Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 568
________________ विभाव ५६१ कर्मोदय मासे बन्द हुआ होता तो संसारियोको सदैव मन्ध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योकि, उनके कर्मका उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोहसे तात्पर्य दर्शनमोहमें सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोहमें क्रोधादिका अन्तिम जघन्य अश है, ऐसा प्रतीत होता है ] स. साता पृ./१३६/२१२/१३ उपमागतेषु व्यत्ययेषु यदि जीव स्वस्वभाव रागादिरूपेण भवत्येन परिणीति तथा बन्यो भरतोति मोदमात्रेण पोरोपसर्गेऽपि पाण्डवादिवद यदि पुरुदयमात्रेण बन्धो भवति तदा सर्वदेव संसार एव । कस्मादिति चेद ससारिणां सर्वदेव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् । = उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में ) यदि जीव स्व स्वभावको छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय ( भावकर्म ) रूपसे परिणमता है तो उसे बन्ध होता है, केवल उदयमात्रसे नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आनेपर भी पाण्डव आदि । ( शेष अर्थ ऊपर के समान ), ( स सा / ता. वृ / १६४ १६५/ २३० /१८ ) । दे कारण/III/ ३ / ५-ज्ञानियोंके लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान दे बध/३/५,६ १ (मोहनीयके जघन्य अनुभागका उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके बन्धका तो कारण है, परन्तु स्वप्रकृति बन्धका कारण नहीं ) । " । ५. विभाबके सहेतुक - अहेतुकपनेका समन्वय १. कर्म जीवका पराभव कैसे कर सकता है रावा/८/४/१४/५६२/० यथा भिन्नातीयेन सीरे तेजोजातीयस्य पोऽनुग्रह तथेामकर्मणोश्चेतनाचेतनख्या अनुयजातीय कर्म आत्मनोऽहमिति सिद्धम् जेसे पृथिवी जातीय बुधसे पृथिवीजातीय तेजोजातीय चक्षुका उपकार होता है, उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्माका अनुग्रह आदि हो सकता है। अत भिन्न जातीय द्रव्योमे परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है । ६/१.१ १.२ // कम पोग्गलेण जीवादी भूदेव जीवसवखणं पाण विणासिज्जदि । ण एस दोसो, जोवादी पृधभूदाणं घड पड-त्थ भधपारादीणं जीवलक्खगणाणविणायामसुरलंभा प्रश्न जो द्रव्य से पृथग्भूत पुद्गलद्रव्यके द्वारा जीवका लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है " उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जीवद्रव्यसे पृथग्भूत घट, पट, स्तम्भ, और अन्धकार आदिक पदार्थ जीवके लक्षण स्वरूप ज्ञानके विनाशक पाये जाते है । २. रागादि भाव संयोगी होनेके कारण किसी एकके नही कहे जा सकते ससा / ता, वृ / १११/१७९ / ९८ यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्न पुत्रो विनाशेन देवदाया' पुत्रोऽयं केचन मदन्ति देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन बदन्ति दोषो नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्ना मिथ्यात्वगादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसमा शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतना पौगलिका' । परमार्थ पुनरेकान्तेन न जोवरूपा न च रूप सुधारि इयो संयोगपरिणामरद । ये केचन वदन्त्येकान्तेन रागादयो जीव सबन्धिन. पुद्गलसबन्धिनो वा तदुभयमपि वचन मिथ्या । * सूक्ष्मशुद्ध निश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणिततिष्ठति कथमुत्तर प्रयच्छाम इति । जिस प्रकार स्त्री व पुरुष दोनोसे उत्पन्न हुआ पुत्र विवक्षा वश देवदत्ता ( माता ) का भी कहा जाता है और देवदत्त (पिता) का भी कहा जाता है। दोनों हो प्रकारसे कहने कोई दोष नहीं है। उसी प्रकार जोव पुद्गलके सयोगसे भा० ३-७१ Jain Education International ५. विभावके सहेतुक