सुद्धगोवहिदं ।२२० पत्तस्स टायग्गस्स य अवागहो बहुविहो करूंगा, अथवा दश घरसे अधिक न फिरूंगा, अथवा अमुक पानससत्तीए। इच्चेत्रमादिविधिणा णादबा बुत्तिपरिसंखा ।२२१॥ मात्र ही करूंगा या मूंग ही खाऊँगा इत्यादि अनेक प्रकारके संकल्प -जिस मार्ग से आहारार्थ गमन किया है, उसी मार्ग से लौटते समय, को वृत्तिपरिसंख्या तप कहते है। अथवा सरल रास्तेसे जाते समय, अथवा गोमूत्रवव मोड़ोसहित ___ का अ/मू/४४५ एगादि-गिहपमाण किच्चा संकप्प-कम्पियं विरस । भ्रमण करते हुए; अथवा सन्दूक या पेटीके समान चतुष्कोण रूपसे भोज पसुव्व भुंजदि वित्तिपमाणं तवो तस्स । जो मुनि आहारभ्रमण करते हुए, अथवा शंख के समान आवौंसहित भमण करते के लिए जानेसे पहिले अपने मनमें ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज हुए, अथवा पक्षियोकी पंक्तिकी भॉति भ्रमण करते हुए, अथवा जिस एक घर या दो घर तक जाऊँगा अथवा नीरस आहार मिलेगा तो श्रावकके घरमें आहार ग्रहण करनेका सकल्प किया है उसी में, आहार ग्रहण करूंगा, और वैसा आहार मिलनेपर पशुकी तरह उसे इत्यादि प्रकारसे आहार मिलेगा तो ग्रहण करू गा अन्यथा नही चर लेता है, उस मुनिके वृत्तिपरिस ख्यान तप होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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