________________
विद्या
५४४
विद्याधर्म
* अन्य सम्बन्धी विषय १. मन्त्र तन्त्र विद्या।
-दे० मन्त्र। २. साधुओंकी कचित् विद्याओंके प्रयोगका निषेध । --दे० मन्त्र ।
विद्याकर्म-दे० मावद्या३। विद्याधरध.१/४,११६०००० एवमेदाओ तिविहाओ विजाओ होति विज्जाहराण । तेग देबदणिवासिमणुआ विविज्जाहरा, सयल विजाओ छडिऊण गहिदसजमविज्जाहरा वि होति विज्जाहरा. विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुवल भादो। पढिदविज्जाणुपवादा विज्जाहरा, तेमि पि विज्जाविसयविण्णाणुवल भादो। -- इस प्रकारसे तीन प्रकारकी विद्याएँ (जाति कुल व तप विद्या) विद्याधरोके होती है। इससे वैतादय पर्वतपर निवास करनेवाले मनुष्य भी विद्याधर होते है । सब विद्याओं को छोडकर सयमको ग्रहण करनेवाले भी विद्याधर होते है, क्योकि, विद्याविषयक विज्ञान वहाँ पाया जाता है जिन्होंने विद्यानुप्रबादको पढ़ लिया है वे भी विद्याधर है, क्योकि उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है। त्रि. सा /७०६ विज्जाहरा तिविज्जा वसति छक्कम्मसंजुत्ता। -विद्याधर लोग तीन विद्याओसे तथा पूजा उपासना आदि षट कोसे सयुक्त
शतानि । अन्तरिक्षभौमागस्वरस्वप्नलक्षणव्यजनछिन्नानि अष्टौ महानिमित्तानि । =विद्यानुवाद पूर्व में अंगुष्ठ, प्रसेन आदि ७०० अल्प विद्याएँ और महारोगिणी आदि ०० महाविद्याएं सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त अन्तरिक्ष, भौम, अग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यजन व छिन्न (चिह्न) ये आठ महानिमित्त ज्ञान रूप विद्याएँ
भी है। [अष्टांगनिमित्तज्ञानके लिए दे० निमित्त/२]।। ध.६/४,१.१६/७७/६ तिविहाओं विज्जाओ जातिकुलनपविजाभेएण
उत्तं च-जादीसु होइ विज्ला कुल विज्जा तह य होइ तवविज्जा। विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहणं ।२० तत्थ सगमादुपएखादो लद्धविज्जाओ जादिविजाओ णाम । पिदुपवखुवल द्धादो कुलविज्जाओ । छटुट्ठमा दिउववासविहाणेहि साहिदाओ तबविज्जाओ। जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्याके भेदसे विद्याएँ तीन प्रकारकी है। कहा भी है-"जातियोमें विद्या अर्थात जातिविद्या है, कुन विद्या तथा तपविद्या भी विद्या है । ये विद्याएँ विद्याधरोमें होती है और तपविद्या साधओके होती है ।२०।" इन विद्याओमें स्वकीय मातृपक्षसे प्राप्त हुई विद्याएं जातिविधाएँ और पितृपक्षसे प्राप्त हुई कुलविद्याएँ कहलाती है। षष्ठ और अष्टम आदि उपवासो ( वेज्ञा तेला आदि ) के करनेसे सिद्ध की गयीं विद्याएँ तपविद्याएँ है।
३. कुछ विद्यादेवियों के नाम निर्देश प्रतिष्ठासारोद्धार/३/३४-३५ भगवति रोहिणि महति प्रज्ञप्ते वज्रशृङ्खले
स्वलिते । वज्राङ्कशे कुशलिके जाम्बनदिकेस्तदुर्मदिके ।३४. पुरुधाम्नि पुरुषदत्ते कालिकलादये कले महाकालि । गौरि वरदे गुणढे गान्धारिवालिनि ज्वलज्ज्वाले ३१ - भगवती,रोहिणी,महती प्रज्ञप्ति. बज्रशृखला, वज्रांकुशा, कुशलिका. जाम्वनदा, दुम दिका, पुरुधाग्नि, काली. कला महाकाली, गौरी, गुणद्धे,गान्धारी.ज्वालामालिनी. (मानसी, वैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी)।
