Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 579
________________ विसयोजना ५७२ विस्तारासंख्यात भूत मिथ्यात्वका उदय नही पाया जाता है। अथवा सासा दन गुणस्थानमें जिस प्रकार के तीव्र सक्लेशरूप परिणमा पाये जाते है, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे उस प्रकार के तीन सक्लेशरूप परिणाम नहीं पाये जाते है। ध. १२/४,२.७,१७८/२/8 जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणताणुषधीणं विसजोजणा कीरदे तो सबसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जाद त्ति बुत्ते ण, बिसिठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तविसजोयणभुवगमादोत्ति । - प्रश्न-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोकी विसयोजना की जाती है, तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवोमें उसकी विसयोजनाका प्रसग आता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, बिशिष्ट सम्यक्त्व रूप परिणामोके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोको विसयोजना स्वीकार की गयी है। * पुनः पुनः विसंयोजना करनेकी सीमा पल्य। असं. बार-दे० सयम/२। ५. अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना विधिमें त्रिकरण ध. ६/१,६-८,१४/२८८१६ जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुत्वमेव अण ताणुबधी विस जोएदि । तस्स जाणि करणाणि ताणि परूवेदव्वाणि । त जधाअधापवत्तकरण अपव्धकरण अणियट्टीकरणं च । -- (उपशम चारित्रकी प्राप्ति विधिमें) जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है वह पूर्व मे ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टयका विसयोजन करता है। उसके जो कारण होते है उनका प्ररूपण करते है। वह इस प्रकार हैअध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । - (विशेष दे० उपशम/२/१) (ल सा./५ /११२/१५०), (गो.क./जी.प्र./ ५५०/७४३/१६)। ४. विसंयोजनाका जघन्य उत्कृष्ट काल क. पा. २/२-२२/ २८३-२८४/२४६/२ चउवीस विहत्ती केवचिर कालादो। जहण्णेण अतोमुहुत्त (चूर्ण सूत्र) कुदो । अट्ठावीससतकम्मियस्स सम्माइट्ठस्स अण ताणुव धिचउक्क विसंजोइय चउवीस विहत्तीए आदि कादूण सब्वजहण्ण तोमुहूत्तमच्छिय खविदमिच्छत्तस्स चवीस बिहत्तीए जहण्ण कालुबल भादो । उक्कस्सेण वेछावट्ठि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । (चूर्ण सूत्र ) । कुदो। छब्बीससंतकम्मियस्स लातबकाविट्ठमिच्छाइविदेवस्स चोहससागरोवमाउढिदियस्स तत्ये पढमे सागरे अतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत पडिवज्जिय सव्वलहुएण कालेण अण ताणुन धिचउक्क विसजोइन चउवासविहत्तीए आदि कादूण विदियसागरोवमपढमसमए वेदगसम्मत्त पडिज्जिय तेरससागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालेदूण काल कादूण पुवकोडिवाउमणुस्सेसुववज्जिय पुणो एदेण" (आगे केवल भावार्थ दिया है) -१ (चौबीस प्रकृति स्थानका कितना काल है । जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। (चूर्ण सूत्र )। वह ऐसे कि २८ प्रकृतिक स्थानवाले किसी जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विस योजना करके चौबीस प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ किया। और अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर मि यात्व का क्षय किया। २. चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक १३२ सागर है। (चूर्ण सूत्र) वह ऐसे कि-२६ प्रकृतिक स्थानवाले किसी लातव कापिष्ठ स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देवने अपनी आयुके प्रथम सागरमे अन्तमहतं शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया। तहाँ सर्व लघुकाल द्वारा अनन्तानुबन्धीकी क्सियोजना करके २४ प्रकृतिक स्थानको प्रारम्भ कर लेता है। फिर दूसरे सागरके पहले समय में वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके साधिक १३ सागर काल तक वहाँ सम्यक्त्वका पालन करके और मरकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुध्योमे उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात २२ सागर आयुवाले देव, मनुष्य तथा ३१ सागर आयुवाले देवोमें उत्पन्न होता है। वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्तकर पुन सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। वहाँसे मरकर क्रमसे मनुष्य, २० सागर आयुवाले देव, मनुष्य, २२ सागर आयुवाले देव, मनुष्य, २४ सागर आयुवाले देव तथा मनुष्योमें उत्पन्न होकर अन्तमे मिथ्यात्वका क्षय करता है। (नोट-मनुष्योकी आयु सर्व कोटि पूर्व तथा देवोकी आयु सर्वत्र कोटि पूर्व कम वहबह-वह आयु जाननी चाहिए। इस प्रकार १३+२२+३१+२०+ २२+२४=१३२ सागर प्राप्त होता है। इस कालमे अन्तर्मुहूर्त पहिला तथा अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष अन्तिम भवके जोडनेपर साधिकका प्रमाण आता है, क्योकि अन्तिम मनुष्य भवमे इतना काल बोतनेपर मिथ्यात्वका क्षय करता है। * पुनः सयोजना हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालके बिना मरण नहीं होता-दे० मरण/३/६ । ६. अनन्तानुबन्धी विसंयोजन विधि मो, क जी. प्र./५५०/७४३/१६ अध प्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रागुक्तचतुरावश्यकानि कुर्वन् तच्चरमसमये सर्व बिसयोजितं द्वादशक्षायनवनोकषायरूप नीत । - [ कोई एक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अध'प्रवृत्त करणके योग्य चार आवश्यकोको करके तदनन्तर अपूर्वकरणको प्राप्त होता है। वहाँ भी उसके योग्य चार आवश्यकोको करते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में अथवा सयम या सयमासयमकी उत्पत्तिमें गुणश्रेणी द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणे अनन्तानुबन्धीके द्रव्यका अपक्षण करता है। इससे भी अस ख्यात गुणे द्रव्य अन्य कषायो रूपसे परिणमाता है। अनन्तर समयमे अनिवृत्तिकरण में प्रवेश पाकर स्थिति सत्त्वापसरण द्वारा (दे० अपकर्षण/३) अनन्तानुबन्धीकी स्थितिको घटाता हुआ अन्तमे उच्छिष्टावली मात्र स्थिति शेष रखता है। अभिवृत्तिकरणकालका अन्तिम अवली में उस आवली प्रमाण द्रव्य के निषेकोको एक-एक करके प्रति समय अन्य प्रकृति रूप परिणमा का गलाता है और इस प्रकार उस उच्छिष्टाबलीके अन्तिम समय अनन्तानुबन्धी चतुष्कका पूरा द्रव्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है।] [नोट-त्रिकरणोका स्वरूप दे० 'करण' ] * सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेशना -दे० संक्रमण/४। विसंवाद-दे० बाद । विसदृश-प.ध./पू./३२८ यदि वा तदिह ज्ञान परिणाम परिणमन्न तदिति यत । स्वावसरे यत्सत्त्व तदसत्व परत्र नययोगात् ।३२८। - ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ 'यह पूर्व ज्ञानरूप नहीं है। यह विसदृशका उदाहरण है। क्योकि विवक्षित परिणामका अपने समयमें जो सत्त्व है दूसरे समयमे पर्यायार्थिक नयसे उसका वह सत्त्व नही है। विसदृश प्रत्यभिज्ञान-दे० प्रत्यभिज्ञान । विस्तार-१. जीवकी सकोच विस्तार शक्ति। -दे० जीब/३ । Width or diameter. (ज.प/प्र. १०८)। ३. Details (ध. ५/प्र २८)। विस्तार सम्यक्त्व-दे० सम्यग्दर्शन/I/१। विस्तार सामान्य-दे० क्रम/६/तिर्यक प्रचय । विस्तारासंख्यात-दे० असंख्यात । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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