Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 573
________________ विविर विवेक हिरवेगवो ससारशरीर-भोग-णिघिण्णो। अश्भ तरतबकुमलो उबसमसीलो महासंतो ।४४८। जो णिव से दि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे । अण्णत्थ वि एयंते नस्स वि एद तब होदि ।४४६। =जो मुनि राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाले आसन शय्या वगैरहवा परित्याग करता है, अपने आत्मस्वरूपमें रमता है, और इन्द्रियोके विषयोंसे विरक्त रहता है, उसके विविक्त शय्यासन नामका पाँचवाँ उत्कृष्ट तप होता है ।४४७। अपनी पूजा महिमाको नही चाहनेवाला, पसार शरीर और भोगोसे उदासीन, प्रायश्चिन आदि अभ्यन्तर तपमें कुशल, शान्त परिणामी, क्षमाशील, महापराक्रमी, जो मुनि श्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन महाभयानक स्थानमें, अथवा किसी अन्य एकान्त स्थानमें निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है। -दे वसतिका /६ । २. विविक्त शय्यासनका प्रयोजन भ. आ/मू./२३२-२३३ कलहो बोलो झझा वामोहोममत्ति च । ज्झाणज्झयण विधादो पत्थि विवित्ताए वसधीए ।२३२। इय सल्लोणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं । पचसमिदो तिगुत्तो आदठ्ठपरायणो होदि ।२३३। कलह, व्यग्र करनेवाले शब्द, सक्लेश, मनकी व्यग्रता असयत जनों की सगति, मेरे तेरेका भाव, ध्यान अध्ययनका विधात ये सब बाते विविक्त वसतिकामें नहीं होती ।२३२। सुख पूर्वक आत्मस्वरूपमें लीन होना, मन वचन कायकी अशुभ प्रवृत्तियोको रोकना, पाँच समिति, तीन गुप्ति. इन सब बातोको प्राप्त करता हुआ एकान्तवासी साधु आत्म प्रयोजनमें तत्पर रहता है ।२३३॥ घ १३/५,४,२६/५८/१० किमहमेसो कोरदे । असभजणदसणेण तस्सहवासेण जणिद-तिकाल विसयरागदोसपरिहरणछ । प्रश्न-यह विविक्त शय्यासन तप किस लिए किया जाता है। उत्तर-असभ्य जनोंके देखनेसे, और उनके सहवाससे उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषोंको दूर करनेके लिए किया जाता है। भ आ /वि /६/३२/१६ चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं । ____-चित्तकी व्यग्रताको दूर करना विविक्त शयनासन है । दे. विविक्त शय्यासन/१-निधि ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदिकी प्रसिद्धिके लिए किया जाता है। * साधु योग्य विविक्त वसतिका का स्वरूप -दे, वसतिका। * विविक्त शब्द का लक्षण-दे. वसतिका । विविर-दे. विवर। विवृत योनि-दे, योनि । विवेकस. सि.//२२/४४०/७ ससक्तानपानोपकरणादिविभजन विवेक' । संसक्त हुए अर्थात् परस्परमें मिले-जुले अन्न पान आदिका अथवा उपकरणादिका विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है । (राबा/8/२२/ ५१६२१/२६ ) (त. सा./७/२५ ) ( अन. ध /७/४६)। ध. १३/५,४.२६/१०/११ गण-गच्छ-दब-खेत्तादोहितो ओसारण विवेगो णाम पायच्छित्त । = गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक नामका प्रायश्चित्त है । भ आ./वि./६/३२/२१ येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभूत्तन्निराक्रिया, ततो परासनं विवेक । भ. आ./वि /१०/४६/११ एवमतिचारनिमित्तद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनाहतिविवेक । -जिस जिस पदार्थ के अबलम्बनसे अशुभ परिणाम होते है, उनको त्यागना अथवा उनसे स्वय दूर होना यह विवेक तप है। अतिचारको कारणीभूत ऐसे द्रव्य क्षेत्र और कालादिकसे मनसे पृथक् रहना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकोका मनसे अनादर करना, यह विवेक है। चा सा /१४२/१ समन्तेषु द्रव्यक्षेत्रानपानोपकरणादिषु दोषान्निवर्तयितुमलभमानस्य तद्रव्यादि विभजन विवेक । अथवा शक्तयनगृहनेन प्रयत्नेन परिहरत कुतश्चित्कारणत् प्रासुक्ग्रहणग्राहणयो प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात्प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जन