Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 553
________________ विद्याधर जिन विधान ति,प म पु त्रि सा जय जयावह अग्निज्वाल महाज्वाल माल्य पुरु जयावह श्रीनिवास मणिवज्र भद्राश्व धनजय माहेन्द्र विजयनगर सुगन्धिनी | बज्रार्द्ध तर | गोक्षीरफेन अक्षोभ गिरिशिखर धरणी वारिणी (धारिणी) भवनंजय धनंजय गोक्षीरफेन गोक्षीरफेन अक्षोभ्य अक्षोभ गिरिशिखर गिरिशिखर धरणी धारण et नन्दिनी विद्य प्रभ महेन्द्र विमल गन्धमादन महापुर पुष्पमाल मेघमाल शशिप्रभ चूडामणि 'दुर्धर सुदर्शन सुदर्शन महेन्द्र महेन्द्रपुर दुर्ग विजयपुर सुगन्धिनी वज्रपुर विजयपुर सुगन्धिनी वज्रार्द्ध तर सुदर्शन रत्नाकर रत्नपुर पुष्पचूड हसगर्भ वलाहक वशालय सौमनस चन्द्रपुर रत्नपुर ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. विद्याधरों में सम्यक्त्व व गुणस्थान । -दे आर्यखण्ड। २ विद्याधर नगरोंमें सर्वदा चौथा काल वर्तता है। -दे. काल/४/१४॥ (ई १४४२-१४८१) । (ती 1३/३६६, ३७२) । ३ भट्टारक विशाल कीति के शिष्य । ई १५४९में इनका स्वर्गवास हुआ था। (जे./१/४७४)। ४ आपका उल्लेख हुमुच्चके शिलालेख व वर्द्धमान मनीन्द्रके दशभक्त्यादि महाशास्त्रमें आता है। आप सागानेरवाले देवकीर्ति भट्टारकके शिष्य थे। समय-वि. १६४७-१६६७ (ई १५६०-१६४०)। (स्याद्वाद सिद्धि/प्र १८/पं. दरबारी लाल); (भद्रबाहु चरित्र/ प्र. १४/पं. उदयलाल) वाद- अग श्रुतज्ञानका नवमाँ पूर्व-दे श्रुतज्ञान/III विधुच्चर-वृ कथाकोष/कथा नं. ४/पृ अस्थिरचित्त सोमदत्तसे आकाशगामी विद्याका साधन पूछकर स्वयं विद्या सिद्ध कर ली। फिर चैत्यालयोकी धन्दना की।१३। दीक्षा ले ।१४। स्वर्ग में ऋद्धि धारी देव हुआ।१५॥ विधुच्चोर-दे. विद्यु प्रभ/६। विद्युज्जिह्व-एक ग्रह-दे. ग्रह। विद्युत्करण-Protons and Electrons. (ध.५/प्र. २८)। मार-भवनवासी देवोका एक भेद-दे. भवन/१/४। विद्युत्केश-प. मु/६/श्लोक-भगवान मुनिसुवतके समय लंकाका राक्षस वशीय राजा था। वानर बंशीय महोदधि राजाके साथ परम स्नेह था । अन्तमे दीक्षा धारण कर ली ( २२२-२२५) । विद्यत्प्रभ-१ एक गजदन्त पर्वत-दे, लोकशा३।२ विजयाधकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर। ३. विद्य त्प्रभ गजदन्तका एक कूट-दे. लोक५/४।४.देवकुरुके १० द्रहोमे-से एक-दे. लोक ५/६ । १. यदुवशी अन्धकवृष्णिके पुत्र हिमवादका पुत्र तथा नेमिनाथ भगवान्का चचेरा भाई-दे. इतिहास११०।६ म. पु./७६/श्लोकपोदनपुरके राजा विद्य द्वाजका पुत्र था। विद्य चर नामका कुशल चोर बना । जम्बूकुमारके घर चोरी करने गया ।४६-५७। वहाँ दीक्षाको कटिबद्ध जम्बूकुमारको अनेको कथाएँ बताकर रोकनेका प्रयत्न किया।