Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 582
________________ विहार ७. साधुके विहार योग्य क्षेत्र व मार्ग भआ // १२ / १४१ संजजणस्स य जहिं फामुविहारो य मुलभबुतीय खेतं विहरतो पाहिदि सोलो ११३२ फामुविहारो य प्रातुकं विहरण जीवबाधारहितं गमनं अत्रसहरितमहुलाकमयाच क्षेत्रस्य सुलभत्तीय सुखेनामलेयोन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिम्ले त सेचं क्षेत्रं यमी मुनिको शसुक और सुलभ वृत्ति योग्य क्षेत्रका अलोकन करना योग्य है । जहाँ गमन करनेसे जीवोको बाधा न हो, जो त्रस जीवो व मनस्पतियोंसे रहित हो, जहाँ बहुत पानी व कीचडन हो वह क्षेत्र प्राशुक है। मुनियोंके निहारके योग्य है जिस क्षेत्रने नियोको सुलभता से आहार मिलेगा यह क्षेत्र अपनेको व अन्य मुनियोको सल्लेखनाके योग्य है । मू. आ./३०४-३०६ सयडं जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया । बहुसो जेई सो मग्यो फामुखी हवे ॥२०४॥ हमी अरसों खरीदी बा गोमहिसगलया। महुसो पेण भवति सो मग्गी का हवे । २०५ इच्छी पुसादिति आदावेग थ ज हर सत्यपरिदो चैत्र सो मग्गो फाइओ हवे |३०६ गाडी, हाथीकी अवारी, डोली आदि, रथ इत्यादिक बहुत बार जिस मार्ग से चलते हो वह मार्ग प्रामुक है | २०४४ हाथी, घोडा, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी आदि जो बहुत बार जिस मार्ग से गये हो, वह मार्ग प्रासुक है | ३०५ | स्त्री, पुरुष, जिस मार्ग में तेजीसे गमन करे और जो सूर्य आदिके आता व्याप्त हो तथा हतादिसे जीता गया हो, वह मार्ग प्रामुक है। ऐसे मार्ग से चलना योग्य है । ३०६ । २. अहंत भगवान्की विहार चर्या * भगवान्का विहार इच्छा रहित है - दे० दिव्यध्वनि /१/२ १. भाकाशमें पदविक्षेप द्वारा गमन होता है। स्वस्तो / १०८ । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जात विकोशाम्बुजमृदुहासा | १०८ हे मक्तिनाथ जिन आपके बिहार के समय पृथिवी भी पद-पदपर विकसित कमलोसे मृदु हास्यको लिये हुए रमणीक हुई थी। ह. पु/३, २४ पादपद्म' जिनेन्द्रस्य सप्तपद्मे पदे पदे । भुवेव नभसागच्छदुद्गच्छद्भि प्रपूजितम् | २४| = भगवान् पृथिवीके समान आकाश मार्गसे चल रहे थे, तथा उनके चरण कमल पद-पदपर खिले हुए सात-सात कमलोसे पूजित हो रहे थे ।२४ चैत्यभक्ति १ की टोका) । एकीभावस्तोत्र / ७ पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया तेजिलोकी, हेमाभासो भवति सुरभि श्रीनिवासश्च पद्म 1 " = हे भगवन् आपके पावन्यास से यह त्रिलोकी पृथिवी स्वर्ण सरीखी हो गयी । भक्तामर स्तोत्र / १६ पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्त पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति । ३६ हे जिनेन्द्र आप जहाँ अपने दोनो चरण रखते है वहाँ ही देव जन कमलोकी रचना कर देते है । दे० अर्हत / ६ - ( 'आकाश गमन' यह भगवान्के केवलज्ञानके अतिशयो मे से एक है ) | चेर भक्ति / टोका/१ तेपामा प्रचारी रचना 'पादन्यासे पद्म पुर पृशतरच सत इत्येवंरूप तत्र मम्मी प्रवृता। - | वृत्त 