Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 577
________________ विशुद्धि लब्धि ५७० विषय संरक्षण ध्यान * गणित विषयमें विशेषका लक्षण-Commondifference, चय-दे. गणित/II/५/३ । विशेष गुण-दे गुण/१। विशेष नय-दे, नय/J॥५॥ विशेषावश्यक भाष्य-श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथा मद्ध यह विशालकाय ग्रन्थ क्षमाश्रमण जिनभद्र गणी ने वि. स.६५० (ई. ५६३) में पूरा क्यिा था। (दे परिशिष्ट)। विशोक-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर । विश्लेषण-Analysis (ध./प्र २८) विश्व-एक लौकान्तिक देव-दे, लौकातिक । विश्वनन्दि-मपू/५७/श्लो -राजगृहके राजा विश्वभू तिका पुत्र था ।७२। चचा विशावभूतिके पुत्र विशाखनन्दि द्वारा इसका धन छिन जानेपर उसके साथ युद्ध करके उसे परास्त किया। पीछे दीक्षा धारण कर ली। (७५-७८)। मथुरा नगरीमे एक बछडेने धक्का देकर गिरा दिया, तब वेश्याके यहाँ बैठे हुए विशाखनन्दिने इसकी सी उडायी। निदानपूर्वक मरकर चचाके यहाँ उत्पन्न हुआ। (७९-८२) (म. पु/७४/८६-११८ ) यह बर्द्धमान भगवान्का पूर्वका १५वा भव है। --दे बद्ध मान । ८. मारणान्तिक समुद्धातमें उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव नहीं घ. १२/४,२,१३,७/३७८/३ मारण तियस्स उक्स्स स किलेसाभावेण उक्कस्स ज गाभावेण य उक्कस्सदवसामित्तविरोहादो। =मारणान्तिक समुधातमे जीवके न तो उत्कृष्ट संक्लेश होता है और न उत्कृष्ट योग ही होता है. अतएव बह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी नहीं हो सकता। ९. अपर्याप्त कालमें उत्कृष्ट विशुद्धि सम्मव नहीं ध १२/४,२,७,३८/३०/७ अप्पज्जत्तकाले सन्बुक्कस्सविसोही णत्थि । अपर्याप्तकालमे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती है। १०.जागृत साकारोपयोगीको ही उत्कृष्ट संक्लेश विशुद्धि सम्मव है ध, ११४४,२,६,२०४/३३३/१ दसणोवजोगकाले अइसकिलेस विसोहीणम भावादो। ध १२/४.२,७,३८/३०/८ सागार जागारद्वासु चेव सवुक्कस्सपिसोहीयो सम्वु मस्सस किलेसा च होति त्ति । =दर्शनोपयोगके समय में अतिशय ( सर्वोत्कृष्ट ) संक्लेश और विशुद्धिका अभाव होता है। साकार उपयोग व जागृत समयमें हो सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियाँ व सर्वोत्कृष्ट संक्लेश होते है। विशुद्धि लब्धि-दे. लब्धि/२ । विशेषस, सि /६/८/३२५/६ विशिष्यतेऽर्थोऽन्तिरादिति विशेष । -जिससे एक अर्थ दूसरे अर्थसे विशेषताको प्राप्त हो वह विशेष है। (रा. वा. ६/८/११/५१४/१६ , (रा. वा १/१/१/३/२३ ) न्या वि /मू/१/१२१/४५० समानभाव सामान्य विशेषो अभ्यो व्यपेक्षया ।१२१॥ =समान भावका सामान्य कहते है और उससे अन्य अर्थात् विसमान भावको विशेष कहते है। न्या. विवृ /१/४/१२१/११ व्यावृत्तबुद्धिहेतुत्वाद्विशेष । =व्यावृत्ति अर्थात भेदकी बुद्धि उत्पन्न करनेवाला विशेष है। (स्या. म 141 ६८/२६) द्र.सं टो./२८/०६/३ विशेषा इत्यस्य कोऽर्थ । पर्याय । = विशेषका अर्थ पर्याय है।-दे अपवाद/१/१ । स्या, म/४/१७/१५ स एव च इतरेभ्य सजातोयविजातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मान व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेशमश्नुते। -यही ( घट पदार्थ ) दूसरे सजातीय और विजातीय पदार्थोसे द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे अपनो व्यावृत्ति करता हुआ विशेष कहा जाता है। ध./उ /२ अस्त्यल्पव्यापको यस्तु विशेष सदृशेतर ।। -जो विसहशताका द्योतक तथा अल्प देशव्यापी विशेष होता है। २. विशेषके भेद प मु./४/६-७ बिशेषश्च/६/ पर्यायव्यतिरेकभेदात् ।७ - पर्याय और व्यतिरेकके भेदसे विशेष भी दो प्रकारका है।-(इन दोनोके लक्षण दे, वह वह नाम) ३. ज्ञान विशेषोपयोगी है पं का./त प्र/४० विशेषग्राहिज्ञानम् । == विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है। स्या म /१/१०/२३ प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्य च ज्ञानमिति ।सामान्यको गौण करके विशेषको मुख्यतापूर्वक क्सिी वस्तु के ग्रहणको ज्ञान कहते है। वस्त सामान्य विशेषात्मक है-दे. सामान्य । विश्वभू-म पृ/६७/२१४-४५५ सगर चक्रवर्ती का मन्त्री था। इसने षड्यन्त्र रचकर अपने स्वामीका विवाह सुलसासे करा दिया। मधुपिगलसे नहीं होने दिया। विश्वभूषण-भक्तामर चरितके रचयिता एक दिगम्बर साधु । (ज्ञा /प्र १/प. पन्नालाल बाकलीवाल ) विश्वसेन-भगवान पार्श्वनाथके पिता-तीर्थकर/५ । विश्वास-दे. श्रद्धान । विषग-स्व स्तो/टी/६६/१७२ ममेदं सर्व व्यादिक इति संबन्धो विषडग । -स्त्री आदि सब मेरे है, इस प्रकारका सम्बन्ध विषंग कहलाता है। विष-१. विष वाणिज्य कर्म-दे सावद्या५ । २. निविष ऋद्धि-दे. अद्धि/१ । विषम दृष्टान्त-न्या वि./ /२/१२/२१२/२४ दृष्टान्तो विषमो दाष्टान्ति कसदृशो न भवति । =जो दान्तिक के सदृश न हो उसे विषम दृष्टान्त कहते है। विषमधारा-दे गणित/II/५/२। विषयस. सि /१/२५/१३२/४ विषयो ज्ञेय । = विषय ज्ञेयको कहते है। (रा. वा/१/२५/-1८६/१५ ) गो जी./म् /१७६/८८५ पचरसपचवण्णा दो गधा अट्ठफाससत्तसरा । मणसहिदठावीसा इदियविसया मुणेदव्या ।४७४ - पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध आठ स्पर्श और सात स्वर ऐसे यह २७ भेद तो पाँचो इन्द्रियोके विषयो के है और एक भेद मनका अनेक विकल्परूप विषय है। ऐसे कुल विषय २८ है। विषय व्यवस्था हानि-दे. हानि । विषय संरक्षण ध्यान दे रौद्रध्यान । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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