५८-१०७। पर स्वयं उनके उपदेशोसे प्रभावित होकर उनके साथ ही दीक्षा धारण कर ली ।१०८-११०॥ विधुद्रष्ट्र-म पु./२६/श्लोक-पूर्व भव श्रीभूति. सर्प, चमर, कुर्कुट, सप', तृतीय नरक, सर्प, नरक, अनेक योनियों में भ्रमण, मृगश ग। ( ३१३-३१५) । वर्तमान भव में विद्यु द्रष्ट्र नामका विद्याधर हुआ, ध्यानस्थ मुनि सजयतपर घोर उपसर्ग किया। मुनिको केवलज्ञान हो गया। धरणेन्द्रने क्रुद्ध होकर उसे सपरिवार समुद्र में डुबोना चाहा पर आदित्यप्रभ देव द्वारा बचा लिया गया। (११६-१३२) । विद्युन्माला-पश्चिमी पुष्कराधका मेरु-दे. लोक/७। विद्योपजीवन-१ आहारका एक दोप-दे, आहार/11/४ | २. वसतिकाका एक दोष-दे. वसतिका । विद्रावण-दे विद्दावण। विद्वज्जनबोधक-प पन्नालाल (ई. १७६३-१८६३) द्वारा रचित भाषा छन्दबद्ध एक आध्यात्मिक कृति । विध-दे. पर्याय/१/१--(अश, पर्याय, भाग, हार, विध, प्रकार, भेद, छेद, भग ये सब शब्द एकार्थवाची है।) विधाता-कर्मका पर्यायवाची नाम-दे कर्म/२। विधान-स. सि /10/२२/४ विधान प्रकार । -विधानका अर्थ प्रकार या भेद है। (रा वा./१/७/-1३८/३)। विद्याधर जिन-दे. जिन । विद्याधर वंश-दे. इतिहास१६१४ । विद्यानन्द महोदय-आ. विद्यानन्दि (ई ७७५-८४०) की सर्व प्रथम न्यायविषयक रचना है। अनुमान है कि यह ग्रन्थ श्लोक वार्तिकसे भी महान होगा। परन्तु आज यह उपलब्ध नहीं है। इसे केवल 'महोदय' नामसे भी कहते है। (तो/२/३५६) । विद्यानन्दि-१ आप,मगधराज अवनिपालकी सभाके एक प्रसिद्ध विद्वान् थे । पूर्व नाम पात्रकेसरी था। वैदिक धर्मानुयायी थे, परन्तु पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिरमें चारित्रभूषण नामक मुनिके मुखसे समन्तभद्र रचित देवागम रतोत्रका पाठ सुनकर जैन धर्मानुयायी हो गये थे। आप अक्ल व भट्टकी ही आम्नायमे उनके कुछ ही काल पश्चाव हुए थे। आपकी अनेको रचनाएँ उपलब्ध है जो सभी न्याय व तर्कसे पूर्ण है । कृतियाँ-१ प्रमाण परीक्षा, २ प्रमाणमीमासा, ३ प्रमाण निर्णय ४. पारीक्षा, ५ आप्तपरीक्षा, ६ सत्यशासन परीक्षा, ७ जल्पनिर्णय, नयविवरण ६ युक्त्युनुशासन, १०, अष्टसहस्रो, ११ तत्त्वा श्लोक वातिक, १२. विद्यानन्द महोदय, १३ बुद्धशभत्रन व्याख्यान । समय-वि सं ८३२-८६७ (ई ७७५८४० }। (जे १२/३३६) । (तो /२/३५२ -३५३) । २ नन्दि सघ बलात्कारगण की सूरत शाखा में ) आप देवेन्द्रकी तिके शिष्य और तत्त्वार्थ वृत्तिकार श्रुतसागर व मल्लिभूषण के गुरु थे। कृति-सुदर्शन चरित्र । समय- (वि १४६६-१५३८) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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