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विरताविरत
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विरोध
विरतपरत-स सि 10/२१/३५६/४ एतै ते सपनो गृही विरताविरत इत्युच्यते। - इन (१२) बतोसे जो सम्पन्न है वह
गृही विरताविरत कहा जाता है।-(विशेष दे सयतासयत)बिरात-स शि/७/१/३४२/५ तेभ्यो विरमणं विरति । - उनसे
(हिंसादिकसे ) विरक्ति होना विरति है। (रा बा./७/१/२/
५३३/१३) विरलन-Distribution-, Spreading (ध ५/प्र. २८)
(विशेष दे, गणित/I1/१/8) विरलन देय-Spread and give. (ध,५/प्र. २८)-( विशेष
दे गणित/II/P/E) विरागरा वा/७/१२/४/५३६/१२ रागकारणाभावात विषयेभ्यो विरज्जन विराग । रागके कारणों का अर्थात चारित्रमोहके उदयका अभाव
हो ज नेसे पचेन्द्रियके विषयोसे विरक्त होनेका नाम विराग है। प्र. सा./ता वृ/२३६/प्रक्षेपक गा. १ की टीका/३३२/१२ पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषयागो विषयविराग । पाँचों इन्द्रियोके सुखकी अभिलाषा
का त्याग विषयविराग है। विराग विचय-दे.धर्मध्यान/१। विराट-पां. पु./सर्ग/श्लो-विराट नगरका राजा था। (१७/४१)।
वनवासी पॉवों पाण्डवोंने छद्मवेशमैं सीका आश्रय लिया था। (१७१४२ )। गोकुल हरण करनेको उद्यत कौरवोके साथ युद्ध करता हुआ उनके बन्धनमें पड़ गया। (१८/२३) । तब गुप्तवेशमें अर्जुनने इसे मुक्त कराया । (१८/४०)। प्रसन्न होकर अपनी कन्या उत्तरा
अर्जुनके पुत्र अभिमन्युसे परणा दो। (१८/१६३) । विराधननि. सा /ता, वृ/८४ विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विरावन ।।
जो परिणाम राध { आराधना) रहित है, वह विराधन है। विराधित-प पु./सर्ग/श्लो-चन्दौरका पुत्र था। युद्धमे रामका
सर्वप्रथम सहायक था। (8)। अन्तम दीक्षित हो गया।
(१९६/38)। विरुद्ध धर्मत्वशक्ति-- स. सा /आ./परि./शक्ति नं. २८ तदतद्रूपमयत्वलक्षणा विरुद्धधर्मत्व
शक्तिः । तद्रूपमयता और अतद्रूपममता जिसका लक्षण है ऐसी विरुद्ध धर्मस्व शक्ति है। विरुद्ध राज्यातिक्रमस सि /७/२७/३६७/४ उचितन्यायादन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम। बिरु राज्य विरुद्वराज्य, विरुद्वराज्येऽतिक्रम विरुद्वराज्यातिक्रम । तत्र हल्पमुल्यल यानि महायाणि द्रव्याणीति प्रयत्न ।
- विरुद्ध जो राज्य वह विरुद्धराज्य है। राज्यमें किसी प्रकारका पिराध होने पर मर्यादाका न पालना विरुद्धराज्यातिकम है। यदि वहाँ अल्पमूल्यमे वस्तुएं मिल गयीं तो उन्हें महंगा बेचनेका प्रयत्न करना ( अर्थात् ब्लेकमार्केट करना) विरुद्धराज्यातिकम है। न्याय मार्गको छोडकर अन्य प्रकारसे वस्तु ली गयी है, इसलिए यह अतिक्रम या अतिचार है। (रा वा/७/२७/३/१५४/११) विरुद्ध हेत्वाभासप मु/६/२६ विपरीतनिश्चिताविनाभायो विरु द्रोऽपरिणामी शब्द कृतकत्वात् । मजिस हेतुको व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध साध्यसे विपरीतके साथ निश्चित हो उसे विरुद्धहेत्वाभास कहते है। जैसेशब्द परिणामी नही है. क्योकि, कृतक है । यहॉपर कृतकत्व हेतुकी
व्याप्ति अपरिणामित्व से विपरीत परिणामित्वके साथ है, इसलिए कृतकत्व हेतु विरुद्धहेत्वाभास है । (न्या दी /2/10/८६,६६२/१०१) न्या वि/ /२/१६०/२२६/१ विरुद्धो नाम साध्यास भव एवं भावी।
जो हेतु अपने साध्यके प्रति असम्भव भावी है वह विरुद्ध कहलाता है। न्या दी /३/६२१/७० विरुद्ध प्रत्यक्षादिबाधितम् । प्रत्यक्षादिसे
