Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 576
________________ विशुद्धि साता इन दानोके बन्धका सक्लेश और विशुद्धि, इन दोनोको छोड कर अन्य कोई कारण नही है, क्योंकि, बैसा कोई कारण पाया नही जाता है । ३. कषायोकी वृद्धि केवल असाताके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, उसके अर्थात् कषायोकी वृद्धिके काल मे साताका बन्ध भी पाया जाता है। इसी प्रकार कषायोकी हानि केवल सानाके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, वह भी साधारण है. अर्थात कषायोकी हानिके काल में भी असाताका बन्ध पाया जाता है । - " ध. ११/४ २,६,५१/२०८ /६ वड्ढमाणकसाओ सकिलेसो, हायमाणो विसोहि त्ति किरण घेण्पदे । ण, सकिलेस - विसोहि ठाणाण संखाए सामगमप्यगादो दो वकसपरिणामान जहार मेण विसोहि सकिलेस नियमदसणादो। मज्झिमपरिणामाण च स किलेसविसोपित समास किसे विसोहि ठाणाण सखाए समागमत्यि सम्मत्तम्पती मादद्वाणपर्ण काम पुणो सकि लेसविसोहीण परूत्रणं कुणमाणा वक्खाणाइरिया जाणावेति जहा हायमासादयामाणि न विसोहिसविदास भगवे नाम तय तथाभावो दस-चरितमोहनलोवसामणास पुथ्विलसमय उदयमागदो अनुभागदरहिता गुणहोषफयागमुदरण जादकसाय उदयट्ठाणस्स विसोहित्तमुवगमादो। ण च एस नियमो ससारावत्थाए अस्थि, तत्थ छब्बिवढिहाणीहि साउद ठाणा उत्पत्तिसादो। ससारामा हिमगंग अणुभागफद्दयाण उदओ अस्थि त्ति वुत्ते होदु तत्थ वि तधाभाव पहुँच बिसोहिशम्भुपगमादो एव अवगुणहीणयागदर उपसाद बिसोहि तिघे एच एन विविधFarभावाद | कितु सादबधपाओग्गक साउदट्ठाणाणि विसोहो असावधपाओग्यवसायमा सक्तिसो सिमा विसोदिट्ठाणानमुस्सदिए धोमन्तमिरोहादो सिन बडती हुई कषायकी सक्ते और होन होती हुई पायको विशुद्धि क्यो नही स्वीकार करते उत्तर-नही, क्योकि, ४ वैसा स्वीकार करनेपर सक्लेश स्थानी और विशुद्धिस्थानोकी संख्या के समान होनेका प्रसंग आता है। कारण यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोके क्रमश विशुद्धि और समतेशका नियम देखा जाता है. तथा मध्यम परिणामोका सक्लेश अथवा विशुद्धि के पक्षमे अस्तित्व देखा जाता है । परन्तु संक्लेश और विशुद्धिस्थानोमे संख्याको अपेक्षा समानता है नहीं। प्रश्न- सम्यक्त्वोत्पत्तिमे सातावेदनीयके अध्वानकी प्ररूपणा करके पश्चात् सक्लेश व विशुद्धिको प्ररूपणा करते हुए व्यापानाचार्य यह ज्ञापित करते है कि हानिको प्राप्त होनेवाले मायके उदयस्थानोंकी ही विशुद्धि सहा है। उत्तर-मह पर जैसा कथन ठीक है, क्योकि १. दर्शन और चारित्र मोहकी क्षपणा व उपशामना में पूर्व समयमे उदयको प्राप्त हुए अनुभागस्पर्धकोकी अपेक्षा न होननुभागम्पको उदयसे उपन्न हुए कषायोदयस्थानके विशुद्धता स्वीकार किया गया है। परन्तु यह नियम ससारावस्थामे सम्भव नही है, क्योंकि, वहाँ छह प्रकार की वृद्धि हानियोसे कषायोदयस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । प्रश्नावस्था भी अन्तर्मुहूर्त काल अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभाग स्पर्धको का उदय है ही? उत्तर - ६. ससारावस्था मे भी उनका उदय बना रहे.. वहाँ भी उक्त स्वरूपका आश्रय करके विशुद्धता स्वीकार की गयी है परन्तु यहाँ अनन्तगुणे ही स्पर्ध उदयसे उत्पन्न कषायोदयस्थानको विशुद्धि नही ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि, यहाँ इस प्रकारको विवक्षा नहीं है। किन्तु सातावेदनीयके पायोदय स्थानोको विशुद्ध और अावेद नीयके बन्धयोग्य कषायोदयस्थानोको