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विनय
१. भेद व लक्षण
१. विनय सामान्यका लक्षण
मसि /६/२०/४६/७ ज्येष्याविनयपूज्य पुरुषका आवर करना विनय तप है ।"
रा. वा /६/२४/२/५२६/१७ सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयाग्यवृत्त्या सत्कार आदर कषायनिवृत्तिर्वा विनयसपन्नता । मोक्ष के साधनभृत सम्यग्ज्ञानादिकमे तथा उनके साधक गुरु आदिकोमें अपनी योग्य रीतिसे सरकार आदर आदि करना तथा कषायकी निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है । (स. सि /६/२४/६/७). (चा. सा/२३/१) (भा.पा./टी./००/२११/११।
घ १३ / ५,४,२६/६३/४ रत्नत्रयवत्सु नीचैवृत्तिविनय । -रत्नत्रयको धारण करनेवाले पुरुषोके प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है । (चा. सा / १४७/५ ), ( अन ध / ७ /६०/७०२ ) ! क. पा / १/१ - १/६६०/११७/२ गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनय' । = वृद्ध पुरुषो के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है ।
= गुण
भ. वा वि./२००/११/२१ विनयति कर्ममिति विनय वर्म मसको नाश करता है, इसलिए विनय है (अन प./०/६९/७०२): ( दे० विनय / २ / २ ) ।
भ.आ./वि./६/३२/२३ ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रिया । तासामपोहनं विनय । = = अशुभ क्रियाऍ ज्ञानदर्शन चारित्र व तपके अतिचार है । इनका हटाना विनय तप है ।
का असू. ४५७ समाचरिते मुनिसुद्धो भो हमे परिणामो बारसभेदेवि तवे सो श्चिय विणओ हवे तैसि । दर्शन, ज्ञान और चारित्रके विषय में तथा बारह प्रकारके तपके विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनको विनय है।
चा सा./ १४७ / ५ कषायेन्द्रियविनयन विनय । कषायो और इन्द्रियोको न करना विनय है। (अन. ध. /७/६०/७०२ ) । प्रसा/वा/२२५/३०६/२२ स्वनिश्वनशुद्धिनिश्वयविनय तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनय' । स्वकीय निश्चय
यको शुद्धि नियविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों आचार्य आदिकों का भक्तिके परिणाम व्यवहारविनय है। साध /७/३५ सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आबा मी १३ जनसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र व सम्यक् तपके दोष दूर करनेके लिए जो कुछ प्रयत्न करते है, उसको विनय कहते है और इस प्रयत्न में शक्तिको न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हे करते रहना विनयाचार है।
२. विनय सामान्य भेद
म आ / ५८० लोगाणुवित्तिविणओ अत्यनिमित्ते य कामत ते य । भयविणअ य चउत्यो पंचमओ मावखविणओ य १५८०१ -लोकानुवृत्तिविनय, अर्थ निमित्तक विनय कामतन्त्र विनय, भयविनय, और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है।
१. भेद व लक्षण
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त. सू /१/२३ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचार | = विनय तप चार प्रकारका है - ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय । घासा./१४०/२) (त. सा / ०/३०)।
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२. मोविनय के सामान्य भेद भ. आ // ११२ युग पनि मिहिदो गारद सचरिते । तकविअ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ ॥ ११२ ॥ - विनय आचार पाँच प्रकारका है- ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपनिनय और उपचार विनय ( मू. आ / ३६४, ५८४ ), ( ध / पु. १३/५.४,२६/६२/४ ), ( क. पा. १ / १-१ / ६६०/११७/१), ( बसु श्रा/ ३२०, ( अन ध / ७/६४/७०३।
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ध. ८/३, ४१/८०८ विणओ तिविहो णाण-द सण-चरितविणओ त्ति । = विनय सम्पन्नता तीन प्रकार की है- ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय ।
४. उपचार विनयके प्रभेद
भ. आ /मू / ११८/२६५ काइयवाइयमाणसिओ त्तितिविहो दु पचमो विणओ । सो पुण सब्बो दुव्धिहो पच्चक्खो चेव परोक्खो | ११ | उपचार विनय तीन प्रकारकी है- कायिक, वाचिक और मानसिक उनमें से प्रत्येक के दो दो भेद है-प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मु.आ./३७२); (चा. सा. / १४८/३), वसु श्रा/३२५),
५. छोकानुवृत्यादि सामान्य विनयोंके लक्षण
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२०१५मुहान जलियासमदान व अतिहिपूणा म सोमाणि देवास भाषावृति बत्तणं देसकालदाणं च । लोकाणुवित्तिविणओ अजलिकरणं च अत्थकदे |२| एमेव कामतं ते भयविणओ चैव आणुपृव्वीए पंचमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि १५८३ - आसनसे उठना, हाथ जोडना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना ये सब लोकानुवृत्ति विनय है । ५८१| किसी पुरुषके अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना - ये सब लोकानुवृत्ति विनय है । अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोडना आदि अर्थनिमित्त विनय है |२| इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है । भयके कारण विनय करना भय विनय है । पाँचवी मोक्ष विनयका कथन आगे करते है|३|
६. ज्ञान दर्शन आदि विनयोंके लक्षण भ.आ./मू./११३-११०/२६०-२१४ का विये उधाणे बहुमाने हे ब गिण्हवणे व अन्य सभये व पाणम्मि निहो । ११३ ॥
ग्रहणादिया पृथ्वृत्ता तह भक्तियादिया व गुणासादिपि य ओ सम्मत्तविणओ सो | ११४ | इंदियकसायपणिधाणं पिय गुत्तीओ चेत्र समिदीओ। एसो चरितविणओ समासदो होइ णायव्वो |११|| उत्तरगुणउज्जमण सम्म अधिआसण च सड्ढाए। आवासयाणमुनिदान अपरिहाणी असेखो ।११६ भी सोधियसमम्मि
अहलणाय सेसाणं । एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स | ११७० काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नब, व्यजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनयके आठ भेद है । ( और भी दे. ज्ञान / III/ २१ ) ।१९३। पहिले कहे गये ( दे. सम्यग्दर्शन / 1 / 2) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शनके अगोका पालन, भक्ति पूजा आदि गुणोका धारण, तथा
कादि दोषोंके त्यागको सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते है । ११४ । इन्द्रिय और वषायोके प्रणिधान या परिणामका त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्रके अगोका पालन करना संक्षेप मे चारित्र विनय जाननी चाहिए । ११५ । सयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओमे हानि वृद्धि न होने देना -- यह सब तप विनय है | ११६ । तपमे तथा तप करनेमें अपनेसे जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है । उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी है उनको तथा चारित्रधारी मुनियोकी भी अहंसाना नहीं करनी चाहिए। यह तप विनय है | ११७७ मू. आ / ३६५, ३६७, ३६६, ३७०. २०९), (जन, भ./०/६५-६६/७०४-००६ राधा ०५/०१०)।
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