Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 549
________________ विचिकित्सा वितंडा स सि/8/४/४५५/१३ एव परिवर्तन वीचार इत्युच्यते । - इस प्रकार- विजयनगर-विजया की उत्तर व दक्षिण दोनो श्रेणियोके नगर । के ( अर्थ व्यञ्जन व योगके ) परिवर्तनको वीचार कहते है। (रा - दे० विद्याधर। वा/६/४४/-/६३४/१३)। रा. वा /१/१२/११/५५/१८ आलम्बने अर्पणा बितर्क , तत्रैवानुमर्शन विजयपुरी-अपरविदेह पद्मवान् क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे०लोक५/२ विचार । -विषम्र के प्रथम ज्ञानको वितर्क कहते है। उसीका बार- विजयवश-नन्दवंशका अपर नाम है। मगध देशकी राज्य वंशाबार चिन्तवन विचार कहलाता है। वली के अनुसार दिगम्बर आम्नायमे जहाँ विजयवशका नाम दिया दे० विचय-( विचय, विचारणा, परीक्षा और मीमासा ये समानार्थक है, वहाँ ही श्वेताम्बर आम्नायमें नन्दवशका नाम दिया है । -दे० शब्द है।) नन्दवश। * सविचार अविचार भक्त प्रत्य ख्यान -दे० सल्लेखना/३।। विजय वमो-विन्ध्यवर्माका अपर नाम।-दे०विन्ध्य वर्मा। * सविचार व अविचार शुक्लध्यान -दे० शुक्लध्यान ।। विजयसन-१ श्रुतावतारके अनुसार भद्रबाहू श्रुतकेवली के पश्चात् आठवे ११ अग व १० पूर्वधारी हुए। समय- बी० नि० विचार स्थान-दे. स्थिति/१६ २८२-२६५ (ई० पू० २४५-२३२ )।-दे० इतिहास/४/४ । २ तत्त्वाविचिकित्सा-दे० निविचिकित्सा। नुशासनके रचयिता श्री नागसेन ( ई०१०४७ ) के दादागुरु । समयविचित्र नागसेन के अनुसार ई० श० १० । न्या. वि./वृ./१/८/१४८/१७ तद्विपरीत विचित्र -क्षणक्षय विषयत्वं विजया-१ अपर विदेहस्थ वप्रक्षेत्रकी प्रधान नगरी।-दे० लोका/२ प्रत्यक्षस्य। २ रुचक पर्वत निवासिनी दिवकुमारी-दे० लोक १३ ३ भगवान् न्या वि/वृ./१/८/१५७/१६ तद्विशिनष्टि विचित्र शबलं सामान्यस्य मल्लिनाथकी शासक यक्षिणी।-दे० तोर्थ कर/५/३ ४.नन्दीपबरद्वीप विशेषात्मक विषस्य सामान्यात्मकमिति। उस (चित्र) से की वापी-दे० लोक/५/११। विपरीत विचित्र है। प्रत्यक्षज्ञान क्षणक्षयी विषय इसका अर्थ है । विजयाचाये--अपर नाम अपराजित था।-दे० अपराजित।। विचित्र शत्रल अर्थात सामान्यका विशेषात्मक रूप और विशेषका विजयाध-१,रा बा /३/१०/४/१७१/१६ चक्रभृद्विजयाध करत्वाद्विसामान्यात्मक रूप। जयाध इति गुणत कृताभिधानो। - चक्रवर्ती के विजयक्षेत्रकी आधी विचित्रकूट-विजयार्धको दक्षिण श्रेणीका एक नगर । सीमा इस पर्वतसे निर्धारित होती है, अतः इमे विजयाई कहते है। -दे० विद्याधर। (विशेष दे० लोक/३-७)। २. विजया पर्वतका एक कूट व उसका विचित्रानन्दनवनमे स्थित रुचक कूट की स्वामिनी दिवकुमारी। स्वामी देव।-दे० लोक/५/४। -दे० लोक/५/५ । विजयोदया--आ० अपराजित ( ई० श०.) द्वारा विरचित विचित्राश्रयाकोण-ममेरुपर्वतका अपर नाम ।