Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 578
________________ विषरथ ५७१ विसंयोजना विषरथ-- कथा कोष/कथा नं./-उज्जैनीके राजाका पुत्र था ।१५। अति भोजन करनेसे विसुचिका रोग हो गया और अन्तमें मर गया।१६॥ विष्कभ-Width-(ज, ५./प्र. १०८ ) | दे गणित/II/७२। विष्कंभ क्रम-दे, क्रम/२। विष्कंभ सूचो-दे, सुची। विष्टा-१. औदारिक शरीरमें विष्ठाका प्रमाण-दे. औदारिक १/७। २. मल मूत्र क्षेपण विधि।-दे समिति/१/प्रतिष्ठापना । विष्णु-ति १/३/११८ तह य तिविठ्ठदुविठ्ठा सयंभु पुरिसुत्तमो पुरिससोहो। पुडरीयदत्तणारायणा य किण्हो हुवंति णव विण्हू १९१८) = त्रिपृष्ठ, दिपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण ये नौ विष्णु (नारायण ) है ।११।-(विशेष दे. शलाका पुरुष/४)। दे०जीव/१/३/५-(प्राप्त हुए शरीरको व्याप्त करनेके कारण जीवको विष्णु कहते है।) द्र. स./टी./१४/४७/३ सकल विमल केवलज्ञानेन येन कारणेन समस्त लोकालोक जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते। - क्योकि पूर्ण निर्मल केवलज्ञान द्वारा लोक-अलोकमें व्याप्त होता है, इस कारण वह परमात्मा विष्णु कहा जाता है। * परम विष्णुके अपर नाम -दे० मोक्षमार्ग/२/५ ॥ विष्णुकुमार-ह. पु/२० श्लो. "महापद्म चक्रवर्तीके पुत्र थे। पिता के साथ दीक्षा ले घोर तप किया ।१४। अकम्पनाचार्यके ७०० मुनियोके संघपर बलि कृत उपसर्गको अपनी विक्रिया द्वारा दूर किया ।२६-६२। अन्तमें तप कर मोक्ष गये ।६३।" विष्णुदत्त-बृ. कथा कोष/कथा ३/पृ. एक दरिद्र अन्धा था ।।। वृक्षसे सर टकराने के कारण ऑखे खुल गयी।। दूसरे अन्धोने भी उसकी नकल की पर सब मर गये ।। विष्णुनाद-श्रुतावतारके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात् पंचम श्रूतकेवली हुए : समय-वी.नि. ६२-७६ (ई. पू. ४६५-४५१) । अपर नाम नन्दि था-दे० इतिहास/४/४। विष्णु यशोधर्म-चतुर्मुख नामक हनवंशी काकी राजा। समय-वी. नि. १०५५-१०७३ (ई ५२८-५४६) । (दे. इति,/३/३)। चतुष्कके स्कन्धोके परप्रकृति रूपसे परिणमा देनेको विसंयोजना कहते है। गो. क /जो प्र/३३६/४८७/१ युगपदेव विसयोज्य द्वादशकषायनोक्षायरूपेण परिणम्य । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी युगपत् विसयोजना करके अर्थात बारह कषायो व नव नोकषायों रूपसे परिणमा कर। २. विसंयोजना, क्षय व उपशममें अन्तर क पा /२/२-२२/१२४६/२१६/७ ण परोदयकम्मबखवणाए वियहिचारो, तेसि परसरूवेण परिणदाण पुणरुप्पत्तीए अभावादो। = वि 'योजनाका इस प्रकार लक्षण करनेपर, जिन कमौकी पर-प्रकृतिरूपसे क्षपणा होतो है, उनके साथ व्यभिचार ( अतिव्याप्ति) आ जायेगी सो भी बात नहीं है, क्योकि अनन्तानुबन्धीको छोडकर पररूपसे परिणत हुए अन्य कर्मोको पुन उत्पत्ति नही पायी जाती है। अतः विसयोजनाका लक्षण अन्य कौकी क्षपणामे घटित न होनेसे अतिव्याप्ति दोष नही आता है।। दे० उपशम/१/६ ( अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृति रूपसे रहना अनन्तानुबन्धीका उपशम है और उदयमें नही आना दर्शनमोहकी तान प्रकृतियोका उपशम है।) ३. विसंयोजनाका स्वामित्व क. पा./२/२-२२/३ २४५/२१८/५ अट्ठावीससंतकम्मिएण अण ताणुबंधी विसजोइदे चउबीस बिहत्तीओ होदि। को विसजोअओ। सम्मादिट्ठी। मिच्छाइट्ठीण विसजोएदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा चउबीस वित्तिओ होदि त्ति एदम्हादो सुत्तादो णव्वदे। अणताणुवधि विसजोइदसम्मादिम्हि