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बिहार
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१. साधुको विहार चर्या
है वह कॉटे, स्थाणु, क्रोधसे आये हुए कुत्ते बैल आदि, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्ण, इनके द्वारा मरण व दुःख पाता है ।१५२। शिथिलाचारी मुनि ऋद्धि आदि गौरववाला, भोगौकी इच्छावाला, कुटिल स्वभावी, उद्यम रहित, लोभी, पापबुद्धि, होता हुआ मुनिसमूहमे रहते हुए भी दूसरेको नहीं चाहता ।१५३। एकाकी स्वच्छन्द विहारी साधुको आज्ञाकोप, अतिप्रसंग, मिथ्यात्वकी आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादि गुणोका धात, सयमका धात, ये पापस्थान अवश्य होते है ।१५४। ऐसे गुरुकुल में रहना ठीक नही, जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच मुनिराज सघके आधारभूत न हो ।१५३१ जो श्रमण सपको छोडकर सघ रहित अकेला विहार करता है और दिये उपदेशको ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहा जाता है ।१५। जो पहिले शिष्यपना न करके आचार्यपना करनेको वेगवान है वह पूर्वापर विवेकरहित ढोढाचार्य है,
जैसे अकुशरहित मतवाला हाथी।६६०। सू पा./म./ उक्किट्ठसोहचरियं बहुपरियम्भो य गरुय भारो य।
जो विरहि सच्छदं पाव गच्छदि होदि मिच्छत्त ।।। == जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिहवृत्ति रूप प्रवर्तता है, बहुत तपश्चरण आदिसे । संयुक्त है, बडा पदधारो है, परन्तु स्वच्छन्द प्रवर्तता है, वह पाप व मिथ्यात्वको ही प्राप्त होता है ।१॥
स्थितिकरण, रत्नत्रयको भावना व अभ्यास, शास्त्र-कौशल, तथा समाधिमरणके योग्य क्षेत्रकी मार्गणा, इतनी बाते प्राप्त होती है।१४२॥ अनियत बिहारीको तीर्थकरोंके जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदिके स्थानोका दर्शन होनेसे उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है।१४३। अन्य मुनि भी उसके सवेग वैराग्य, शुद्ध लेश्या, तप आदिको देखकर वैसे ही बन जाते है, इसलिए उसे स्थितिकरण होता है ।१४४। [तथा अन्य साधुओके गुणोको देखकर वह स्वय भी अपना स्थितिकरण करता है ।१४६परीषह सहन करनेकी शक्ति प्राप्त करता है ।१४७। देश-देशान्तरोकी भाषाओ आदिका ज्ञान प्राप्त होता है ।१४८१ अनेक आचार्योके उपदेश सुननेके कारण सूचका विशेष अर्थ व अर्थ करनेकी अनेक पद्धतियोका परिज्ञान होता है ।१४६। अनेक मुनियोका सयोग प्राप्त होनेसे साधुके आचार-बिहार आदिकी विशेष जानकारी हो जाती है 1१५०]
५. वीतराग सर्वदा अनियत विहारी है भ आ /मू./१५३/३५० वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। सब्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणि यदविहारो १५३। - वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसघ, श्रावकलोक, इन सबो में जो ममत्व रहित है, वह साधु भी अनियत विहारी है। ऐसा संक्षेपमे जानना चाहिए ।१५३) * चातुर्मासमें व अन्य कालों में विहार करने सम्बन्धी कुछ नियम-दे० विहार/१/२ ॥
* एकाकी स्थानमें रहनेको विधि-दे०पिविक्त शय्यासन ।
त जगहमें रहता धैर्यवान प्रामक
पञ्चराती (४२/९०७
२. एक स्थानमें ठहरने की अवधि मू. आ./७८५ गामेयरादिवासी जयरे पचावासिगो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगतवासी य ।५८५-जो ग्राममें एक रात और नगरमें पाँच दिनतक रहते है वे साधु धेर्यवाह प्रासुक विहारी है, स्त्री आदि रहित एकान्त जगहमें रहते है-दे. वसतिका। बो, पा./टी/४२/१०७/१ वसिते वा ग्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्य, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यं । अथवा, वसतिका या ग्राम नगर आदिमें ठहरना चाहिए। नगरमें पाँच रात ठहरना चाहिए और ग्राममें विशेष नही ठहरना चाहिए। दे. मासैकवासता-(वसंतादि छहो ऋतुओ में से एक एक ऋतुमें एक
मास पर्यंत ही एक स्थानमे मुनि निवास करे, अधिक नही)। दे. पाद्य स्थिति कल्प-[वर्षाकाल में आषाढ शु १० से कार्तिक शु.
