Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 541
________________ वादन्याय ८. परधर्म हानि के अवसरपर बिना बुलाये बोले अन्यथा चुन रहे भ आ. / / २६/०१ कणरस अप्पणी या विधम्मिए विस कन् ज अ पुगिसो अपोहि य पुज - दूसरीका अपना अपना धार्मिक कार्य नष्ट होनेका प्रसंग आनेवर बिना पूछे ही बोलना चाहिए। यदि कार्य विनाशका प्रसंग न हो ताज कोई पूछेगा गोल नहीं गानो /६/९५ धर्मनाशे विवाध्यसे मुसिद्वान्दार्थविप्लबष्टेरपि वक्तव्य तत्स्वरूपप्रकाशने । १५१ - जहाँ धर्मका नाश हो क्रिया बिगतो हो तथा समीचीन सिद्धान्तका लोप होता हो उस समय धर्मकिया और सिद्धान्तके प्रकाशनार्थ बिना से भी विद्वानोको बोलना चाहिए। अन्य सम्बन्धित विषय २. योगवकता व विवाद अन्तर २, वस्तु विवेचनका उपाय । ३, वाद व जय पराजय सम्बन्धी । ४ अनेकों एकान्तवाद न मतोके लक्षण निदेश आदि । ५३४ - दे० योगवक्रता । -दे० न्याय / १ । -- ३० न्याय / २ | - दे० वह वह नाम । दे० अनुमान / ३ । है - दे० वाद / १ वादन्याय - आ कुमारनन्दि ( ई ७७६ ) कृत संस्कृत भाषा में न्याय विषयक ग्रन्थ (ती / २ / ३५०, ४४८) । ५. वादने पक्ष व हेतु दो ही अत्रयत्र होते है । ६. गायिक लोग नाद पाँच अवयव मानते वाद महार्णव -श्वेताम्त्रराचार्य श्री अभयदेव ( ई श. १०) कृत संस्कृत का न्याय विषयक ग्रन्थ । वादिचंद्र - नन्दिस बलात्कारगण की सूरत शाखा में प्रभा चन्द्र के शिष्य और महीन्द्र के गुरु कृतिये पार्श्वपुराण, श्रीपाल आख्यान ज्ञान सूर्योदय नाटक, शुभलोचना चरित्र समय - वि १६३७- १६६४ (ई १५८०-१६०७) । (दे. इतिहास / ७/४), (तो/४/७१), जे १/४०६ बादित्व ऋद्धि दे०/२ वादिदेव सूरि तार्किक व नैयायिक एक श्वेताम्बराचार्य जिन्हाने 'परीक्षामुख' ग्रन्थपर 'प्रमाण नय तत्वालकार स्याद्वाद रत्नाकर' नामकी टीका लिखी है। आपके शिष्यका नाम रत्नप्रभ समय-ई १९१० - १९६६ (सि. वि./ २०.४१/१ महेन्द्र कुमार ) । Jain Education International वादिराज१ आ समन्तभद्र (ई १२०-१८५) का अपर नाम (दे. इतिहास / ७ / १ ) २ दक्षिण देशवासी श्री विजय (ई. १५०) के गुरु । समय – ई श १० का पूर्वार्ध । (ती / ३ /१२ ) । ३ द्रविडसघ नन्दिगच्छ उरु गल शाखा मति सागर के शिष्य श्रीपाल के प्रशिष्य, अनन्तवीर्य तथा दयापाल के सहधर्मा । एकीभाव स्तोत्र की रचना द्वारा अपने कुष्ट रोग का शमन किया। कृति- पार्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तात्र, न्याय विनिश्चय विवरण, प्रमाण निर्णय । समय- चालुक्य नरेश जयसिंह (ई १०१६ १०४२) द्वारा सम्मानित । पार्श्वनाथ चरित्र का रचना काल शक १४७ ( ई १०२५) अत ई १०१०- १०६५ । (दे इतिहास /६/३) । (ती /३/८८-६२) । धायु वादीसह अकलक देव के गुरु भाई पुष्यसेन (ई. (२०-६८०) के शिष्य । असली नाम ओडयदेव, तमिलनाडु के वासी कृतियेछत्र चूड़ामणि, गद्य चिन्तामणि । समय ई. ७७०-८६० । (वे इतिहास/०/२) (सी/३/२५-२७) २ वादिराज के शिष्य, यादवराज ऐरेयंग शान्तराज तेलगु (ई ११०३) को गुरु । असली नाम अजित सेन । कृति स्याद्वाद् सिद्धि । समय-ई. ११०३ (ई श. १२ पूर्व)। (ती./३/६२) । वानप्रस्थ वा सा / ४६ / २ मानप्रस्थ अपरिगृहीतनिरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरविमुता भवन्ति जिन्होंने भगवा देवकादिगम्बर रूप धारण नहीं किया है, जो सण्डवस्त्रोको धारणकर निरतिशय तपश्चरण करने में तत्पर रहते है, उन्हे वानप्रस्थ कहते है । वानर वंश इतिहास१०/१३ वानायुज भरत क्षेत्रका एक देश-दे० मनुष्य / ४ । वामदेव- = १ मूलसंघी भट्टारक । गुरु परम्परा - विनयचन्द, लक्ष्मीचन्द्र वामदेव प्रतिष्ठा आदि विधानों के ज्ञाता एक जिनभक्त कायस्थ । कृतिये - भावस ग्रह, त्रैलोक्यप्रदीप, प्रतिष्ठा सिग्रह, त्रिलोकसार पूजा समार्थसार ज्ञानोपन सूक्तिसंग्रह, श्रुतज्ञानोद्यापन, मन्दिर संस्कार पूजा । समय-वि श १४-१५ के लगभग (जे./१/४८४४२) (तो ६५ वामन राजाकी नगरी - दे० वनस्पती | वामनसंस्थान दे०सस्थान वामा भगवान् पार्श्व की माता। अपर नाम ब्राह्मी, वर्मिला, वर्मा । -३० सीकर। वायव्य-पश्चिमोत्तर कोणवाली विदिशा । वायु वायु भी अनेक प्रकारको है। उनमें से कुछ अचित्त होती है, और कुछ सचित्त । प्राणायाम ध्यान आदिमे भी वायुमण्डल व वायवी धारणाओका प्रयोग किया जाता है । -R १. वायुके अनेकों भेद व लक्षण दे, पृथिवी - (वायु, वायुकायिक, वायुकाय और वायु इस प्रकार वायु के चार भेद है। तहाँ वायुकायिक निम्नरूपसे अनेक प्रकार है ) । मू आ. / २१२ वादुभामो उक्कलि मडलि गुजा महा घणु तणू य । ते जाण बाउजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा । २१२ । सामान्य पवन, भ्रमता हुआ ऊँचा जानेवासा पवन महुत रज सहित जनेवाला पहन पृथिवीमे लगता हुआ चक्करवाला पवन, गूँजता हुआ चलनेवाला पवन, महापान, घनोदधि बात, घनवात, तनुवात ( विशेष दे० वातवलय) - ये वायुकायिक जीव है । ( प स / प्र /९/८०), (ध. १/ १.१.४२ / १२ / २७३ ) ( त सा /२/६५ ) । भ आ /त्र /०८/०५/२० कामडलि दी वायो । बायुके झझावात और माण्डलिक ऐसे दो भेद है। जलवृष्टि सहित जो वायु महती है उसको मादा करते है ओर जो बनाकार भ्रमण करती है उसको माण्डलिक वायु कहते है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only २. प्राणायाम सम्बन्धी वायु मण्डल ज्ञा / २६१२१.२६ विन्दुको मीशानम् चञ्चल प नोपेल दुर्लक्ष्य वायुमण्डल २१ तिर्यग्वत्यविश्रान्त पहनाय www.jainelibrary.org

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