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विभाव
अभाव होनेपर संसारका प्रभाव और संसार के अभाव में सर्वदा मुक्त होने का प्रसंग प्राप्त होगा। यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है, ऐसा अभिप्राय है । ५. दोनों बातका कारण व प्रयोजन
स. सा/आ./गा. सर्वे तेऽवसानाइयो भाषा जीना इति यद्भगवद्भि सततं तदतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शन व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थेऽपि तीर्थ प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनासस्थानराणां भस्मन इन निःशङ्कमुपमर्दनेन हिसाभावादभवत्येव बन्धस्याभाव तथा मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव ॥४६॥ कारणानु विधायिनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यथा यथा एवेति न्यायेन पुइगल एव न तु जीव । गुणस्थानानां नित्यमचेतनश्व चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरित्तत्वेन विवेचकै स्वयमुपलभ्यमा नरवाच्च प्रसाध्यम् ।६८। स्वलक्षणोपयोगगुणव्याप्यता सर्वद्रव् पोऽधिकवेन प्रतीयमानत्वादगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबन्धाभावान्न निश्चयेन वर्णादिपुद्गल परिणामा सन्ति ॥५ सारावस्थायां कथं चिद्वर्णाद्यात्मकत्वस्याप्तस्य भवतो मोक्षास्थाय सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभावतश्च जीवस्य वर्णादिभि सह तादात्म्यलक्षण संबन्धो न कथचनापि स्यात् । ६१ । १. ये सब अध्यवसान आदि भाव जोब हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय बतार्थ है तथापि व्यवहारनयको भी बताया है, क्योंकि, जैसे म्लेच्छोको म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवोंको परमार्थ का कहनेवाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होनेपर भी धर्म तीर्थको प्रवृत्ति करनेके लिए वह बतलाना न्याय संगत हो है । परन्तु यदि व्यवहार नय न बताया जाय तो परमार्थ से जीवको शरीरसे भिन्न बताया जानेपर भी, जैसे भस्मको मसल देनेसे हिंसाका अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवोको निःशंकतया मसल देनेसे भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा, और इससे मोक्षका ही अभाव होगा | २६| ( दे० नय / V/८/४) । २. कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर जौ पूर्वक होनेवाले जो जौ, वे जी ही होते हैं इसी न्यायसे वे पुढगल ही है, जीब नहीं और गुणस्थानोंका अचेतनत्व सो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्य स्वभावसे व्याप्त जो आमा उससे भिन्नपनेसे वे गुणस्थान भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है, इसलिए उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है । ६० १. स्वलक्षभूत उपयोग गुणके द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने प्रतीत होता है, इसलिए, जैसा अग्निक उष्णताके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है वैसा वर्णादि ( गुणस्थान मार्गणास्थान आदि ) के साथ आरमाका सम्बन्ध नही है, इसलिए निश्चयसे वर्णादिक ( या गुणस्थानादिक) परिणाम आत्मा नहीं है 1101 क्योंकि संसार अवस्थानें विद रूपतासे व्याप्त होता है ( फिर भी ) मोक्ष अवस्थामें जो सर्वथा वर्णादिरूपताकी व्याप्तिसे रहित होता है। इस प्रकार जीवका इनके साथ किसी भी तरह तादाम्यलक्षण सम्बन्ध नही है ।
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६. वस्तुतः रागादि मावकी सत्ता नहीं है
स. सा. आ./१०१/ २१ रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमहानभावात ती वस्तुप्रणिहितदृशा दृश्यमानी न किचित्। सम्यग्दृष्टि क्षपयतु स्रष्टा स्कूटी ज्ञानज्योति सति सहज येनपूर्णा
