Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 562
________________ विनयचारा विपर्यय विनयचारी-विजयाकी दक्षिण गोका एक नगर। -दे० विद्याधर। विनयदत्त-मुलसघ की पट्टावली के अनुसार आप लाहाचार्य के पश्चात् एक पूर्वधारी थे। ममय-को नि० ५६५-५८५ ( ई०३८. ५८)। -विशेष दे० इतिहास/४/४ । विनयपुरो-विजयाकी दक्षिण का एक नगर । -दे० विद्याधर । विनय लालसा-सप्त ऋषियोमेसे एक ।-दे० सप्तऋषि । विनयविजय-न्यायकणिकाके कर्ता एक श्वेताम्बर उपाध्याय । समय--श स १७ ( ई० १६७०)। (न्याय कणिका/प्र.१। ५० मोहनलाल डिसाई। विनय शुद्धि-दे० शुद्धि। दिनयसेन-~पंचस्तूप सघकी गुर्वावलोके अनुसार आप धवलाकार बीरसेन स्वामीके शिष्य तथा काष्ठासघ सस्थापक कुमारसेनके गुरु थे। समय- ई०८२०-८७० । (सि वि/प्र ३८/५० महेन्द्र); -दे० इतिहास/७/७ । विनायक राक्षस जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद।-दे० राक्षस विनायक यन्त्र। -दे० यन्त्र । विनाशरा वा./४/४२/१/२५०/१६ तत्पर्यायसामान्य विनिवृत्ति विनाश। - पर्यायको सामान्य निवृत्तिका नाम विनाश है। विनिमय-Barter and Purchase(ध/प्र २८)। विनोदोलालसहजादिपुर निवासी एक जैन कवि थे ( जिन्होने वि० १७५७ में भक्तामर कथा और वि० १७४६ मे सम्यक्त्व कौमुदी नामक ग्रन्थ लिखे । विपतत्त्व-दे० गरुड तत्त्व । विपक्ष-१. पक्ष व विपक्षोके नाम निर्देश। -दे० अनेकान्त, ४ । २.निश्चित व शकित विपक्ष वृत्ति । -दे० व्यभिचार। विपरिणामरा. वा /४/४२/४/२५०/१८ सत एवावस्थान्त रावाप्तिविपरिणाम । सतका अवस्थान्तरकी प्राप्ति करना विपरिणाम है। २. विपरिणामनाके भेद व उनके लक्षण ध, १५/२८२/१४ पिपरिगामउबक्कमो चउनिहो पयदिविपरिणामणा दिदिविपरिणामणा अणुभागविपरिणामणा पदेसविपरिणामणा चेदि। पपडिविपरिणामणा दुविहा-मुलपय डिविपरिणामणा उत्तरपयडिविपरिणामणा ति। तत्थ मूल रय डिविपरिणामणा दुबिहादेसविपरिणामणा सतविपरिणामणा चेदि । एत्थ अछपद-जासि पयडोण देसो णिज्जरिज्जदि अधििदगलणार सा देसपयडिविपरिणामणा णाम । जा पयडी सवाणिज्जराए णिज्जरिज्जदि सा सयविपरिणाममा णाम। उत्तरपयडिविपरिणामणाए अछपद । त जहा-गिज्जिएगा पयडी देसेण सम्वणिज्जराए,वा, अण्ण पनडीए देससकमेग वा मास कमेण वा जा सकामिनदि एसा उतरपय डिविपरिणामगाणाम। दिदो ओवट्टिज्जमाणा वा उचट्टिज्जमाणा वा अण्ण पपडिगकामिज्जमाचा वा विपरिणामिदा होदि। ओक ड्रिदो वि उक्कडदो चि अण्णपय डि णीदो वि अणुभागो विपरिणामिदो होदि। ज पदेसग्ग णिज्जिण्ण अण्णपयडि वा सकामिद सा पदेसविपरिणामगा गाम । =१ विपरिणाम उपक्रम चार प्रकारका हैप्रकृतिविपरिणामना, स्थितिविपरिणामना, अनुभागविपरिणामना और प्रदेश विपरिणामना। इनमें प्रकृति विपरिणामना दो प्रकारका है-मूल प्रकृतिविपरिणामना और उत्तरप्रकृतिविपरिणामना । २ उनमें भो मूलप्रकृति विपरिणामना दो प्रकार है-देशविपरिणामना और सर्व विपरिणामना। जिन प्रकृतियो का अध स्थिति गलनके द्वारा एक देश निर्जराको प्राप्त होता है वह देशपकृति विपरिणामना कही जाती है। जो प्रकृति सर्व निर्जराके द्वारा निर्जराको प्राप्त