बाधितको विरुद्ध कहते हैं। न्या सू (म् (२/२/६ सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी बिरुद्ध । -जिस सिद्धान्तको स्वीकार करके प्रवृत्त हो, उसी सिद्धान्तका जो विरोधी (दूषक ) हो वह, विरुद्ध हेत्वाभास है। (श्लो वा ४/भाषा/१/३३/ न्या./२७३/४२६/१६)।
२. भेद व उनके लक्षण न्या. वि./ /२/१९७/२२६/१ स च द्वेधा विपक्षव्यापी तदेक्देशवृत्तिश्चेति । तत्र तथापि निरन्वय विनाशसाधन , सत्त्वकृतक्त्वादि तेन परिणामस्यैव तद्विपक्षस्यैव साधनात, सर्वत्र च परिणामिनि भावात । तदेकदेशवृत्ति प्रयत्नानन्तरीयक्त्वश्रावणत्वादि तस्य तत्साधनस्यापि विद्य दादौ परिणामिन्यप्यभावात् । -विरुद्ध हेत्वाभास दो प्रकारका है-विपक्ष व्यापी और तदेकदेशवृत्ति । निरन्वय विनाशके साधन सत्त्व, कृतकत्व आदि विपक्षव्यापी है। क्योंकि उनसे निरन्वय विनाशके विपक्षी परिणामकी ही सिद्धि होती है, सभी परिणामी वस्तुओं में सत्त्व पाया जाता है। तदेकदेशवृत्ति इस प्रकार है जैसे कि उसी शब्दको नित्य सिद्ध करनेके लिए दिया गया प्रयत्नानन्तरीयकत्व व श्रावणत्व हेतु, क्योकि, विद्य तु आदि अनित्य पदार्थोंमे भी उसका अभाव है। विरुद्धोपलब्धि हेतु-दे० हेतु । विरोध-- रा वा/४/४२/१८/२६१/२० [ अनुपलम्भसाध्यो हि विरोध.-(स.भ. त./८३/२]-इह विरोध करप्यमान विधा व्यवतिष्ठते-बध्यधातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभाव अहिनकुलाग्न्युदका दिविषयः । स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयो सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत् । नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसङ्गात् । तत. सति संयोगे बलीयसोत्तरकाल मितरद बाध्यते । .. सहानवस्थामलक्षणो विरोध' । स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयो' पीततोरपद्यमाना पूर्वकालभाविनी श्यामता निरुणद्धि। प्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धक...विरोध'. । यथा सति फलवृन्तसयोगे प्रतिबन्धके गौरवं पतनकम नारभते प्रतिबन्धात, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते "संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम् [वैशे. सू 1/१/७] इति वचनात् । [ सति मणिरूपप्रतिबन्धके वह्निना दाहो न जायत इति मणिदायो. प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावो युक्त (स भ त /८/E)] । =अनुपलम्भ अर्थात अभावके साध्यको विरोध कहते है। विरोध तीन प्रकारका हैबध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबन्धक भाव । बध्यघातक भाव विरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जलमें होता है। यह दो विद्यमान पदार्थोंमे संयोग होनेपर होता है। सयोगके बाद जो बलवात् होता है वह निर्बलको बाधित करता है। अग्निसे असयुक्त जल अग्निको नही बुझा सकता है। दूसरा सहानवस्थान विरोध एक वस्तुकी क्रमसे होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आमका हरा रूप नष्ट होता है
और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक भाव विरोध ऐसे है जैसे आमका फल जबतक डालमे लगा हुआ है तबतक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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