'हेमाम्भोजप्रचारविभता' ऐसा पद है उसका अर्थ करते है।] भगवा चुके दोनों चरणका प्रचार अर्थात् रचना भगवान् Jain Education International ५७५ वीतराग स्तोत्र पादन्यास के समय उनके चरणोके नीचे सात सात कमलोंकी रचना होती है। उससे उनके चरण शोभित होते है । २. आकाश में चरणक्रम रहित गमन होता है। चैत्य भक्ति / टीका / ९ प्रचार प्रशेऽन्यजनासंभवी चरणक्रमसंचाररहिताचारो गमनं तेन विजा 'सौ विलसिती शोभितो - [मूल श्लोकमे 'हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितौ' यह पद दिया है । इसका अर्थ करते है ] प्रचार अर्थात् प्रकृष्ट चार या गमन । अन्य जनोको जो सम्भव नही ऐसा चरणक्रम संचारसे रहित गमन के द्वारा भगवाके दोनो चरण शोभित होते है। ३. कमलासनपर बैठे-बैठे ही विहार होता है। जिन सहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन ) । पृ २०७, १०८, ६०, १६७, १८३ का भावार्थ - [भगवाद सुषभदेवका केवलज्ञान का कुछ कम पूर्वकोटि और भगवान महावीरका २० वर्ष प्रमाण (दे० सीकर)] उपरोक्त प्रभागो मे भगवान्को स्कृत कुछ न पूर्वकोटि और कदन्यत २० वर्षप्रमाण कामक पद्मासन से स्थित रहना बताया है । इस प्रकार अपने सम्पूर्ण केवलज्ञान कालमे एक आसनपर स्थित रहते हुए ही बिहार व उपदेश आदि ' देते हैं । अथवा जिस १००० पॉखुडी वाले स्वर्ण कमलपर ४ अंगुल ऊँचे स्थित है वही कमलासन या पद्मासन है । ऐसे पद्मासन से ही ये उपदेश बिहार बादि करते है। विहारवत् स्वस्थान वीचार-विचार वीचारस्थान दे. स्थिति / १ । वीतभय - म. प्र./५१ / श्लोक - पूर्व घातकी खण्डमें राजा अदासकी पुत्री से उत्पन्न एक बलभद्र था । दीर्घकाल राज्य किया ।२७६-२७६ ॥ अन्तमे दीक्षा ले लान्तव स्वर्ग में उत्पन्न हुआ 1250। यह 'मेरु' नामक घरका पूर्वका दूसरा भव है - दे मेरु । वीतराग- १. लक्षण घ. १/१.१.११ / १०८/१ बीतो नहो रागो येषा ते वीतरागाजिनका राग नष्ट हो गया है उन्हे वीतराग कहते है । प्र. सा / ता. प्र / १४ सकल मोहनीयविपाक विवेकभावनासौष्ठव स्फुटीकृतनिकारात्मस्वरूपाद्विगतराम सकल मोहनीयले विपक मेकी भारतकी उतासे (समस्त मोहनीय कर्मके उदयसे शिनत्वको उत्कृष्ट भावनासे निर्विकार आत्मस्वरूपको प्रगट किया होने से जो वीतराग है. यह भ्रमण खोपयोगी है)। ल सा./जी. प्र. / ३०४/३८४/१७ वीतोऽपगतो राग संक्लेशपरिणामो यस्मादसी वीतराग राग अर्थात सरतेश परिणाम न हो जानेसे वीतराग है । वैराग्य 1 दे. सामायिक / १ / समता ( समता, माध्यस्थ्य, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना मे सम एकार्थवाची है।)( और भी वे मोक्षमार्ग (२/२) ★ वैराग्य व वैरागी वीतराग कथा -- दे. कथा वीतराग चारित्र - दे. चारित्र / १ । वीतराग छद्मस्थ - दे. छद्मस्थ / २ । वीतराग सम्यग्दर्शन-देन 11४॥ वीतराग स्तोत्र श्वेताम्वराचार्य हेमचन्द्रसूरि (ई. १०८०११७३ ) कृत एक सस्कृत छन्दबद्ध स्तोत्र | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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