Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ विनय १. भेद व लक्षण भ आ./मू /४६-४७/१५३ अरहतसिद्धचेइय सुदे य धम्म य साधुवग्गे य । आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दसणे चावि।४६। भत्ती पूया वण्णजणण च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दसविणओ समासेण 1४७ - अरहत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शनमें भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्व बताना, अन्य मतियो द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवादको हटाना, इनके आसादनका परिहार करना यह सब दर्शन विनय है।४६-४७। मू. आ./गा अस्थपज्जया खलु उबदिट्ठा जिणवरेहि सुदणाणे। तह रोचेदि णरो द सणविणओ हवदि एसो।३६६। णाण सिक्रवदि णाण गुणेदि णाणं परस्स उबदिसदि । णाणेण कुणदि णायं णाणविणोदो हवदि एसो ।३६८ - श्रुत ज्ञानमें जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट द्रव्य व उनकी स्थूल सूक्ष्म पर्याय उनकी प्रतीति करना दर्शन विनय है ।३६६ ज्ञानको सीखना, उसीका चिन्तवन करना दूसरेको भी उसीका उपदेश देना तथा उसीके अनुसार न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करना-यह सब ज्ञानविनय है।३६८। (मू आ./५८५-५८६)। स. सि.//२३/४४१/४ सबहुमान मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि निविनय । शंकादिदापविरहित तत्त्वार्थश्रद्धान दर्शनविनय । तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनय । -बहुत आदरके साथ मोक्षके लिए ज्ञानका ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञानविनय है। श कादि दोषोसे रहित तत्त्वार्थका श्रद्वान करना दर्शनविनय है। सम्यग्दृष्टिका चारित्रमै चित्तका लगना चारित्रविनय है। (त. सा./७/३१-३३ ) । रा, वा /8/२३/२-४/६२२/१६ अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिनिविनयो वेदितब्य । यथा भगवद्भिरुपदिष्टा पदार्थाः तेषा तथाश्रद्धाने नि शड कितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनबिनयो वेदितव्य । ज्ञानदर्शनवत पञ्चविधदुश्चरचरण श्रवणानन्तरमुद्भिन्नरोमाञ्चाभिव्यज्यमानान्तर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकाजलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्व चारित्रविनय' प्रत्येतव्य । -आलरयरहित हो देशकालादिकी विशुद्धिके अनुसार शुद्धचित्तसे बहुमान पूर्वक यथाशक्ति मोक्षके लिए ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है । जिनेन्द्र भगवान्ने श्रुत ममुद्रमे पदार्पोका जैसा उपदेश दिया है, उसका उसी रूपसे श्रदान करने आदिमें निशक आदि होना दर्शनविनय है। ज्ञान और दर्शनशाली पुरुषके पाँच प्रकारके दुश्चर चारित्रका वर्णन सुनकर रोमाच आदिके द्वारा अन्तभक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना मस्तकपर अंजलि रखकर आदर प्रगट करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान करना चारित्रविनय है । (चा, सा /१४७/६), (भा पा/टी/७८/२२४/११)। वसु. श्रा/३२१-३२४ णिस्सकिय संवेगाइ जे गुणा बणिया मए पृव्यं । तेसिमणुपालण जं वियाण सो द सणो विणो ।३२१। णाणे णाणुवयरणे य जाणवतम्मि तह य भत्तोए। ज पडियरण कीरह णिच्च त णाण विण ओ हु ।३२२॥ पचविह चारित्त अहियारा जे य वणिया तस्स । जं तेसि बहुमाण वियाण चारित्तविणओ सो ।३२३. बालो य बुड्ढो य स कप्प वज्जिऊण तवसीण । ज पणिवाय कीरइ तबविणय तं बियाणीहि ।३२४। -नि शक्ति, सवेग आदि जो गुण मै ने पहिले वर्णन किये है उनके परिपालनको दर्शनविनय जानना चाहिए ।३२१॥ ज्ञानमें, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमे तथा ज्ञानवत पुरुषमे भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है ।३२२॥ परमागममे पाँच प्रकारका चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये है, उनके आदर सत्कारको चारित्र विनय जानना चाहिए ।