होती हे वह सर्व विपरिणामना कही जाती है । देश निर्जरा अपघा सर्व निर्जराके द्वारा निर्जीर्ण प्रकृति अथवा जो प्रकृति देशमक्रमण या सर्व सक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिमे सक्रमणको प्राप्त करायी जाती है यह उत्तरप्रकृति विपरिणामना कहलाती है। ३ अपवर्तमान, उद्वर्तमान अथवा अन्य प्रकृतियो में सक्रमण करायी जानेवाली स्थिति विपरिणामना कहलाती है। ४. अपकर्षणप्राप्त, उत्कर्षणप्राप्त अथवा अन्य प्रकृतिक प्राप्त कराया गया भीअनुभाग विपरिणामित होता है।५.जो प्रदेशान निर्जराको प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृतिमें सक्रमणको प्राप्त हुआ है वह प्रदेश विपरिणामना कही जाती है। विपरीत दृष्टांत-(दे दृष्टांत ) । विपरीत मिथ्यात्व-(दे. विपर्यय )। विपर्यय-१. विषययज्ञान का लक्षण स सि /१/३१/१३७/३ विपर्ययो मिथ्येत्यर्थ = विपर्ययका अर्थ मिथ्या है। (रा वा/१/३१/-६१/२८)। न्या दो //SETE/E विपरोते ककोटिनिश्चयो विपर्यय यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम् । = विपरीत एक पक्षका निश्चय करनेवाले ज्ञानको विपर्यय कहते है। जैसे-सोपमे 'यह चाँदी है। इस प्रकारका ज्ञान होना। न्या. विवृ १/२/१३०/२५ विवक्षिते विषये विविध परि समन्तादयन गमन विपर्यय सर्व ससारव्यवहार इत्यर्थ-विवक्षित विषयने विविध रूपमे सब ओरसे गमन करने को विपर्यय कहते है। अर्थात विपर्ययका अर्थ सर्व लोक व्यवहार है। २. विपर्यय मिथ्यात्व सामान्यका लक्षण स.सि /८/१/३७५/६ सप्रन्यो निर्ग्रन्थ केवली क्बलाहारी, रत्री सिध्यतोत्येवमादि विपर्यय ।- मग्रन्थको निम्रन्थ मानना, केवलीको केबलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है । ( रा बा /८//२८/५६४/२०), (त सा/५/६)। ध८/३.६/२०६ हिमालित्रयण-चोज्जमेहणपरिगहरागदोममोहण्णाणेहि चेव पिणबुई होइ त्ति अहिणिवेसो विवरीय मिच्छत्त । = हिसा अलोक वचन, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और अज्ञान, इनसे हो मुक्ति होती है, ऐसा अभिनिवेश विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है। अन. ध /२/७/१२४ ये प्रमाणत शिप्ता श्रद्दधाना श्रुति रसात् । चरन्ति श्रेयसे हिसा स हिस्या मोहराक्षस । = मोहरूपी राक्षसका ही वध करना उचित है कि जिसके वश में पहकर प्राणी प्रमाणसे खण्डित किया जाने पर भी उस श्रुति ( वेदो) का ही श्रद्वान करते है और पुण्यार्थ हिसा ( यज्ञादि ) का आचरण करते है। गों जो /जो प्र/१६/४२/३ याज्ञि कब्राह्मणादय विपरीतमिथ्यादृष्टय । यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि है। ३. विपरीत मतको उत्पत्तिका इतिहास द, सा /१६-१७ सुञ्चतित्ये उज्झो रख रिकद बुत्ति सुद्धसम्मत्तो। सीमो तस्स य दुट्ठो पुत्तो वि य पाओ वको।१६३ विवरीयमय किच्चा विणापिय सच्चसजम लाए। ततो पत्ता सवे सत्तमणरय महाघोर ११७ - मुनिसुव्रत नायके समय में एक क्षीरवदम्ब नामका उपाध्याय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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