Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 563
________________ विपर्यास विभक्ति था । वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उसका ( राजा वसु नामका एक ) दुष्ट शिष्प था और पर्वत नामका वक्र पुत्र था ।१६। उन्होने विपरीत मत बनाकर ससारसे सच्चे सयमको नष्ट कर दिया और इसके फलसे वे घोर सप्तम नरकमें जा पडे। विपाक कहते है। कर्मो के उदय और उदीरणाके अभावको अविपाक कहते है। कर्मो के उपशम और क्षयको अविपाक कहते है, यह उक्त क्थनका तात्पर्य है। विपाक अविपाक निर्जरा-दे० निर्जरा । विपाक प्रत्ययिक बंध-दे बन्ध/१। विपाक विचय-दे धर्मध्यान/१। विपाकसूत्र-द्वादशाग श्रुतका ११ वा अग -दे०श्रुतज्ञान/III । १. विपर्यय मिथ्यात्रके भेद व उनके लक्षण स सि /१/३२/१३६/२ कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यबस्थितो रूपाद्य पलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यास भेदाभेदविपर्यास स्वरूपविपर्यास च जनयति । कारणविपर्यासस्तावत्-रूपादीनामेकं कारणममूर्त नित्यमिति केचित्कल्पयन्ति । अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्ना' परमाणवश्चतुस्विद्वये कगुणास्तुल्यजातीयाना कार्याणामारम्भका इति । अन्ये वर्ण यन्ति-पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शा, एतेषा समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि। इतरे वर्णयन्ति-पृथिव्यप्तेजोवायब' काठिन्यादिद्रवत्वाद्य ष्णत्वादीरणस्वादिगुणा जातिभिन्ना' परमाणव' कार्यस्यारम्भका । भेदाभेदविपर्यास' कारणात्कार्यमर्थान्तरभूतमेवेति अनर्थान्तरभूतमेवेति च परिकल्पना। स्वरूप विपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पाः सन्ति न सन्त्येव वा । तदाकारपरिणत विज्ञानमेव । न च तदालम्बनं वस्तु बाह्य मिति = आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यासको उत्पन्न करता रहता है। कारण विपर्यास यथा-कोई (सांख्य ) मानते है कि रूपादिका एक कारण ( प्रकृति ) है, जो अमूर्त और नित्य है । कोई (बैशेषिक ) मानते है कि पृथिबी आदिके परमाणु भिन्न-भिन्न जातिके है। तिनमें पृथिवीपरमाणु चार गुणवाले, जलपरमाणु तीन गुणवाले, अग्निपरमाणु दो गुणवाला, और वायुपरमाणु केवल एक स्पर्श गुणवाला होता है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्यको हो उत्पन्न करते है। कोई (बौद्ध ) कहते है कि पृथिवी आदि चार भूत है और इन भूतोके वर्ण गन्ध रस और स्पर्श ये भौनिक धर्म है। इन सबके समुदायको एक रूप परमाणु या अष्टक कहते है। कोई कहते है कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रमसे काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुणवाले अलग-अलग जातिके परमाणु होकर कार्यको उत्पन्न करते है। भेदाभेद विपर्यास यथा-कारणके कार्यको सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना । स्वरूपविपर्यास यथारूपादिक निर्विकल्प है, या रूपादिक है ही नही, या रूपादिकके आकाररूपसे परिणत हुआ विज्ञान ही है, उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है ( बौद्ध)।(गो. जी जी.प्र./१८/४३/२)। विपर्यास-दे विपर्यय । विपल-कालका एक प्रमाण-दे. गणित/I/१/४। विपाकस मि /-/२१/३६८/३ विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाक । पूर्वोक्तकषायतीवमन्दादिभावासव विशेषाद्विशिष्ट पाको विपार । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावल यणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविध पाको विपाक । असावनुभव इत्याख्यायते । विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायोंके तीच मन्द आदि रूप भावासबके भेदसे विशिष्ट पाक का होना विपाक है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावलक्षण निमित्त-भेदसे उत्पन्न हुआ वैश्वरूप नाना प्रकारका पाक विपाक है । इसीको अनुभव कहते है। (रा या/८/२१/१/५८३/१३)। ध. १४/५,६,१४/१०/२ कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम, कम्माणमुदय-उदोरणाणमभावो अविवागो णाम । दम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिद होदि । = कर्मो के उदय व उदीरणाको विपुल-१. भाविकालीन १५वे तीर्थकर । अपर नाम बहुलप्रभ । - दे. तीर्थ कर/५ । २. एक ग्रह -दे ग्रह । विपुलमति-दे, मन पर्यय। विप्रतिपत्ति-न्या. सू /भा /२/१/७/५८/२० न वृत्ति समानेऽधिकरणे व्याहतार्थों प्रबादौ विप्रतिपत्तिशब्दस्यार्थ । एक बस्तुमें परस्पर विरोधी दो वादोका नाम 'विप्रतिपत्ति' है। [अथवा विपरीत निश्चयका नाम विप्रतिपत्ति है ] । विधानस मरण-दे मरण/१ । विप्लुत-न्या वि./वृ./१/४६/३११/२१ विविध प्लुत प्लवन तरङ्गादिषु यस्य स विप्लुतो जलचन्द्रादि । = विविध प्रकारसे प्लुत सो विप्लुत अर्थात जिसका तर गादिमें अनेक प्रकारसे डूबना या तैरना हो रहा है, ऐसे जल में पडे हुए चन्द्र प्रतिबिम्ब आदि विप्लुत है। विभंगज्ञान-१ मिथ्या अवधिज्ञान । दे.अवधिज्ञान/१। २.विभग ज्ञानमें दर्शनका कथ चित् सद्भाव व अभाव -दे. दर्शन/६ । विभंगा-पूर्व व अपर विदेहो में स्थित १२ नदियाँ। पूर्व मे ग्राहवती, द्रवती, पंकावती, तप्तजला, मत्तजला और उन्मत्तजला ये ६ है और पश्चिममें -क्षीरोदा, सीतोदा, औषधवाहिनी, गम्भीरमालिनी. फेनमालिनी और ऊर्मिमालिनी ये छ है । दे. लोक/३/१४ । विभक्तिक.पा २/२-२२/S८/६/८ विभजनं विभक्ति न विभक्तिरविभक्ति । ___-विभाग करनेको विभक्ति कहते है और विभक्तिके अभावको अविभक्ति कहते है। क पा. ३/३-२२/४/ पृष्ठ । पक्ति-विहत्ती भेदो पुधभावोत्ति एयट्ठो (३४)। एकिस्से वि ट्ठिीए पदेसभेदेण पयडिभेदेण च णाणत्तुवलंभादो। (५/८)। मूलपयडिट ठिदीए सेसणाणावरणादिमूलपयडि. दिदी हितो भेदोववत्तीदो। (६/२) । क पा/३/३-२२/8/ पृष्ठ/पंक्ति-अधवा ण एस्थ मूल पयडिठ्ठिदीए एयत्तम स्थि, जहण्ण ठिदिप्पहुडिजाव उक्कस्सठिदि त्ति मब्बासि ठ्ठिदीण मूलपयडिठिदि त्ति गहणादो। (६/२)। तेण पयडिसरूवेण एगा ठिदी एगट ठिदीभेद पडच्चछिदिविहत्ती होदि त्ति सिद्धं । =विभक्ति, भेद, और पृथग्भाव ये तीनो एकार्थवाची शब्द है। एक स्थितिमें भी प्रदेशभेदकी अपेक्षा नानात्व पाया जाता है । अथवा विवक्षित मोहनीयको मूलप्रकृति स्थितिका शेष ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतिस्थितियोसे भेद पाया जाता है। अथवा प्रकृतमे मूल प्रकृतिस्थितिका एक्त्व नहीं लिया है, क्योकि जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोका 'मूल प्रकृतिस्थिति' पदके द्वारा ग्रहण किया है। इसलिए प्रकृतिरूपसे एक स्थिति अपने स्थितिभेदोकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति होती है, यह सिद्ध होता है। क.पा ३/३-२२/११/३ उक्कस्स वित्तीए उक्कल्स अद्धाछेदस्स च को भेदो। बुच्चदे-चरिमणिसेयस्स कालो उक्कस्स अद्भाछेदो णाम । उक्कस्सटिठदिविहत्ती पुण सव्वणिसेयाण सव्वणिसेयपदेसाण वा कालो। • एव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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