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विमलपुराण
राजा पद्ममेन थे । २३। पूर्वभव न १ मे | १० | वर्तमान भव में १३वे तीर्थकर हुए ।
सहबार स्वर्ग ने इन्द्र हुए - दे तीर्थकर / ५ ।
विमलपुराण - कृष्णदास (ई० १६१७) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध एक ग्रन्थ है। इस में १० सर्ग है।
विमलप्रभ१ भूतकालीन चौथे तीर्थंकर । - दे तीर्थंकर / ५ । २. दक्षिण क्षीरवर समुद्रका रक्षक व्यन्तर । —दे व्यन्तर / ४ |
विमलवाहन - १ म पु / ११७ - ११६ सप्तम कुलकर थे, जिन्होंने
तबकी जनताको हाथी घोडे आदिकी सवारीका उपदेश दिया। दे शलाका पुरुष २१/४०/- पूर्वविदेकी सुमोमा नगरीके राजा थे । २-४ दीक्षा धारण कर |११| तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया | १२ | समाधिमरणपूर्वक देह स्थान अनुसार विमानमें उत्पन्न हुए | १३ | यह अजितनाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है । – दे अजितनाथ म पु / ४६ / श्लोक पूर्वविदेह में क्षेमपुरी नगर के राजा थे |२| दीक्षा धारणकर |3| तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । सन्यास विधिमे शरीर छोड सुदर्शन नामक नवम ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए | यह सम्भवनाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है । दे.
सम्भवनाथ ।
विमल सूरि- विजय सूरि के शिष्य और आ. राहु के प्रशिष्य यापनीय सघी । प्राकृत काव्य रचना में अग्रगण्य । कृतिये पउमचरियं, हरिवंश चरियं । समय-पउमचरियं का रचनाकाल ग्रन्थ की प्रशस्ति के अनुसार ई श. १ ( ई. ३४), परन्तु जैकोबी के अनुसार ई. श. ४ । (ती / २ / २५७) ।
विमलेश्वर- भूतकालीन १८वें तीर्थकर - दे. तीर्थंकर / ५ ।
विमा - Dimension ( ज. प / द्र १०८ )
विमान
स.सि./४/९६/२४८/३ विशेषेामस्था कतिनो मानयन्तीति विमानानि जो विशेषत अपने में रहनेवाले जीवोको पुण्यात्मा मानते है वे विमान है ( रा. बा./४/१८/१/२२२/२१)।
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४२.६.६४१२६ नलहिरामणिदा पासादा विमाणागि नाम यतभि और कूटसे युक्त प्रसाद विमान कहलाते है।
२. विमान भेद
स. ४/१६/२४८/४ तानि विमानानि विविधानि इन्द्रश्रेणीपुष्पप्रकीर्मभेदेन । इन्दक, श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्ण कके भेद से विमान तीन प्रकारके है ( रा. वा./४/१२/२/२२२/३०) ।
२. स्वाभाविक व वैक्रियिक दोनों प्रकारके होते हैं।
१/९/४४२-२३३ यागविमाणा दुनिहा विचिरिया सहावे ४४२
राजा मानिमामा विवासियो होति अभिमासिणो य णिच्च सहाबजादा परमरमा 1४४3| ये विमान दो प्रकार हैंएक विक्रिया से उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभावसे | ४४२ । विक्रिया से उत्पन्न हुए वे यान विमान विनश्वर और स्वभाव से उत्पन्न हुए वे परम रम्य यान विमान निश्य व अविनश्वर होते है । ४४३ |
* इन्द्रक आदि विमान वह वह नाम
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* देव वाहनों की बनावट - दे. स्वर्ग /३/४