- दे० सुमेरु । भगवती आराधना ग्रन्थकी विस्तृत सस्कृत टीका । (ती/२/१२७)। विजस्का-विजयार्धको दक्षिण श्रेणीका एक नगर। विजय-१, भगवान सुपार्श्व नाथ का शासक यक्ष-~-दे.तीर्थ -दे० विद्याधर। कर/१/३ । २. कल्पातीत देवो का एक भेद-दे स्वर्ग/३ । ३. इनका विजाति-१ विजाति उपचार । -दे० उपचार/१। २. विजाति लोक में अवस्थान-दे. स्वर्ग/५/४।४ विद्यत्प्रभ तथा माल्यवान द्रव्य पर्याय = दे० पर्याय । गजदन्त का कुट-दे. लोक/१/४।५ निषध पर्वत का कुट तथा -शास्त्रार्थ या वाद। --दे० कथा । उसका संपक देव-दे लोक/५/४।६ जम्बूद्वीप की जगती का पूर्व द्वार ,दे लोक/३/१। ७ पूर्व विदेह के मन्दर वक्षार के कच्छ- विजिष्णु-एक ग्रह-दे० ग्रह । बदकट का रक्षक देव-दे लोक/५/४।८.हरिक्षेत्र का नाभिगिरि विडौषध ऋद्धि-दे० ऋद्धि । दे लोक/५/३६नन्द नवन का एक कूट-दे लोक/५/५ ॥१०. म पु / ५७/श्लो० पूर्व भन न०२ में राजगृह नगर के राजा विश्वभूतिका । वितंडाहछोटा भाई 'विशारवभूति' था ।७३। पूर्वभव न १ मे महाशक न्या. सू/मू./१/२/३ प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।-प्रतिपक्ष के साधनवर्गमे देव हुआ 1८२। वर्तमान भवमे प्रथम बलदेव हुए-दे० से रहित जल्पका नाम वितडा है। अर्थात् अपने किसी भी पक्षकी शलाकापुरुष/३। ११. बृ कथाकोश/कथा न०६/पृ.-सिहलद्वीप स्थापना किये बिना वेवल परपक्षका खण्डन करना वितडा है। के शासक गगनादित्यका पुत्र था ।१७। पिताकी मृत्यु के पश्चात (स्या म/१०/१०७/१३)। अपने पिलाके मित्रके घर 'विषान्न शब्दका अर्थ 'पौष्टिक अन्न स्था,म/१०/१०७/१५ वस्तुतस्त्वपरामृएतत्त्वातश्व विचारं मौवर्य वितंडा। समझकर उसे खा गया, पर मरा नही ।१८। फिर दीक्षा ले मोक्ष -- वारतवमे तत्त्व अतत्तका विचार न करके खाली बवास करनेको सिधारे ।१६॥ वित डा कहते है। विजयकौत-नन्दिसब बलात्कारगणकी को ईडर गद्दी में ज्ञान * बाद जल्प व वितंडामें अन्तर-दे० वाद/५ । भूषण के शिष्य तथा शुभचन्द्र के गुरु ! आपने अनेको मूर्तिये २. नैयायिकों द्वारा जल्प वितंडा आदिके प्रयोगका प्रतिष्ठित कराई। महाराज मल्लिभूपाल द्वारा सम्मानित हुए। समय- वि १५५२-१५७० (ई १४६५-१५१३)। (दे इतिहास/७/४)। समर्थन व प्रयोजन (जै/१/४७३), (ती /३/३६२) । न्या सू/मू /५/९/५०-५१/२८४ तत्त्वाध्यवसायसरभणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहण सरक्षणार्थ कण्टकशारखाव रणवत् ।। ताभ्या विगृह्य विजयचरी--विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर । कथनम् । पोका विपर्वत + जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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