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विभाव
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४. विभावका कथंचित् अहेतुकपना
स्वभावका पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्याये कर्म के काय है। दे० कर्म/२/२ (जीवोके ज्ञानमें वृद्धि हानि कर्मके बिना नही हो
सकती।) दे० मोक्ष/५४ (जीव प्रदेशो का संकोच विस्तार भी कर्म सम्बन्धसे ही
होता है।) दे० कारण/III/५/३ - ( शेर, भेडिया आदिमें शूरता-क्रूरता आदि
कर्मकृत है।) दे० आनुपूर्वी-(विग्रहगतिमें जीवका आकार आनुपूर्वी कर्मके उदयसे
होता है । ) दे० मरण/१/८-(मारणान्तिक समुद्धातमें जीवके प्रदेशोका विस्तार
आयु कर्मका कार्य है।) दे० सुख ( अलौकिक )-(सुख तो जीवका स्वभाव है पर दुख जीवका स्वभाव नहीं है, क्योकि, वह असाता वेदनीय कर्मके उदयसे होता
३. पौद्गलिक विभाव सहेतुक है न. च. वृ/२० पुग्गलदब्वे जो पुण विभाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्रवसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव ।२०= कालसे प्रेरित होकर पुद्गलका जो विभाव होता है उसका हो स्निग्ध व रूक्ष सहित
बन्ध होता है। पं. वि /२३/७ यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् ।
लोकमे जो भी विकार होता है वह दो पदार्थोंके निमित्तसे होता है। दे मोक्ष/६/४ (द्रव्धकर्म भी सहेतुक है, क्योकि, अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता)। ४. विभावका कथंचित् अहेतुकपना
१. जीव रागादिरूपले स्वयं परिणमता है स. सा./मू./१२१-१२५, १३६ ण सय बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि
को हमादी हि । जइ एस तुझ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी ।१२१॥ अपरिणमतम्हि सय जीवे कोहादिएहि भावेहि। ससारस्स अभावो षसज्जदे सबसमओ वा । ।१२२५ पुग्गलकम्म कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्त । तं सयमपरिणमत कह णु परिणामयदि कोहो ।१२३। अह सयमप्या परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीब कोहतमिदि मिच्छा ।१२४। कोहुव जुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहबजुत्तो हवदि लाहो ।१२३॥ तं' खलु जीवणिबद्धधं कम्मइयवग्गणागय जइया। तझ्या दु हो दि हेदू जोबो परिणामभावाणं ।१३६। -साख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति कहते है कि हे भाई । यदि यह जीव कर्ममें स्वयं नही बँधा है और क्रोधादि भावसे स्वय नही परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है ।१२१। और इस प्रकार संसारके अभावका तथा साख्यमतका प्रसग प्राप्त होता है ।१२२। यदि क्रोध नामका पुद्गल कर्म जीवको क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते है, कि स्वयं न परिणमते हुएको वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है । ।१२३। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूपसे परिणमता है, ऐसा माने तो 'क्रोध जीवको क्रोधरूष परिणमन कराता है' यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है ।१२४। इसलिए यह सिद्वान्त है कि, क्रोध, मान, माया व लोभमे उपयुक्त आरमा स्वय क्रोध, मान, माया व लोभ है ।१२५. कार्माण वर्गणागत पुदगलद्रव्य जब वास्तबमे जीवमें बँधता है तत्र जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावोग हेतु होता है ।१३६। स. सा /आ./कलश न करि स्वफलेन यत्किल बलात्कमव तो योजयेद, कुर्वाण फन लिप्सुरेव हि फल प्राप्नोति यत्वमण । ।१५२।
रागद्वेषोत्पादक तत्त्वदृष्टया, नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते विचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति, व्यक्तात्यन्त स्वस्वभावेन यस्मात ।२१।। रागजन्मनि निमित्तता पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय ।२२१४ - कर्म ही उसके कर्ताको अपने फलके साथ बलात नही जोडता। फलकी इच्छावाला ही कर्मको करता हुआ कर्मके फल को पाता है।१५२। तच दृष्टिसे देखा जाय तो, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किचित् मात्र भी दिखाई नही देता, क्यो कि, सर्व द्रव्योकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है ।२१। जो रागकी उत्पत्ति में पर द्रव्यका ही निमित्तत्व मानते है, बे जिनकी बुद्धि शुद्ध. ज्ञानसे रहित अन्ध है, ऐसे मोहनदीको पार नही कर सकते ।२२१॥ स. सा //३७२ न च जीवस्य परद्रव्य रागादीनरंपादयतीति शडक्यं,
अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाइ, सर्व द्रव्याणा स्वभावेन - वोत्पादात् ।३७२। - ऐसी आशका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीवको रागादि उत्पन्न करते है, क्यो कि, अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्यके गुणोको उत्पन्न करनेकी अयोग्यता है, ज्योकि सर्व द्रव्योका स्वभावसे हो उत्पाद होता है । (दे कर्ता/३/६,७)। पु. सि उ..१३ परिणाममानस्य चितश्चिदात्मक रवयमपि स्वकै भव । भवति हि निमित्तमात्र पौलिक कर्म तस्यापि ।१३।-निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामोसे आप ही परिणामते हुए पूर्वोक्त आत्माके भी पुद्गल सम्बन्धी ज्ञानावरणादिक द्रश्य कर्म
कारणमात्र होते है। दे विभाव// (ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयोकी अपेक्षा कणाम आदि
अहेतुक है, क्योकि, इन नयोकी अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है)। दे, विभाव/२/२/३ ( रागादि जीवके अपने अपराध है. तथा क्वचित
जीवके स्वभाव है)। दे, नियति/२/३ ( कालादि लब्धिके मिलनेपर स्वय सम्यग्दर्शन आदि
की प्राप्ति होती है)। २. ज्ञानियों को कर्मों का उदय मी अकिंचित्कर है स. सा/आ /३२ यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भय भावकत्वेन
भवन्तमपि दूरत एवं तदनुवत्तरात्मनो भाव्यस्य व्यात नेन हठान्मोह न्यक्कृत्य आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन ।-मोहकर्म फल देनेकी सामथ्र्यसे प्रगट उदयरूप होकर भावक्पनेसे प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे, इस प्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, अपने खात्माको जो अनुभव करते
है, वे निश्चयसे जितमोह जिन है। प्रसा/ता 1/10/18 अत्राह शिष्य - औदयिका भावा बन्ध
कारण' इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धकारण भवन्ति, पर कितु मोहोदय सहिता । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावन बलेन भावमोहेन न परिणमाते तदा बन्धो न भवति। यदि पुन कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि ससारिणा सर्वदैव कर्मादयस्य विद्यमानत्वात्सर्व देव वन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्राय । - [ पुण्यके फलरूप अहंतको बिहार आदि क्रियाएँ यद्यपि ओदयिकी है परन्तु फिर भी मोहादि भावोसे रहित होनेके कारण उन्हे क्षायिक माना गया है-प्र. सा/मू ४५ प्रश्न-इस प्रकार माननेसे औदयिक भाव बन्धके कारण है' यह आमवचन मिथ्या हो जाता है । उत्तर-इसका परिहार करते है। औदयिक भाव बन्धके कारण होते है किन्तु यदि मोहके उदयसे सात हो तो। द्रव्य मोहके उदय होनेपर भी यदि शुदात्म भावनाके बलसे भानमोहरूपसे नही परिणमता है, तब वन्ध नही होता है । यदि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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