Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 558
________________ विनय ५५१ ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनोकी ही विनय है, क्योंकि य समूहको साधु व प्रवचन सज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योकि विनयसम्पन्नता एक भी होकर सोलह अवयवोंसे सहित है, अत उस एक ही पिता मनुष्य तीर्थकर नामकर्मको गाते है। प्रश्नयह, विनय सम्पन्नता देव नारकियो के कैसे सम्भव है। उत्तर- उक्त शका ठीक नहीं है. क्योकि उनमे ज्ञान व दर्शन - विनयकी सभावना देखी जाती है। प्रश्न- यदि ( देव और नारकियोको ) दो ही विनयोंसे तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनयको उसका कारण क्यों कहा जाता है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बातको सूचित करने के लिए चारित्र विनयको भी कारण मान लिया गया है। ४. विनय सपका माहात्म्य भा पा.// १०२ विषय पचपयारं पालहि मणयणकाज अगियरायि तत्तो मुति पावति । १०२ हे हुने पाँच प्रकारकी विनयको मन वचन काय तीनो योगोसे पाल, क्योकि, विनय रहित मनुष्य मुविहित मुतिको प्राप्त नही करते है (सु. BTT-/33K) 1 भ.आ./१२-१३९ निओ मोलार विषयाशे संजमो तो पाणं गिरणाराहिजइ आयरिओ सव्वसघो । १२६ । आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्भा । अज्जव मद्दव लाघव भक्ती परहादकरण च । १३० कित्ती मेत्ती माणस्स भजण गुरुजणे य बहुमाणो । तिरथयराण आणा गुणामोदय विनयगुणा । १३१० विनय मोक्षका द्वार है, विनयसे संयम तप और ज्ञान होता है और विनयसे आचार्य व सर्वसकी सेवा हो सकती है |१२| आचारके, जीवप्रायदिपतके ओर कल्पप्रायश्चितके गुणीका प्रगट होना. आत्मशुद्धि. कलह रहिता आर्जन, गार्डन, निलभता, गुरुसेवा सबको करना ये सब विनय है ।१३० सर्वत्र प्रसिद्धि सर्व मैत्री ग का त्याग, आचार्यादिको से बहुमानका पाना, तीर्थक्रोकी आज्ञाका पालन, गुणो से प्रेम- इतने गुण विनय करने वालेके प्रगट होते है | १३१ | ( मू आ. / ३८६-३८८) (भ आ./वि / ११६/२७५ / ३ ) । अ० / ३६४ द सगणाणे विणओ चरिततत्र ओवचारिओ विणओ । पञ्चवो विष पचमगणागो भणिओ | ३६४| दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गतिके नायक कहे गये है | ३६४ | = ब. / ३३२-३६ विणएण सकुज्जसजसोहयतियदितओ पुरिसी । सव्वत्थ हवs सुहओ तहेब आदिज्जवयणो य | ३३२१ जे ts वि उवएसा इह परलोए सुहावहा सति । विणण गुरुजणाणं सव्वे पाउण ते पुरिसा । ३३३ | देविद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुह सोए त सयं विषयफल विवाणसह तहा चैव ॥२३४॥ सव मित्तभाव जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स । विणओ तिविहेण तओ कायaat देसfवरण | ३३६ | विनयसे पुरुष चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगन्तको धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते है | ३३२| जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोकमें जीनोको मुख वाले होते है, उन सबको मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते है | ३३३ | ससारने देवेन्द्र, चक्रवर्ती और मण्डलीक राजा आदिके जो सुख प्राप्त होते है वह सब विनयका ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी हो फल है | २३४ | चूँकि शीत मनुष्यक्ा शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए । ३३६ | अन ध / ७ /६२ / ७०२ सार सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपस पदिहार्हति । शिक्षास्या विनय सम्यगस्मिन् काम्या सता गुणा । ६२॥ = मनुष्य भाका सार Jain Education International ३. उपचार विनय विधि आता कुलीनता आदि है उनका भी सार जिन लिग धारण है। उसका भी सार जिनागमकी शिक्षा है और शिक्षाका भी सार यह विनय है, क्योकि, इसके होनेपर ही सज्जन पुरुषोके गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते है । ५. मोक्षमार्ग में विनयका स्थान व प्रयोजन भ. आ // १२८/२०३ विषण विषयस्य हरदि सिखा गिरस्थिया सव्वा । विणओ सिखाए फल विजयफलं सव्वक्ल्लाणं । १२८ = विनयहीन पुरुषका शास्त्र पढना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढनेका फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोर का मिलना है। ( मू.आ / ३५) (अन /०/२३/००३) । रसा / गुरुभत्तिविहोणाण सिस्साण सबसगविरदाणं । ऊसरछेत्ते afar सुवीयसम जाण सम्बणुट्टाणं |२| = सर्वसंग रहित गुरुओ की भक्तिविज्ञान शिष्पोको सर्व क्रियाएं ऊपर भूमिमे पड़े बीज समान व्यर्थ है। रा. मा /१/२३/७/६२२ /३१ ज्ञानवामाचारविशुद्धिसम्यगाराधना विनयभावनम् ॥७॥ ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावन क्रियते । = ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदिको सिद्धि विनय से होती है, और अन्त मे मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अत विनयभाव अवश्य ही रखना चाहिए। (चा, सा / १५०/२) । भ आ / मि / १००/५११ शास्त्रोपानापाध्यायकालमोरध्ययन सरस प्रछतश्च भक्तिपूर्वकृत्याग्रहं परिगृ हुने खा निय निराकरण, अर्थाद्य एव भाव्यमान श्रुतज्ञानं सवर निर्जरा च वरोति । अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत् । - शास्त्रमे वाचना और स्वाध्यायका जो काल कहा हुआ है। उसी काल मे श्रुतका अध्ययन करो, ज्ञानको बतानेवाले गुरुकी भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदरसे पढो, गुरु व शास्त्रका नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ ज्ञान क्योंकी सवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्मके बन्धका कारण है । ( और भी दे. विनय / १/६ में ज्ञानविनयका लक्षण, ज्ञान / III / २ / १ में सम्यग्ज्ञानके आठ अंग ) पंवि /६/१९ ये गुरु नैव मन्यन्ते भवतेषामुदितेऽपि दिवाकरे । १६ उनको उपासना ही करते हैं, उनके अन्धकार जैसा ही है । दे विनय / ४ / ३ ( चारित्रवृद्धके द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वन्दनीय है । ) दे. सल्लेखना / १० ( क्षपकको निर्यापकका अन्वेषण अवश्य करना चाहिए। तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो जन गुरुको मानते है, न लिए सूर्यका उदय होनेपर भी = ३. उपचार विनय विधि १. विनय व्यवहारमें शब्दप्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ नियम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only .पा. १२-१३ वे बानीसपरीसह सहति सतीहि संजुता ते होति वदणीया कम्म स्यणिज्जरासाहू |१२| अबरेसा जे तिमी दसपणाणेण सम्मस जुत्ता । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिउजाय |१३| = सेकडो शक्तियोंसे सयुक्त जो २२ परीषहोको सहन करते हुए नित्य कर्मोकी निर्जरा करते है. ऐसे दिगम्बर साधु वन्दना करने योग्य है | १२ | और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करनेवाले परन्तु जो ज्ञान दर्शन से सयुक्त है वे इच्छाकार करने योग्य है |१३| भू आ / १३१, १६५ सजमणाणुव करणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्जे । जोग्ग गहण दो अच्छाकार। दु काव्य |१| पच छ सत्त हत्थे www.jainelibrary.org

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