अहेतुकापनेका समन्वय उत्पन्न मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध उपादानरूपसे चेतना है, जीवसे सम्बद्ध है, और शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध उपादानरूपसे अचेतन है. पौगलिक है। परमार्थ तो न वे एकान्तसे जीवन है और न पृगरूप जैसे कि चूने व हदीके संयोगले परिणामरूप लाल रंग जो कोई एकान्तसे रागादिकोको जीवसम्बन्धी मुद्गल सम्बन्धी कहते है उन दोनो के हो बचन मिथ्या है सूक्ष्म शुद्ध निश्चयन दो तो उनका अस्तिल ही नहीं है. ऐसा पहले कहा जा चुका है. तुम हमसे उत्तर केसे हो (द्र. स / टी / ४८ / २०६/१ ) 1 1 ३. ज्ञानी व अज्ञानीकी अपेक्षाले दोनों बातें ठीक हैं। स.सा./ता/१८२/४६२/२९ हे भगवत् पूर्वमन्धाधिकारे मणि रामादीनाम ज्ञानी, परजनितरागादय अत्र तु स्वकीयबुद्धिदोषजनिता रागादय परेषा शब्दादिपञ्चेन्द्रियविषयाणा दूषणं नास्तीति पूर्वापरविरोध अरमा बन्धाधिकारव्याख्याने ज्ञांनी मुख्यता ज्ञानी तु रागादिभिनं परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिता । अत्र चाज्ञानिजी स्य मुख्यता स चाज्ञानी जीव रुपकीयवृद्धिदोषेण परद्रव्यनिमितमामात्य रागा दिभि परिणमति, तेन कारणेन परेषा शब्दादिपञ्चेन्द्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणित । प्रश्न- हे भगवन् । पहले बन्धाधिकार में तो कहा था कि ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं है वे परजनित है। परन्तु यहाँ कह रहे हैं कि रागादि अपनी बुद्धिके दोषसे उत्पन्न होते है, इसमें शब्दादि पंचेन्द्रिय विषयोंका दोष नहीं है। इन दोनों बातो में पूर्वापर विरोध होत होता है उत्तराँ बन्धाधिकार के व्याख्यान में तो ज्ञानी जीवकी मुख्यता है । ज्ञानी जीव रागादिरूप परिणमित नहीं होता है इसलिए उन्हें परद्रव्यजनित कहा गया है । यहाँ अज्ञानी जीवको मुख्यता है। अज्ञानी जीव अपनी बुद्धिके दोष से परद्रव्यरूप निमित्तमात्रको आश्रय करके रागादिरूपसे परिणति होता है, इसलिए पर जो शब्दादि पचेन्द्रिय विषय उनका कोई दोष नही है, ऐसा कहा गया है। ४. दोनोंका नयार्थ व महार्थ दे. नयJIV/३/६/९ (मेगनादि नयाँकी अपेक्षा कमाये तु साधन है, क्योंकि, इस नयने कारणकार्यभाव सम्भव है, परन्तु शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे उत्पन्न नहीं होती क्योंकि, इन दृष्टियोंगे कारण के बिना ही कार्यकी उत्पति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्यका अभाव है । ( और भी दे० नय IV/2/9/1) दे० विभाव / ५ / २ ( अशुद्ध निश्चयनयसे ये जीवके है. शुद्ध निश्चय नयसे पुद्गल के हैं और सूक्ष्म शुद्ध निश्चय नयसे इनका अस्तित्व ही नहीं है। ) पं.का.प. २६/९९९/६ पूर्वोक्तप्रकारेणात्मा कर्मणा वर्ता न भयतीति दूषणे दत्ते सति सांख्यमतानुसारिशिष्यो वदति अम्मा मते आत्मन कर्माकर्तृत्वं भूषणमेव न दूषण । अत्र परिहार । यथा शुद्ध निश्चयेन रागाचतुध्वमात्मन तथा शुद्ध निश्चयेनाप्य कर्तृत्वं भवति तदा द्रव्यकर्मबन्धाभावस्तदभावे ससाराभाव', संसाराभावे सर्वदेवमुक्तप्रसङ्ग' स च प्रत्यक्षविरोध इत्यभिप्राय | - पूर्वोक्त प्रकार से 'कर्मोंका कर्ता आत्मा नहीं है' इस प्रकार दूषण देनेपर साख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारे मतमें आत्माको जो बताया गया है, वह भूषण ही है, दूषण नहीं। इसका परिहार करते है - जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनयसे आत्माको रागादिका अकर्तापना है, यदि उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनयसे भी अकर्तापना होवे तो द्रव्यकर्मबन्धका अभाव हो जायेगा। उसका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only E www.jainelibrary.org

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