सबलेश ग्रहण करना चाहिए. क्योकि इसके बिना उत्कृष्ट स्थिति विद्युद्भिस्थानोकी स्वोक्ताका विरोध है । भा० ३-७२ ५६९ Jain Education International * दर्शन विशुद्धि दर्शन शुद्धि ५. जीवों में विशुद्धि व संक्लेशकी तरतमताका निर्देश विशुद्धि ष. ख. ११/४, २, ६ / सूत्र १६७ - १७४ / ३१२ तत्थ जे ते सादबधा जीवा ते तिविहा- चउट्ठाणबधा तिट्ठाणबधा विट्ठाणबधा १६७। असादया जीवा तिना विद्वाणमधा विद्याणमथा चाधा ति १६ विद्धासादस्स उद्वानला जीवा तिट्ठाणच जीवा किलिदरा | १७० | बिट्ठाणबंधा जीवा सकिलिट्ठदरा | १७११ सम्बविमुखा असावस्स मिट्ठाणनघा जीवा १७२ तिट्ठाण मा जीवा किलिट्ठदरा | १७३ | चउट्ठाणबघा जीवा सकिलिट्ठदरा | १७४ | == सातबन्धक जीव तीन प्रकार है - चतु स्थान बन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । १६७॥ असातबन्धक जीव तीन प्रकार के है -- द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतु स्थानबन्धक । १६८ । सातावेदनीय चतु स्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध है | १६ | त्रिस्था बन्धक जीव सक्लिष्टतर है | १७०२ द्विस्थानबन्धक जीव संविलष्टतर है | १७१| असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध है । १७२ | नमकीन लिटर है । चतुस्थानक जीव संक्लिष्टतर है | १७४| ६. विशुद्धि व संक्लेशमें हानिवृद्धिका क्रम ध ६/१,६-७-३/१८२/२ विसोहीओ उक्कस्सटिट्ठदिम्हि थोवा होण गणणा वड्ढमाणाओ आगच्छति जाव जहणठिदिति । सकिलेसा पुण दिदिह धोना होदूष उपरि पक्खेउ सरमेण ममाणा गतिजा सिदिदि । तदो सकिहितो विसोहीबी दाओ पाओ तदोदिमेद सादम जोगपरिणामो विसोहि त्ति । विशुद्धियाँ उत्कृष्ट स्थितिमे अन्य होकर गणना की अपेक्षा बढती हुई जघन्य स्थितितक चली आती है । किन्तु सक्लेश जघन्य स्थितिमे अल्प होकर ऊपर प्रक्षेप उत्तर क्रमसे, अर्थात् सदृश प्रचयरूपसे बढते हुए उत्कृष्ट स्थितितक चले जाते है । इसलिए सक्सेशोसे विशुद्धियों पृथग्भूत होती है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। अतएव यह स्थित हुआ कि साताके बन्ध योग्य परिणामका नाम विशुद्धि है । पाणि दिप्पड . १९/४,२६.२१/२२०/९ विसायी वसोव साहित्य गच्छति [] विसोहिडा हितो सक्सेस हा पाणि विसेसाहियाणि ति सिद्ध । अतएव सक्लेशस्थान जघन्य स्थिति से लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिकके क्रमसे तथा विशुद्धिस्थान उत्कृष्ट स्थिति से लेकर विशेष अधिक क्रमसे जाते है। इसलिए विशुद्विस्थानो की अपेक्षा सक्लेशस्थान विशेष अधिक है। ७. द्विचरम समय में ही उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव है १०/४,२,४/१०/१०० दुरिमलिन रिमसमए उकस्सस किलेस गदो |३०| घ. १०/४२.४,३०//क्ति दो समय मोतृा बसमपतु पिरसर सक्लेस किया दो एदे समए मोसू तिरकस्स सकिलेसे महामहाभावाद (१००/२) हेट्ठा सव्वत्य समयविरोहेण उक्क्स्सस क्लेिसो चेन । (१०८/२) १ = द्विचरम व त्रिचरम समय मे उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त हुआ। प्रश्न- उक्त दा समयको छोड़कर बहुत समयतक निरन्तर उत्कृष्ट सक्लेशको क्यो नही प्राप्त कराया गया। उत्तर-नहीं, क्योंकि, इन दो समयोको छोडकर निरन्तर उत्कृष्ट मचलेशके साथ बहुत कालतक रहना सम्भव नही है । चरम समयके पहिले तो सर्वत्र यथा समय उत्कृष्ट सही होता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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