| २१ | इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है, वस्तुस्थापित दृष्टिसे देखनेपर के रागद्वेष कुछ भी नहीं है । सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्वदृष्टिसे प्रगटतया उनका क्षय करो कि जिससे
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विमलनाथ
पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो । ( दे नय / // २ / ५ ); (दे विभाव / ५ / २ ) ।
नय - दे. नय / IV/
विभावानित्य पर्यायार्थिक विभाषा - ६/११-१.३/२/३ विवहा भाषा विहासा, गवा, विणा वामदि एट्ठो विविध प्रकारके भाषण अर्थात् कथन करनेको विभाषा कहते है । विभाषा, प्ररूपणा, निरूपण और व्याख्यान ये सब एकार्थ वाचक नाम है।
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विभीषण प पु / सर्ग / श्लोक - "रावणका छोटा भाई, व रत्नश्रवाका पुत्र था । ७ / २२५ | अन्तमें दीक्षा धारण कर ली (११६ / ३६ ) । विभुत्व शक्ति स. सा / आ / परि/शक्ति नं ८ सर्वभावव्यापकेकभावरूपा विभुत्वशक्ति सर्व भावोमे व्यापक ऐसी एक भाररूप विभुत्वशक्ति । ( जैसे ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमें व्याप्त होता है)।
विभ्य - कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे, व्युत्सर्ग/ १ । विभ्रम- १. निष्वाधानके अर्थ में
या वि/२/११/२०२/२१ विभ्रमेश्व मिथ्याकारग्रहणशक्तिविशेषैश्च । विभ्रम अर्थात् मिथ्याकाररूपसे ग्रहण करने की शक्तिविशेष । नि. सा./ता / वृ / ५१ विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव । = ( वस्तुस्वरूपका ) अज्ञानपना या अजानपना ही विभ्रम है।
सं/ टी ४२/२००६ अनेकान्तात्मक वस्तुनो निरक्षण के कान्तादिरूपेश ग्रहण विभ्रम । तत्र दृष्टान्त शुक्तिकार्या रजतविज्ञानम् । अनेकान्तात्मक वस्तुको 'यह नित्य ही है, या अनित्य ही है' ऐसे एकान्तरूप जानना सो विभ्रम है। जैसे कि सीपमें चाँदीका और चाँदी में सीपका ज्ञान हो जाना ।
२ स्त्रीके हाव-भावके अर्थ में
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प प्र./टी./१/१२९/१९१/८ पर उद्घृत- हावो मुखविकार स्याद्भावश्चिउपासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयो।-स्त्रीरूपके अवलोकनकी अभिलाषासे उत्पन्न हुआ मुखविकार 'हाव' कहलाता है, चित्तका विकार 'भाव' कहलाता है, मुँहका अथवा दोनों भगोका टेढा करना 'विभ्रम' है और नेत्रोके कटाक्षको 'मिहास' कहते है।
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विभ्रांत - प्रथम नरकडा अश्म पटवे नरक /४/११ विमर्श -. न्याय दर्शन/भा/१/१/४०/३१/१२ किमुत्पत्तिधर्मकोऽनुत्पत्तिधर्मक इति विमर्श । वह उत्पत्ति धर्मवाला है या अनुत्पति धर्मवाला है' ऐसा विचार करना विमर्श है । विमल विजयार्धकोउखर श्रेणीका एक नगर देवर २. एक ग्रह दे ग्रह । ३ उत्तर श्रीरवर समुद्रका रक्षक देव - दे. व्यंतर ४ । ४. सौमनस नामक गजदन्त पर्वतका एक कूट - दे. लोक ५/४१५. रुचक पर्वतका एक कूट - दे. लोक५ / १३१ ६. सौधर्म स्वर्गका पहल दे, स्वर्ग /५/३००, भावी कासीम २२ तीर्थकर - सीर्य / ५८ वर्तमान ११वे तीर्थंकर थे। विमलदास - 'सप्तभगी तरंगिनी' के रचयिता एक दिगम्बर जैन गृहस्थ । निवास स्थान- तंज नगर । गुरुनाम अनन्तदेव स्वामी । समय- प्लवंग संवत्सर । अनुमानत ई श. १५ ( स भं. त / प्र / १ ) । विमलदेव- नय चक्र के रचयिता श्रीदेवसेन (वि. ६६०) के गुरु थे। समय- तदनुसार वि. १६५ (ई. १०६)। विमलनाथ - म पु /५१ / श्लोक नं - पूर्वभव नं २ में पश्चिम घातकी खण्ड पश्चिम मेरु देशके रम्यवती नगरी के
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