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विकलेन्द्रिय
यात्मक वस्तुस्वरूपको स्वीकार करके ही काल आदिको दृष्टिसे परस्पर विभिन्न अंशोकी कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंहमे सिंहत्व की तरह एक में एकांशकी कल्पना करना विकलादेश नहीं है । जैसे दाडिम कर्पूर आदि मने हुए दशर्चसमें विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृतिके बाद अपनी पहिचान शक्तिके अनुसार 'इस शर्बत मे इलाइची भी है कर्पूर भी है' इत्यादि विवेचन किया जाता है, उसी अनेकान्तात्मक एक वस्तुकी स्वीकृतिके बाद हेतुविशेषसे किसी विवक्षित अंशका निश्चय करना विकलादेश है। प्रश्न- गुण अभिन्न अर्थका भेदक कैसे हो सकता है । उत्तर- अखण्ड भी वस्तुमें गुणो से भेद देखा जा सकता है, जैसे गलवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पर है' इस प्रयोग अवस्था मेदसे उदभिन्न प्रयमें भेद व्यवहार होता है। गुण भेदसे गुणिभेदका होना स्वाभाविक ही है । - ( विशेष दे० द्रव्य /४/४ ) ( और भी वे० सफलादेश ) ।
खो
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२/२/६/०६/४६०/२१ सासवादका प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकतावेशत्वप्रसङ्गात् सम्पूर्ण वस्तुका प्रतिपादक न होनेके कारण प्रत्येक बोला गया सत् असत् यदि वाक्य विकलादेश है, यह मुक्ति ठीक नहीं, क्योकिं यों तो उन साठी वायपोंके समुदायको भी विकलादेशपनेका प्रसंग होगा। सातो वाक्य समुदित होकर भी वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक न हो सकेगे। ( स भ त . / ११ / २ ) । क. पा १/११७२ / २०३/६ को विकलादेश | अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एवं घटइति विकलादेश कक्षमेतेषा साना दुर्नयाना विकलादेशस्य न. एकविशिष्टस्येव वस्तुन प्रतिपादनाय । प्रश्नविकलादेश क्या है ? उत्तर-घट है ही, घट नहीं ही है, अवक्तव्यरूप ही है. इस प्रकार यह ( सप्तभंगी) विकलादेश है । प्रश्न- इन सातो दुर्जयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्योंको विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है । उत्तर - ऐसी आशका ठीक नहीं कि ये सातो वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तुका ही प्रतिपादन करते है, इसलिए ये विकलादेश रूप है । स.भ./९६/६ अत्र केचित् एक धर्मात्मकमस्तु विषयकोषजनक वाक्यत्व विकलादेशत्वम् इत्याहु तेषा नयवाक्यानां च सप्तविधवव्याघात' |
घट
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स म त /१७/१ यसु धर्म्यषयकधर्मविषयोजनाय विकलादेशत्वमिति - तन्न । धर्मिवृत्तित्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि सारणस्यासंभवात्यहाँपर कोई ऐसा कहते है कि वस्तुके सत्त्व असत्त्वादि धर्मोमेंसे किसी एक धर्मका ज्ञान उत्पन्न करानेवाला वाक्य विकलादेश है। उनके मत में नयवाक्योके सप्तभेदका व्याघात होगा (दे० सप्तभंगी ) । और जो कोई ऐसा कहते है कि धर्मीको छोड़कर केवल विशेषणीभूत धर्ममात्राविषयक गोषणम वाक्य विकला देश है, सो यह भी युक्त नही है क्योकि धर्मीमें वृत्तितारूपसे अविशेषित धर्मका भी शाब्दबोध में भान नही होता है । विकलेन्द्रियविकलेन्द्रिय जीवका लक्षण - दे० त्रस / १ । २ विक लेन्द्रियो के सस्थान व दुस्वरपने सम्बन्धी शका समाधान - दे० उदय / ५ । ३ विकलेन्द्रियो सम्बन्धी प्ररूपणाएँ -- दे० इन्द्रिय । विकल्प - विकल्प दो प्रकारका होता है- रागात्मक व ज्ञानात्मक । रागके सद्भाव में ही ज्ञानमें इष्ठिपरिवर्तन होता है और उसके अभाव के कारण ही केवलज्ञान, स्वसंवेदन ज्ञान व शुक्लध्यान निर्विकल्प होते है ।