विवेक । - किसी मुनिका हृदय क्सिी द्रव्य, क्षेत्र, अन्न, पान अथवा उपकरणमें आसक्त हो और किसी दोषको दूर करनेके लिए गुरु उन मुनिको वह पदार्थ प्राप्त न होने दे, उस पदार्थको उन मुनिसे अलग कर ले तो, वह विवेक नामका प्रायश्चित्त कहलाता है । २ अथवा अपनी शक्तिको न छिपाकर प्रयत्नपूर्वक जीवों की बाधा दूर करते हुए भी क्सिी कारणसे अप्रासुक पदार्थको ग्रहण करीले अथवा जिसका त्याग कर चुके है, ऐसे प्रासुक पदार्थों को भी भूलकर ग्रहण कर ले और फिर स्मरण हो आनेपर उन सबका त्याग कर दे तो वह भी विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है । (अन. ध/७/५०) २. विवेकके भेद व लक्षण भ आ /मू /१६८-१६९/३८१ इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स । एस विवेगो भणिदो पंचविधो दबभावगदो।१६८। अह्वा सरीरसेज्जा सथारुवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ।१६६। - इन्द्रियविवेक, कषायविवेक भक्तपान विवेक, उपधिविवेक, देहविवेक ऐसे विवेकके पॉच प्रकार पूर्वागममें कहे गये है ।१६८। अथवा शरीरविवेक, वसतिसंस्तरविवेक, उपकरण विवेक, भक्तपान विवेक और वैयावृत्त्यक्रम विवेक ऐसे पॉच भेद वहे गये है। इन पाँच भेदोमे प्रत्येकके द्रव्य और भाव ऐसे दो दो भेद है ।१६। (सा. घ./८/४४) भ आ./वि. १६८-१६६/३८२/२ रूपादिविषये चक्षुरादीनामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनम् । इदं पश्यामि शृणोमीति वा ।.. इति वचनानुच्चारणं द्रव्यत इन्द्रियविवेक । भावत इन्द्रियविवेको नाम जातेऽपि.. विज्ञानस्य रागकोपाभ्या विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादि विषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । द्रव्यत कषाय विवेको नाम कायेन वाचा चेति द्विविध । भूलतासंकोचन.. इत्यादि कायव्यापारावरणं । हन्मि • इत्यादि वचनाप्रयोगश्च । परपरिभवादिनिमित्तचित्तक्लङ्काभावो भावत क्रोधविवेक । तथा गात्राणां स्तन्धाकरणं मत्त. कोवा श्रुतपारग - इति वचनाप्रयोगश्च मनसाहंकारवर्जनं भावतो मानकषायविवेक' । अन्य ब्रवत इवान्यस्य यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा वाचा मायाविवेक । अन्यत्कुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायतो मायाविवेक । यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं एतस्य कायापारस्याकरणं कायेन लोभविवेक । •एतन्मदीयं वस्तुग्रामादिकं वा वचनानुच्चारण वाचा लोभविवेक । ममेदभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभविवेकः ।१६८। स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्वापरिहरणं कायविवेक शरीरपीडा मा कृया इत्याद्यवचनं । मा पालयेति वा इति वचनं वाचाविवेक । वसतिसस्तरयोविवेको नाम कायेन बसतावनासन प्रागध्युषिताया। सस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासन । बाचा त्यजामि वसतिसंस्तरमिति वचन। कायेनोपकरणानामनादान । परित्यक्तानीमानि ज्ञानोपकरणादीनि इति वचन वाचा उपधिविवेक । भक्तपानाशनं वा कायेन भक्तपान विवेक । एक भूत भक्तंपान वा न गृह्णामि इति बचनं वाचा भक्तान विवेकः । बैयावृत्त्य करा स्व शिष्यादयो ये तेषा कायेन विवेक ते सहासवास । मा कृथा वैयावृत्त्य इति वचनं ।। सर्वत्र शरीरादौ अनुरागस्य ममेद भावस्य वा मनसा अकरणं भावविवेकः ।१६६ = रूपादि विषयोमे नेत्रादिक इन्द्रियोकी आदरसे अथवा कोपमे प्रवृत्ति न होना। अर्थात यह रूप मै देवता हूँ, शब्द मै सुन रहा हूँ ऐसे वचनोका उच्चारण न करना द्रव्यत. इन्द्रिय विवेक है। रूपादिक विषयोका ज्ञान होकर भी र गद्वेषसे भिन्न रहना अर्थात रागद्वेषयुक्त ऐसी रूपादिक विषयोमे मानसिक ज्ञानकी परिणति न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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