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विमान पंक्तिव्रतस्वर्गो में कुल ६३ पटल है। प्रत्येक पटल में एक-एक इन्द्रक और उसके चारों दिशाओं में अनेक श्रेणीबद्ध विमान है। प्रत्येक विमानमें जिन चैत्यालय हैं। उनके दर्शनको भावनाके लिए यह व्रत किया जाता है । प्रारम्भ में एक सेला करे । फिर पारणा करके ६३ पटलोंमेंसे प्रत्येक के लिए निम्न प्रकार उपवास करे । प्रत्येक इन्द्रक्का एक बेला, चारो दिशाओंके श्रेणीबद्धो के लिए पृथक् पृथक् एक-एक करके चार उपवास करे। बीच में एक-एक पारणा करे । इस प्रकार प्रत्येक पटल के १ वेला, चार उपवास और ५ पारणा होते है । ६३ पटलोंके ६३ बेले, २५२ उपवास और ३१५ पारणा होते है । अन्तमें पुन एक तेला करें। "ओ ही ऊर्ध्वलोकसंधि-असंख्यात जिनचैत्यालयेभ्यो नमः इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे । (ह. पु / ३४/०६-०७ ), ( वसु श्रा / २०६-२८१), (यत विधान संग्रह /
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पृ ११५ ) विमानवासी देव स्वर्ग विमिचिता- विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक
विद्याधर ।
श्रेणाबद्धका
१ उपवास
श्रेणीबद्धका
१ उपवास
विरत
इन्द्रकका
१ बेला श्रेणाद्धका १ उपवास
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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श्रेणीबद्धका
एक उपवास
एक नगर - दे.
विमुख
यावि/१/२०/२१७ / २४ विषयाद विभिन्न मुख रूप यस्य तव ज्ञानं त्रिमुखज्ञानम् । ज्ञेय विषयोंसे विभिन्न रूपवाले ज्ञानको विज्ञान कहते हैं।
विमुखी - विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक
विद्याधर । विमोह
निसा / ता पू./११ विमोह शाक्यादिप्रो वस्तुनि निश्रय शाक्य आदि (बुद्ध आदि ) कथित वस्तुमें निश्चय करना विमोह है। इ. स. टी ४२/१००/८ परस्परसापेक्ष नयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोह. तत्र दृष्टान्त - गच्छत्तणर्प शवद्दिग्मोहरा । -गमन करते हुए मनुष्यको जैसे पैरोंमें तृण (दास) आदिका स्पर्धा होता है और उसको स्पष्ट मालूम नहीं होता कि क्या लगा अथवा जैसे जंगल मे दिशाका भूल जाना होता है, उसी प्रकार परस्पर सापेक्ष इम्पार्थिक पर्यायाधिक नयोके अनुसार जो द्रव्य, गुण और पर्यायो आदिका नही जानना है, उसको त्रिमोह कहते है ।
नगर । - दे.
विरजा - १ अपर विदेहके नलिन क्षेत्रकी प्रधान नगरी - दे. लोक / ५/२०२ नन्दीश्वर द्वीपकी दक्षिण दिशामें स्थित वापीदे, लोक/२/१९| विरत
-स सि /६/४५/४५८/१० स एव पुन. प्रत्याख्यानावरणक्षयोपरामकारणपरिणाम विशुद्धियोगाद विश्राम्यपदेशभाक् सन् । मह ( सम्यग्दृष्टि भावक ) ही प्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम निमित्तक "रिणामोकी विशुद्धिमश निरत संयत ) संज्ञाको प्राप्त होता है। रा. या १/४५/- ) ६३६/- निर्दिष्ट ततो विशुद्धिप्रकर्षात पुनरपि सर्वगृहस्थसगविप्रमुक्तो निर्द्धन्यानुभव मिरत इयभिप्यते । फिर ( वह श्रावक ) विशुद्धि प्रकर्षसे समस्त गृहस्थ सम्बन्धी परिग्रहो से मुक्त हो निर्ग्रन्थताका अनुभव कर महाव्रती बन जाता है । उसीको 'विरत' ऐसा कहा जाता है । ---विशेष दे. सयत ।
विरत - एक ग्रह - दे. ग्रह ।
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