पूर्णिमातक एक स्थान में रहते है। प्रयोजनवश अधिक भी रहते है। परिस्थितिवश इस काल मे हानि वृद्धि भी होती है।
३. साधुको अनियत विहारी होना चाहिए भ.आ/वि./उत्थानिका/१४२/३२४/८ योग्यस्य गृहीतमुस्त्युपायलिङ्गस्य श्रतशिक्षापारस्य पञ्चविधविनय वृत्त' स्ववशीकृतमनस अनियतवासो युक्त। जो समाधिमरणके लिए योग्य है, जिसने मुक्तिके उपायभूत लिगको धारण किया है, जो शास्त्राध्ययन करनेमें तत्पर है, पॉच प्रकारका विनय करनेवाले, अपने मनको वश करने वाले. ऐसे मुनियो के लिए ग्राम नगर आदिक अनियत क्षेत्रमे निवास करना है।
४. अनियत विहारका महत्त्व भ. आ/मू /१४२-१५०/३२४-३४४ दसणसोधी ठिदिकरणभावणा,
अदियत्तकुसलत्त । खेपरिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होति ११४२। जम्मण अभिणिवखवण णाणुप्पत्ती य तित्थणिसहीओ। पासंतस्स विजाण सुविसुद्ध द सणं होदि ।१४३। स विग्ग स विग्माण जणयदि सुविहिदो। सुविहिदाण जुत्तो आउत्ताण विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ।१४४। अनियत बिहारी साधु को सम्यग्दर्शनकी शुद्धि,
६. विहार विधि योग्य कृतिकर्म भ. आ./वि./१५०/३४४/६ स्वावासदेशदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जन कार्य, तथा विशतापि। किमर्थ । शीतोष्णजन्तूनामाबाधापरिहारार्थ अथवा श्वेतरक्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या नि क्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जन कटिप्रदेशादध' कार्य । अन्यथा विरुदयोनिसक्रमेण पृथिवीकायिकाना तभूमिभागोत्पन्नाना साना चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसो पदादिषु लग्नयोनिरास । यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत । महतोना नदीना उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दन' यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरण च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यान समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत् । परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहाथ । == स्व आवासदेशसे देशान्तरको जानेका इच्छुक साधु जब शीतल रथानसे उष्ण रथान में अथवा उष्ण स्थानसे शीतल स्थान में, श्वेत भूमिसे रक्त भूमिमे अथवा रक्त-भूमिसे श्वेत भूमिमे प्रवेश करता है तब उसे कोमल पीछीसे अपने शरीरका प्रमार्जन करना चाहिए अन्यथा विरुद्ध योनि संक्रम द्वारा क्षुद्र पृथिवीकायिक व त्रस जीवोको बाधा होगी। जलमे प्रवेश करने के पूर्व साधुको पॉव आदि अवयवोसे सचित्त ब अचित्त धूलिको दूर करना चाहिए और जलसे बाहर आनेपर जबतक पॉव न सूख जाय तबतक जल के समीप हो खड़ा रहे । बडी नदियोंकी उल्लघन करते समय प्रथम तट पर सिद्ध वन्दना कर दूसरे तटकी प्राप्ति होनेतकके लिए शरीर आहार आदिका प्रत्याख्यान करना चाहिए । प्रत्याख्यान करके नौका वगैरहपर आरूढ होवे। और दूसरे तटपर पहुँचकर अति चार दूर करनेके लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए । (भ.आ/वि /६६/२३४/८,१२०६/१२०४/६) । * अवसर पड़नेपर नौकाका ग्रहण-दे० ऊपर वाला शीर्षक।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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