मिच्छत्तं पडिवण्णे चउवीस विहत्तो किण्ण होदि । ण, मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए चेव चरित्तमोहकम्मवरख धेसु अण ताणुबधिसरूवेण परिणदेसु अठ्ठावीसपयडिसंतुप्पत्तीदो। .. अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कध चउवासविहत्तीओ। ण, चउबीस सतकम्मियसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तस्थ चउवीसपयडिसतुवल भादो । चारित्तमोहनीय तत्थ अण'ताणुन धिसरूवेण किण्ण परिणमइ । ण, तत्थ तप्परिणमनहेदुमिच्छत्तु दयाभावादो, सासणे इब तिवसं किलेसाभावादो वा। - अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला जीव अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना कर देनेपर चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला होता है। प्रश्न-विसयोजना कौन करता है । उत्तर -सम्यग्दृष्टि जीव विसयोजना करता है। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीव विसयोजना नही करता है, यह कैसे जाना जाता है । उत्तर- 'सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्याष्टि जीव चौबीस प्रकतिक स्थानका स्वामी है' इस सूत्रसे जाना जाता है। प्रश्न- अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाने पर मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिव स्थानका स्वामी क्यो नही होता है। उत्तर-नहीं, क्यों कि, ऐमे जीवके मिथ्यावको प्राप्त होनेके प्रथम समयमे ही चारित्र मोहनोप के कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूपसे परिणत हो जाते है। अत उसके चौबीस प्रकृतियो की सत्ता न रहकर अठाईस प्रकृतियो की ही सत्ता पायी जाती है। प्रश्न-जब कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अनन्ता नुबन्धीकी विसंयोजना नही करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कैसे हो सकता है । उत्तर- नहीं, क्योकि, चौबीस कर्मोकी सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि जीवोके सम्बग्मिथ्यात्व को प्राप्त होनेपर उनके भी चौबीस प्रकृत्तियो की सत्ता बन जाती है। प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमे जीव चारित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धी रूपसे क्यो नहीं परिणमा लेता है। उत्तर-नही क्योकि, वहाँ पर चारित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धोरूपसे परिण मानेका कारण विष्णुवर्धन-कर्णाटक देशके पोप्सल नरेश थे। गंगराज इनके मन्त्री थे, जिसने अपने गुरु शुभचन्द्रकी निषद्यका श. स. १०४५ में बनवायी थी। यह पहले जैन थे जिन्होने श सं.१०३६ (ई. १११७) में वैष्णव धर्म स्वीकार करके हलेवेड अर्थात दोरसमुद्रमे अनेक जिनमन्दिर का ध्वस किया था। उसके उत्तराधिकारी नारसिह और तत्पश्चात् वीर बरलालदेव हुए जिन्होने जैनियोके क्षोभको नीति पूर्व शान्त किया। समय-अनुमानत' श. स १०२५-१०५० (ई. ११०३-११२८), (ध, प्र. ११/H, L. Jain)! विसयाजना-उपशम व क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्ति विधिमें अनन्ता नुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ रूपसे परिणमित हो जाना विसयोजना कहलाता है। १. विसंयोजनाका लक्षण के पा./२/२-२२/६२४६/२१६/६ का विसंयोजना। अण ताणुबंधिचउक्कक्वं वाण परसरूवेण परिणमनं विसयोजना । -अनन्तानुबन्धी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639