१. विकल्प सामान्यका लक्षण
१. रागकी अपेक्षा
./टी./३१/१०२/१ अभ्यन्तरे मुख्य दु महमिति हर्षविषादकारण विकल्प इति । अथवा वस्तुवृत्त्या संकल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति
भा० ३-६८
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विकल्प
तस्यैव पर्याय' । = अन्तरंग मे मै सुखी हूँ मै दुखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा वेदका करना है, वह विकल्प है । अथवा वास्तवमे जो पत्र आदि मेरे है. ऐसा भाव है. नही है, अव विकल्प कल्पक पर्याय है, काता, बृ / ७ / ११ /-), (प प्र / टी ९/९६/२४/९)
२ शान आकारानमासनकी अपेक्षा
प्र. सा./त.प्र / १२४ विकल्पस्तदाकारावभासनम् । यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदभावपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानस्
- ( स्वपरके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है। उसके बाकारो का अनुभाविप है। दर्पण के निजविस्तारकी भाँति जिसमें एक ही साथ स्व- पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात ज्ञानभूमि प्रतिभासित बाह्य पदार्थोंके आकार या प्रतिबिम्ब ज्ञानके विकल्प कहे जाते है।)
द्र स / टी / ४२ / १८२/३ घटोsय पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकार सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थ । - यह घट है. यह पट है' इत्यादि ग्रहण व्यापाररूपसे ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है । - ( और भी. दे. आकार / १)
पं. घ. / ५ / ६०८ अर्थालोकविकल्पः ।
पं.
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१६१ आकारोऽपि स्यादर्थं स्वपरगोचर सोपयोगा हा अर्थका प्रतिभास विकल्प कहलाता है । ६०८ | साकार शब्दमे आकार शब्दका अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषयरूप है । विकल्प शब्दका अर्थ उपयोगसहित अवस्था होता है, क्योकि, ज्ञानका यह आकार लक्षण है | ३६१६ ( प ध / उ / ८३७)
३. प्तिपरिवर्तनको अपेक्षा
पं. ध. / उ / ८३४ विकल्पो योगसंक्रान्तिरर्थाज्ज्ञानस्य पर्यय । ज्ञेयाकार. समयान्तरगत [३] योगोकी प्रवृत्तिके परि
नको कहते हैं, अर्थात् एक ज्ञानके विषय अर्थ से दूसरे विषयान्तरत्य को प्राप्त होनेवाली जो हाकाररूप ज्ञानको पर्याय है, वह विकल्प कहलाता है ।
मो. मा. / ७ / ३१० / रागद्वेषके वशर्तें किसी ज्ञेयके जाननेविषै उपयोग लगाना। किसी ज्ञेय के जाननेते डावना, ऐसे बराबर उपयोगका भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाक जानें है, ताकौ यथार्थ जाने है । अन्य अन्य ज्ञेयके जानने के अर्थ उपयोग नाही भ्रमावै है । तहां निर्विकल्प दशा जाननी ।
२. ज्ञान सविकल्प है और दर्शन सं./टी./४/१२/१ निर्विकल्पक दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान
निर्विकल्प समिकल्पक ज्ञानं दर्शन है (पं. काता / 01
८०/१२)
* ज्ञानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं- गुण/र हैं—दे ३. सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पना पंघ / / ८३८ विकल्प सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारी मनागपि । योगसक्रान्तिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना । ८३ =ज्ञानका स्वलक्षणभूत व विकल्प सम्यग्दर्शन के निर्विकल्प व सविकल्पके कथनमें कुछ भी अधिकार नहीं है, किन्तु योगातिरूप जो विकल्प वही इस समय सम्यक्त्व के सविकल्प और निविकल्पके विचार करते समय अधिकार रखता है ।
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