३२३। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकारका सकल्प छोड़कर तपस्यो जनोका जो प्रणिपात अर्थात आदरपूर्वक वन्दन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना ।३२४॥ दे० विनय/२/३-(सोलह कारण भावनाओकी अपेक्षा लक्षण ) । ७. उपचार विनय सामान्यका लक्षण स, सि./६/२३/४४२/२ प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाजलि करणादिरूपचारविनय । परोक्षेष्वपि कायवाड्मनोऽभिरवजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादि । आचार्य आदिके समक्ष आनेपर खडे हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार वरना आदि उपचार विनय है. तथा उनके परोक्षमे भी काय बचन और मनसे नमस्कार करना, उनके गुणोका कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है । (रा वा./६/२३४५-६/६२२/२५), (त सा-//२४); (भा. पा./टी/७८/२२४/१४)। का. अ//४५८ रयणत्तयजुत्ताण अणुकूल जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं उधयारो सो हवे विणओ ।४५८ -जैसे सेवक राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रयके धारक मुनियोके अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। ८. कायिकादि उपचार विनयोंके लक्षण भ, आ /मू /११६-१२६/२६१-३०३ अब्भुट्ठाण किदियम्म णवंसण अजली य मुडाण । पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधण चेव ।११६। णीच ठाण णीचं गमण णीच च आसणं सयणं । आसणदाण उवगरणदाणमोगासदाणं च ।१२०। पडिरूबकायसं फासणदा पडिरूवकाल किरिया य। पेसणकरण सथारकरण मुववरणपडिलिहणं ।१२१। इच्चेवमादित्रिणओ उवयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि ।१२२। पूयावयणं हिदभासणं च 'मिदभासण च महुर च । सुत्ताणुवीचित्रयण अणिट छुरमककस बयण (१२३. उपस तवयणमगिहत्यवयणमकिरियमहीलण वयण । एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्यो ।१२४। पापविसोत्तिय परिणामबज्जण पियहिदे य परिणामो । णायवो सखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।१२५। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ बि ज गुरुणो। विरहम्मि 'विवाहिज्जइ आणाणिसरियाए ।१२६ - साधुको आते देख आसनसे उठ खडे होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अजुली मस्तकपर चढ़ाकर नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जानेवालेको विदा करनेके लिए साथ जाना ।११। उनके पीछे खडे रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नोचे बैठना, नीचे सोना, उन्हे आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरनेको बसतिका देना ।१२०। उनके बलके अनुसार उनके शरीरका स्पर्शन मर्दन करना, कालके अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकालमे उष्णाक्रया और उष्णकालमें शीतक्रिया करना, आज्ञाका अनुकरण करना, सथारा करना, पुस्तक आदिका शोधन करना ।१२१॥ इत्यादि प्रकार से जो गुरुओका तथा अन्य साधुओका शरीरसे यथायोग्य उपकार करना सो सब कायिक विनय जानना ।१२२। पूज्य वचनोसे बोलना, हितरूप बोलना, थोडा बोलना, मिष्ट बोलना, आगमके अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना ।१२। उपशान्त वचन, निबन्ध वचन, सावध क्रियारहित वचन, तथा अभिमान रहित बचन बोलना वाचिक विनय है ।१२४. पापवार्यो मे दु श्रुति (विक्था सुनना आदि ) में अथवा सम्यक्त्वकी विराधनामे जो परिणाम, उनका त्याग करना, और धोपकारमे व सम्यक्रव ज्ञानादिमे परिणाम होना वह मानसिक विनय है ।१२। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुओके परोक्ष होनेपर अर्थात उनकी अनुपस्थितिमे उनको हाथ जोडना जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना परोक्ष विनय है।१२६। (मू आ/३७३-३८०), (बसु श्रा। ३२६-३३१)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639