Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 565
________________ विभाव परिणमनशीलता से ही होती है तो उसमें फिर स्वाभाविकी क्रिपासे क्या भेद है। उत्तर- ऐसा नही कहना चाहिए, क्योंकि द्र और अबद्ध ज्ञानमे भेद (स्पष्ट ) है | मोहनीय आवृत ज्ञान बद्ध है। औ उससे रहित अह । ६६। प्रश्न वस्तुतत्व व अशुद्वत्व क्या है । ७११ उत्तर- वैभाविकी शक्ति के उपयोगरूप हो जानेपर जो परrous निमित्तसे जीव व पुइगलके गुणोका सक्रमण हा जाता है वह बन्ध कहलाता है [२] [ परगुणादाररूप पारिणामिकी क्रियाबन्ध है और उस क्रिया होनेपर जो इगल दोनाको अपने गुणों से च्युत हो जाना अशुद्धता है- दे. अशुद्धता । उस बन्धमे केवल वैभाविकी शक्ति कारण नही हे और न केवल उसका उपयोग कारण है, किन्तु उन दोनोका परस्परमे एक दूसरे के आधीन होकर रहना ही प्रयोजक है | ३ | यदि वैभाविकी शक्ति ही बन्धका कारण माना जायेगा, तो जीव की मुक्ति ही अनम्भन हो जायेगी, क्योंकि, वह शक्ति द्रव्योपजीवी है | शक्तिकी अपने विषय में अधिकार रखनेबाली व्यक्तता उपयोग कहलाता है। वह भी अकेला बन्धका कारण नहीं है, क्यं कि, ऐसा माननेपर भी सभी प्रकारका बन्ध उसीमे समा जायेगा । ७५ । अत उसकी हेतुभूत समस्त सामग्री के मिलनेपर अपनेअपने आकारका परद्रव्यके निमित्तसे, जिसके साथ बन्ध होना है उसके गुणाकाररूपसे सक्रमण हो जाता है। इसीसे यह अपराधी हुआ है ३. वह शक्ति निश्य है पर स्वयं स्वभाव या विभाव रूप परिणत हो जाती है प.प. ५५८ पर भाविक शक्तिययोग योगाद्विना कि न स्याद्वास्ति तथान्यथा । सत्य नित्या तथा शक्ति शक्तिस्वात्त नाश शक्तोमा नागत क्रमात् ॥ ०॥ क्तुि तस्यास्तथाभाव शुद्धादन्योन्यहेतुव' । तन्निमित्ताविना शुद्ध भाव स्यानिलस्थत १८१| अस्ति वैभाविकी शक्ति स्वतस्तेषु गुणेषु च । जन्तो सरस्थाया बेकृतास्ति स्वहेत्त | प्रश्न - पदि वैभव शक्ति जीव पुद्गलके परस्पर से बन्ध करानेने समर्थ होती है तो क्या पर योगके वह बन्ध कराने में समर्थ नहीं है। अर्थात कर्मोका सम्बन्ध एट जानेपर उसमें बन्द कराने साम रहती है या नहीं। उत्तर- तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु शक्ति होनेके कारण अन्य स्वामी शक्तिकी भाँति पर भी नित्य रहती है, अन्यथा तो क्रमसे एक-एक शक्तिका नाश होते-होते द्रव्यका ही नाश हो जायेगा ७६८०१ किन्तु उस शक्तिका अशुद्ध परिणमन अवश्य पर निमित्तसे होता है। निमित्तके हट जानेपर स्वयं उसका केवल शुद्ध ही परिणमन होता है १८११ निद्व जीनो के गुणो में भी स्वत सिद्ध वैभाविकी शक्ति होती है जा जीवको समार अवस्थामे वय अनादिकालसे विकृत हा रही है ४. स्वाभाविक व वैमाविक दो शक्तियों मानना योग्य नही पध / उ / श्लो. ननु वा शक्तिता भवेत् । एक स्वाभाविको भावो भावो वैभाविक पर ॥८२॥ चेनश्व हि देशक सत स्तन क्षति सताम्वाभाविको स्वभावे स्त्रे स्वैर्विभावेविभावजा ८४ ने पति परितालि कथ वैभवी स्वाईपरिणामको परिणाम मिश काचिच्छक्तिश्चापरिणामिकी | वाहक मागाभावात्सदृष्ट्य भावत भाविक शक्ति स्वयं स्वाभाविको भवेत् । परिकामात्मिकाभावेरभावे कर्मणाम् 1501 रन इससे समा सिद्ध होता है कि शक्ति तो एक है, पर उसका हो परिणमन दो Jain Education International २. रागादिकमं कथंचित् स्वभाव-विभावना प्रकारका होता है - एक