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विनय
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४. उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
अन ध/७/५२/७७१ श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाप्यसयता । कुलिगिन कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयत ।। = माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एव राजा और मन्त्री आदि असयत जनोकी तथा श्रावककी भी सयमियोको वन्दना नहीं करनी चाहिए, और बती श्रावकोको भी उपरोक्त असयमियोकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। द. पा/मू /२६ असजदं ण वदे।२६। -असंयत जन वद्य नही है।
-(विशेष दे० आगे शीर्षक नं ८)।
४. मिथ्यादृष्टि जन व पावस्थादि साधु वन्य नहीं हैं द पामू /२,२६ दंसणहीणो ण व दिब्बो २। असंजदं ण वंदे वच्छबिहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोणि वि होति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ॥२६॥ =दर्शनहीन वन्द्य नहीं है ।२। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिगी साधु भो वन्द्य नहीं है क्योकि दोनो ही सयम रहित समान है ॥२६॥ मू आ./५६४ दसणणाणचरिते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्या । एदे अवदणिजा छिप्पेही गुणधराण ॥५६४। दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयोमे सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी सयमियोके सदा दोषो
को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि है, इसलिए वे वन्द्य नही है ।५६४। भ, आ/वि /११६/२७५/६ नाभ्युत्थान कुर्यात, पार्श्वस्थपञ्चकस्य वा ।
रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यताना अभ्युत्थान कर्त्तव्य कुर्यात् । मुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृ हणकारणात् । - मुनियोको पाश्वस्थादि भ्रष्ट मुनियोका आगमन होनेपर उठकर खडे होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरणमे तरपर है उनके आनेपर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुखके वश होकर अपने आचारमे शिथिल हो गये है उनके आनेपर अभ्युत्थान करनेसे कर्मबन्ध होता है, क्योकि, वह प्रमादकी स्थापनाका व उसकी
वृद्धिका कारण है। भा पा /टो./२/१२६/६ पर उद्धृत-उक्त चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने-'द्रव्यलिड्ग समास्थाय भावलिङ्गी भवेद्यति । विना तेन न बन्ध स्यान्नानावतधरोऽपि सन्। =समयभूषण प्रवचनमे इन्द्रनन्दि भट्टारकने कहा है-द्रव्य लिगमे सम्यक प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिगी होता है। उस द्रव्य-लिगके बिना वह बन्ध नही है, भले ही नाना व्रतोको धारण क्यो न किया हो। प्र. सा/त प्र/२६३ इतरेषा तु श्रमणाभासाना ता प्रतिषिद्धा एवं।
म उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासोके प्रति वे ( अभ्युत्थनादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही है। अन. ध./७/१२/७७१ कुलिगिन कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि सयते। ।१२। -पार्श्वस्थादि कुलिगियो तथा शासनदेव आदि कुदेवो की वन्दना सयमियोको (या असयमियोको भो) नही करनी
चाहिए। भा, पा/टो./१४/१३७/२३ एते पञ्च श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीया । पथ्ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकारके श्रमण जिनधर्म बाह्य है, इसलिए
वन्दनीय नहीं है। पध./उ./६७४ नेतरो विदुषा महान् ।७३४१ =इन गुणोसे रहित जो
इतर साधु है तत्त्वज्ञानियो द्वारा वन्दनीय नहीं है।
६. कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदिका कड़ा निषेध व उसका कारण द, पा/मू./१३ जे वि पडति च तेसि जाणंता लज्जागारवभएण । तेसि
पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाण।१३। = जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्टको मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भयके कारण उनके पॉवमें पडते है अर्थात् उनकी विनय आदि करते है, तिनको भी बोधिकी प्राप्ति नहीं होती है, क्यो कि, वे पापके अनुमोदक है ।१३। मो. पा /मू /१२ कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिग च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु। =कुत्सित् देवको, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिगधारी गुरुको जो लज्जा भय या गारवके वश बन्दना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है। शी. पा /मू /१४ कुमयकुसुदपस सा जाण ता बहु विहाई सत्थाइ । सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होति ।१४। बहू प्रकारसे शास्त्रको जाननेवाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्रकी प्रशसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनोसे रहित है, इनका आराधक
नही है। र. क. पा./३० भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं
चव न कुर्य शुद्धदृष्टय ।३०। - शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय आशा प्रीति और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियोको प्रणाम और विनय भी न करे। प वि/१/१६७ न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य ससारिणा, प्राप्त
वा बहुकल्पको टिभिरिद कृच्छ्रान्नरत्व यदि । मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायै प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति ।१६७। - ससारी प्राणियोको यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अन्धेको बटेरकी प्राप्ति । फिर यदि करोडो कल्पकालोमे क्सिी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एव मिथ्यागुरुके उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदिके द्वारा सहसा विफलताको प्राप्त हो जाती है ।१६७४ और भी दे० मूढता-( कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्मको देवगुरु शास्त्र
व धर्म मानना मूढता है।) दे० अमूढ दृष्टि/३ (प्राथमिक दशामें अपने श्रद्धानकी रक्षा करने के लिए इनते बचकर ही रहना योग्य है।)
५. अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वन्द्य नहीं है प्र. सा./मू /२६६ गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो ।
त्ति । होजं गुणधरो जदि सो होदि अण तससारी । जो श्रमण्यमे अधिक गुणवाले है तथापि हीन गुणवालोके प्रति (वन्दनादि) क्रियाओमें वर्तते है वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्रसे
भ्रष्ट होते है। द. पा /म् /१२ जे दसणेसु भट्ठा पाए पाईं ति दसणधराण । ते होति लल्लमुआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।१२। - जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकोको अपने पॉवमे पडाते है, वे गूगे-लूले होते है अर्थात् एकेन्द्रिय निगोद योनिमे जन्म पाते है। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। भ आ/वि./११६/२७५/५ अस यतस्य संयतासयतस्य वा नाभ्युत्थान कुर्यात् । - मनुष्योको अस यत व संयतासंयत जनोके आनेपर खडा होना योग्य नही है।
७. द्रव्य लिंगी मी कथंचित् वन्द्य है यो. सा /अ/१४५६ द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभि । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभि ।६। -व्यवहारी जनोके लिए द्रव्यलिगी भी पूज्य है, परन्तु जो मोक्षके इच्छ क है उन्हे तो भाव-लिगी ही पूज्य है। सा, ध/२/६४ विन्यस्यैद युगोनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्व
मुनोनर्चेत्कृत श्रेयोऽतिचचिनाम् ।६।। उपरोक्त श्लोक्की टीकामे उद्धृत-"यथा पूजय जिनेन्द्राणा रूप लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्व मुनिच्छाया पूज्या सप्रति सयता ।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
भा०३-७०
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