Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 543
________________ वारुणी स्मरण करे अर्थात् ध्यान करे | २५ | तत्पश्चात् अर्द्धचन्द्राकार, मनोहर, अमृतमय, जल के प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुणपुर ( वरुण मण्डलका ) चितवन करे । २६ । अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे दिव्य ध्यान से उत्पन्न हुए जलसे, शरीर के जलने से ( दे० आग्नेयी धारणा ) उत्पन्न हुए समस्त भस्मको प्रक्षालन करता है, अर्थात् धोता है, ऐसा मन परे त अनू / १०५ ह मन्त्रो नभसि ध्येय क्षरन्नमृतमारमनि। तेनान्यत्तद्विनिर्माण पीयूषममुज्ज्वल १८५८ को आध ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मामे अमृत कर रहा है, और उस अमृत से अन्य शरीरका निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है । वारुणो-१ रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी-दे० लोक / ५ / १३ । २ विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका नगर । - दे० विद्याधर । वारणीवर मध्यलोकका चतुर्थी व सागर दे० लोक/२/१ वान म पु / ३८/३५ वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठित । - विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती अधिक करना वास कहलाती है। (चा. सा / ४३ / ५ ) । वार्तिक - श्लो. वा / १/१ पं२/२०/१० वार्तिक हि सूत्राणामनुपपति चोदना तत्परिहारो विशेषाभिधान प्रसिद्ध सूत्रके नही अन तार होने देनेकी तथा सूशोके अर्थको न सिद्ध होने देनेकी उहापोह या तर्कणा करना और उसका परिहार करना, तथा ग्रन्थ के विशेष अर्थको प्रतिपादित करना, ऐसे वाक्यको वार्तिक कहते है । वार्षगण्य - साख्यमतके प्रसिद्ध प्रणेता समय ई० २३० २०० १ - दे० सांख्य | वाल्मीकि एक विनयवादी- दे० वैनयिक | वाल्होक - भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश । दे० मनुष्य / ४ बाबिल नरक० नरक/२/११० वासना [टी] [३०] अरीरादी शुचिस्थिरमीयादिज्ञानान्यनिद्यास्तासामभ्यास पुन पुन प्रवृत्तिस्तेन जनिता सस्कारा वासना । - शरीरादिको शुचि, स्थिर और आत्मीय माननेरूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुन पुन प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न रस्कार वासना कहलाते है । * अनन्तानुबन्धी आदि कषायका वासनाकाज - दे० वह वह नाम । वासवगन्धर्व नामक व्यन्तर देवोंका एक भेद । - दे० गन्धर्व । वासुकिमा स्वामी नागेन्द्रदेव दे० || १२ | वासुदेव -१ कृष्णका अपरनाम है । - दे० कृष्ण । २ नव वासुदेव परिचय व वासुदेवका लक्षण दे० शलाका पुरुष / ४ । वासुदेव सार्वभौम- नव्य न्यायके प्रसिद्ध प्रणेता । समय - ई० १०००-३० वाम/१/७ - - = वासुपूज्यश्लोक पूर्व ०२ पुष्प पूर्व मेरु सम्बन्धी बरसकावती देशमे रत्नपुर नगर के राजा 'पद्मोत्तर' महादेव हुए। १३ वर्तमान में १२ मे लीवर हुए। दे०] [टीवर / Jain Education International ५३६ समि/७/२६ 'वास्तु अगार a वास्तु- वास्तु का अर्थ घर होता है । वाहिनी -सेनाका एक अन । —दे० सेना । विदफल - Volume (ज. प. प्र.१०८ ) | विकलावेश - विंध्य पर्वत है एक गिरि और दूसरा विन्ध्यगिरि । ( द. सा / पृ १६ की टिप्पणी । प्रेमी जी ) । विध्य वर्मा - - भोजवशकी वंशावली के अनुसार यह अजयवर्माका पुत्र और सुभटवर्माका पिता था। मालवादेश ( मगध ) का राजा था। धारा नगरी व उज्जैनी इसकी राजधानी थी। अनाम विजयवर्मा था । समय-- वि० स० १२४६-१२५७ ( ई० १११२-१२०० ) । - ३० इतिहास /२/१ विध्यन्यासी मागण्या शिम्य तथा सात्य दर्शनका प्रसिद्ध प्रणेता। समय - ई० २५०-३२० । - दे० साख्य । विध्यशक्तिम -म. पु/५८ / श्लोक - भरतक्षेत्रके मन्नयदेशका राजा था । ६३॥ भाई सुषेणकी नतिकीको युद्ध करके छीन लिया । ७६ । चिरकाल तक अनेको योनियो मे भ्रमण करनेके पश्चात् | १०| भरतक्षेत्रके भोगवर्द्धन नामक नगरके राजा श्रीधरका 'तारक' नामका पुत्र हुआ यह तारक प्रतिनायक दूर पूर्वभव है। ३० तारक विध्याचल भरतक्षेत्र खण्डका एक पर्वत यो देश जिसमे निम्न 19. प्रान्त सम्मिलित हैं। दशा, किष्क्रम्य त्रिपुरा नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन, विनिहान्त । -दे० मनुष्य विकट दे० ग्रह । विकथा - दे० कथा | विकल- - १ विक्ल दोष । - दे० शून्य । २ साध्य साधन विक्ल दृष्टान्त - दे० दृष्टान्त । विकलन - Distribution /प्र.२०)। विकलादेश रावा./४/४२/१२/२३२ / २२ धर्माणा भेदेन विवक्षा देकस्यास्थानेकार्थप्रत्यायनशक्त्यभावात क्रम । यदा तु कम तदा विकलादेश', स एव नय इति व्यपदिश्यते । = जब वस्तुके अस्तित्व आदि अनेक धर्मकामाविकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न मिति होते है, उस समय एक शब्द मे अनेक अर्थोके प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे निकलादेश बहते है। सौर यह नयके आधीन ३ विशेष० मय / 1 /२ ( श्लो. बा./२/१/६/२५९९६)। ( स. म / २२ / २०१ / १६ । रा. वा./४/४२/१६/२६०/१२ निरंशस्यापि गुणभेदाना विकला देश | १६ | स्वेन तत्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विविध गुणरूपं स्वरूपो परजकमपेक्ष्य प्रकल्पितमंशभेद कृत्वा अनेकात्मवै करव व्यवस्थाया नरसिह सिहत्ववत् समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादिभिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरसायन विदेश न तु केवल सिहे सित्व एकात्मकत्वपरिग्रहात् । यथा वा पानकमनेकखण्डवामशविरा विमास्थाय अनेकरसारमय स्वमस्यामसाय पुन स्वशक्तिविशेषादिदमप्यस्तीति विशेषनिरूपणं क्रियते, तथा अनेकापूर्वदिसामर्थ्यासाध्यविशेषाय " धारण' विसावेश स्थ पुनरर्थस्याभिम्नस्य गुणो भवन टो हि अभिस्यार्थस्य गुणस्तश्वभेदं कम्पयत् यथा परुद भवा पटुरासीद पर एवम् इति गुणविविक्तरूपस्य व्यासंभवात् गुलमेदेन गुणिनोऽपि भेद निरंश वस्तुमे गुणमेव अशवपना करना विकलादेश है । स्वरूपसे अविभागी अखड सत्ताक वस्तुएँ विविध गुणोकी अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेक और एफकी अवस्थाके लिए मूलत नरसिंहमें बिकी तरह समुदा = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639