स्वाभाविक और दूसरा वैभाविक ८३ | तो फिर द्रव्योमें स्वाभाविकी और वैभाविकी ऐसी दो स्वतन्त्र शक्तियों मान लेने में क्या क्षति है, क्योंकि, द्रव्यके स्वभावोंमें स्वाभाविकी शक्ति और उसके विभावोमें वैभाविकी शक्ति यथा अवसर काम करती रहेगी |४| उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि सत्को सब शक्तियाँ जब परिणमन स्वभावी है, तो फिर यह वैभाविकी शक्ति भी नित्य पारिणामिकी क्यो न होगी । ८८| कोई शक्ति तो परिणामों हो और कोई अपरिणामी, इस प्रकार के उदाहरणका तथा उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। इसलिए ऐसा ही मानना योग्य है कि वैभाविको शक्ति सम्पूर्ण कर्मोंका अभाव होनेपर अपने भावोसे ही स्वयं स्वाभा विक परिणमनशील हो जाती है | ह ५. स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय पं. ध. /उ. / ११-६३ तत सिद्ध सतोऽवश्यं न्यायात् शक्तिद्वयं यत । सस्थान गयो ११ महात् दशेपट यस्यनयादपि कार्यकारणयन नाशस्यान्मोक्षयो |२| द्विधाभावो यौगपद्यानुपगत सति तत्र विभावस्य निर स्वादमाधि इसलिए यह सिद्ध होता है यानुसार पदार्थ में दो शक्तियाँ तो अवश्य है, परन्तु उन दोनो शक्तियों में सकी अवस्था भेदसे ही भेद है । द्रव्यमें युगपत् दोनो शक्तियोंका द्वैत नहीं है । ६१| क्योंकि दानोका युगपत् सद्भाव माननेसे महान् दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि, इस प्रकार कार्यकारण भावके नाशका तथा बन्ध व मोक्षके नाशका प्रसंग प्राप्त होता है | १२ | न ही एक शक्तिके युगपत् दो परिणाम माने जा सकते है, क्योंकि इस प्रकार मानने से स्वभाव व विभाव की युगपतता तथा विभाव परिणामकी नित्यता प्राप्त होती है । ६३ । 2 २. रागादिकमें कथंचित् स्वभाव-विभावपना १. कपाय चारित्रगुणकी विभाव पर्याय है ११००४, १० पार चत्वारोऽप्योदयक स्मृता । पारिवस्य गुणस्यास्य पर्याया कतारमन १००४ स चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयात्रम् । चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी | १०७८। ये चारों ही कपाये औदमिक भारमे आती है. क्योकि ये आत्माके चारित्र गुणकी विकृत पर्याय है | १०७१२ सामान्यरूपसे उक्त तीनो वेद ( स्त्री पुरुष नपत्र वेद ) चारित्र माह के उदयसे होते है इसलिए ये तोनो ही भागि निश्चय पारिश्र गुणके ही वैभाविक भाव है। २. रागादि जीवके अपने अपराध हैं। सासा / / १०२ ३०१ जंभ करेदि आदा स तरस खलु कत्ता । त तस्स होदि सम्म रु तरस दु वेदगो अप्पा ॥१०२॥ रागो दोसो मोहा जीनस्व य अणण्णपरिणामा । एरण कारण उ महादिमु णत्थि रागादि ॥७ = आत्मा जिग शुभ या अशुभ भावको करता है, उस भावका वह वास्तव में यर्ता होता है. यह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है । १०२ । ( ससा / / १० ) | राग द्वेष और मोह जीवके हो अनन्य परिणाम है. इस कारण रागादिक ( इन्द्रियो के ) शब्दादिक विषय में नहीं है1१०१1 स. मा ६० बनादिस्वरुप वर्तमान EEP अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध कर्मम द्वारा लिप्त होनेसे ( म सा / आ / ४१२ ) । . ससा / / क.नं भुङ्क्षे हन्त न जातु मे यदि पर दुर्भुत एवासि भो । बन्च स्यादुपभोगतो यदि न तरिक कामचारोऽस्ति ते ॥ १४१ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639