१. कुछ विशेष विद्याओंके नामनिर्देश ह. पु/२२/५१-७३ का भावार्थ-भगवान ऋषभदेवसे नभि और बिनमि द्वारा राज्यकी याचना करने पर धरणेन्द्रने अनेक देवोंके सग आकर उन दोनोको अपनी देवियोसे कुछ विद्याएँ दिलाकर सन्तुष्ट किया। तहाँ अदिति देवीने विद्याओके आठ निकाय तथा गन्धर्वमेनक नामक विद्याकोष दिया। आठ विद्या निकायोंके नाम-मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गान्धार, भूमितुण्ड, मूलवीर्यक, शकुक । पे निकाप आर्य, साहित्य, गन्धर्व तथा व्योमचर भी कहलाते है। दिति देवी ने-मालंक, पाण्ड्ड, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल, वृक्षमूल ये आठ विद्यानिकाय दिये। दैत्य, पन्नग, मातंग इनके अपर नाम है। इन सोलह निकायों में निम्न विद्याएँ हैप्रज्ञप्ति. रोहिणो, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्व विद्या, प्रकर्षिणी. महाश्वेता, मायूरो. हारी. निवज्ञशावला, तिरस्कारिणी, छायासक्रामिणी, कुष्माण्ड-गणमाता, सर्व विद्याविराजिता, आयकूष्माण्ड देवी, अच्युता, आयवती, गान्धारी, निवृत्ति, दण्डाध्यक्षगण, दण्डभूतसहस्त्र, भद्रकाली, महाकाली, काली, कालमुखी, इनके अति'रिक्त-एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपळ, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी. त्रिपातिनी, धारिणी, अन्तविचारिणी, जलगति और अग्निगति समस्त निकायोमें नानाप्रकारकी शक्तियोसे सहित नाना पर्वतोपर निवास करनेवाली एवं नाना औषधियोकी जानकार हैं। सर्वार्थ सिद्धा, सिद्धार्था, जयन्ती. मगला, जया, प्रहारसक्रामिणी, अशच्याराधिनी, पिशव्याकारिणी, वणमरोहिणी. सवर्णकारिणी, मृतसंजीवनी, ये सब विद्याएँ कल्याणरूप तथा मंत्रोंसे परिष्कृत, विद्याबलसे मुक्त तथा लोगोंका हित करनेवाली है। 'म पु./७/३४-३३४)।
१. विद्याधर खचर नहीं है ध. ११/४,२,६,१२/१९५/६ ण विज्जाहराणं रवगचरत्तमरिथ विजाए विणा सहावदो चेत्र गगणगमणसमस्येच खगयत्तप्पसिद्धीदो। - विद्याधर आकाशचारो नहीं हो सकते, क्योंकि, विद्याकी सहायताके बिना जो स्वभावसे हो आकाश गमनमें समर्थ हैं उनमें ही खचरत्वकी प्रसिद्धि है।
३. विद्याधर सुमेरु पर्वतपर जा सकते हैं म. पु ११३/२१६ साशक गगनेचरै किमिदमित्यालोक्तिो य स्फुरन्मेरोर्मूनि स नोऽवताजिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ प्लव ।२१६॥ - मेरु पर्वतके मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेकको उस जलप्रवाहको, विद्याधरोने 'यह क्या है ऐसी शंका करते हुए देखा था ।२१६।
४. विद्याधर लोक निर्देश
ति ५/४/गा का भावार्थ - जम्बद्वीपके भरतक्षेत्रमे स्थित विजयार्ध पर्वतके ऊपर दश योजन जाकर उम पर्वतके दोनो पार्श्व भागोमें विद्याधरोकी एक-एक श्रेणी है।१०। दक्षिण श्रेणीमे ५० और उत्तर श्रेणी में ६० नगर है ।१११। इससे भी १० यो० ऊपर जाकर आभियोग्य देवीकी दो श्रेणियाँ है ।१४० विदेह क्षेत्रके कच्छा देशमें स्थित विजयाईके ऊपर भी उसी प्रकार दो श्रेणियाँ है ।२२५८। दोनो ही श्रेणियोमें ५५-५५ नगर है ।२२५६। शेष ३१ विदेहो के विजयादौंपर भी इसी प्रकार ५५-५५ नगरवाली दो दो श्रेणियाँ है ।२२६२। ऐरावत क्षेत्रके विजयाधका क्थन भी भरतक्षेत्र बत् जानना ।२०६५। जम्बूद्वीपके तीनो क्षेत्रोके विजया?के सदृश ही धातकी खण्ड व पुष्कराध द्वीप में जानना चाहिए ।२७१६,२६२। (रा वा/३/१०/४/१७२/ १).(ह पु./२२/८४)(म.पु/१६/२७-३०), (ज प /२/३८-३६), (त्रि. सा/६६५-६६६)। दे० काल/४/१४-[ इसमे सदा चौथा काल वर्तता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org