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वात्स्यायन
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वाद
५. एक प्रवचनवात्सल्यसे ही तीर्थकर प्रकृति बन्ध सम्मावनामें हेतु घ.८/३४१/१०८ तीए तित्थयरकम्म बज्मइ। कुदो। पंचमहव्यदादि
आगमत्थविसयमुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झदादोहि अविणाभावादो। चा, सा 11७/१ तेनैकेनापि तीर्थक्रनामकर्मबन्धो भवति । -उस एक प्रवचन वात्सत्यसे हो तीर्थकर नामकर्मका बन्ध हो जाता है, क्योकि, पाँच महावतादिरूप आगमार्थ विषयक उत्कृष्ट अनुरागका दर्शनविशुद्धतादिकोके साथ अविनाभाव है। (चा सा /५७/१), (और भी दे. भावना/२)
१. वात्सल्य रहित धर्म निरर्थक है कुरल काव्य/८/७ अस्थिहीनं यथा कीट सूर्यो दहति तेजसा । तथा दहति धर्मश्च प्रेमयन्य नृकीटकम् ।७। - देखो, अस्थिहीन की डेको सूर्य किस तरह जला देता है। ठीक उसी तरह धमशीलता उस
मनुष्यको जला डालती है जो प्रेम नहीं करता। वात्सायन-असपाद गौतमके न्यायसत्रके सर्वप्रधान भाष्यकार ।
समय-ई श./४/-दे. न्याय/१/७ । वाद-चौथे नरकका छठा पटल।-दे. नरक/५/११॥ वाद-हार-जीतके अभिप्रायसे की गयी किसी विषय सम्बन्धी चर्चा वाद कहलाता है। वीतरागीजनोंके लिए यह अत्यन्त अनिष्ट है। फिर भी व्यवहारमें धर्म प्रभावना आदिके अर्थ कदाचित इसका प्रयोग विद्वानोको सम्मत है।
१. वाद व विवादका लक्षण दे० कथा ( न्याय/३) ( प्रतिवादीके पक्षका निराकरण करने के लिए अथवा हार-जोतके अभिप्रायसे हेतु या दूषण देते हुए जो चर्चा की
जाती है वह विजिगीषु कथा या वाद है।) न्या मूम् /१/२/१/४१ प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भ सिद्धान्ताविरुद्ध पञ्चावयबोपपन्न' पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद ५११- पक्ष और प्रतिपक्ष के परिग्रहको बाद कहते है। उसके प्रमाण, तर्क, साधन, उपालम्भ, सिद्वान्तसे अविरुद्व और पच अवयवसे सिद्ध ये तीन विशेषण है। अर्थात जिसमें अपने पक्षका स्थापन प्रमाणसे, प्रतिपक्षका निराकरण तर्कमे परन्तु सिद्धान्तसे अविरुद्ध हो; और जो अनुमानके पॉच अव
यवोसे युक्त हो, वह वाद कहलाता है। स्या म /१०/१०७/८ परस्पर लक्ष्मीकृतपक्षाधिक्षपदक्ष वादो-वचनो
पन्यासो विवाद । तथा च भगवान् हरिभद्रसूरि -'लव्यख्यात्यथिना तु स्पद दु स्थितेनामहात्मना । छलजातिप्रधानो य स विवाद इति स्मृत । दूसरेके मतको खण्डन करनेवाले वचनका कहना बिबाद है। हरिभद्रसूरिने भो कहा है, "लाभ और ख्यातिके चाहने वाले कलुषित और नीच लोगहल और जाति से युक्त जो कुछ क्थन करते है. वह विवाद है।"
न्या. वि./वृ./१/४/११०/१३ स वादो निर्णय एव 'नात परो विमवाद' इति वचनात् । तदभावो विसवाद । - सवाद निर्णय रूप हता है, क्योकि, 'इससे दूसरा विसंवाद है। ऐसा वचन पाया जाता है। उसका अभाव अर्थात निर्णय रूप न होना और वैसे ही व्यर्थ मे चर्चा करते रहना, सो विसवाद है ।
३. वीतराग कथा बाद रूप नहीं होती न्या. दी./2/8४/८०/२ केचिद्वीतरागक्या बाद इति कथयन्ति तत्पारिभाषिकमेव । न हि लोके गुरु शिष्यादिवाग्यापारे वादध्यवहारे। विजिगीषुवाग्व्यवहार एव बादत्वप्रसिधे । = कोई (नै यायिक लोग) धीतराग कथाको भी वाद कहते है। (दे० आगे शीष क नं.१) पर बह स्वग्रहमान्य अर्थात् अपने घरकी मान्यता ही है, क्योकि लोक्मे गुरु-शिष्य आदिको सौम्य चर्चाको बाद या शास्त्रार्थ नही कहा जाता। हॉ, हार-जीतकी चर्चाको अवश्य वाद कहा जाता है। ४. वितण्डा आदि करना भी वाद नहीं है वादामास है न्या. विम् /२/२१५/२४४ तदाभासो वितण्डादि अभ्युपेताव्यवस्थिते ।
- वितण्डा आदि करना वादाभास है, क्योकि, उससे अभ्युपेत (अगीकृत) पक्षको व्यवस्था नहीं होती है। ५. नैयायिकोंके अनुसार वाद व वितण्डा आदि में
अन्तर न्या सू /टिप्पण:/१/२/१/४१/२६ तत्र गुर्वादिभि सह वाद - विजिगीषुणा सह जल्पवितण्डे । =गुरु, शिष्य आदिकोमें वाद होता है और जोतने की इच्छा करनेवाले वादो व प्रतिवादी में जल्प व वितण्डा होता है।
६. वादीका कर्तव्य मि विवृ/१०/३३५/२१ वादिना उभयं कर्तव्यम् स्वपक्षसाधन
परपक्षदूषणम् । सि वि.//1/११/३३०/१६ विजिगीषुणोभय कर्तव्य स्वपक्षसाधन परपक्षदूषणम् । -बादी या जीतकी इच्छा करनेवाले विजिगीषुके दो कर्तव्य है-स्वपक्षमे हेतु देना और परपक्षमे दूषण देना। .. मोक्षमार्गमें वाद-विवादका निषेध त. मू./७/६ मधर्माविसबादा । =सर्मियो के साथ विसंवाद अर्थाद
मेरा तेरा न करना यह अचौर्य महावतकी भावना है। यो सा/अ/७/३३ बादाना प्रतिवादाना भाषितारो विनिश्चितं । नेव गच्छन्ति तत्यान्त गतेरिम विलम्बित १३३- जो मनुष्य वादप्रतिवादमे उलझे रहते है, वे नियमसे धारतविक स्वरूपको प्राप्त
नही हो सकते। निराम /१६ तम्हा सगपरसमए क्यणविवादंण कादम्वा । इति । - इगलिए परमार्थ के जाननेवालीको स्वसमयो तथा परसमयो
के साथ वार करने योग्य नहीं है। प्र.सा/ता. वृ /२२३/प्रक्षेपक गा८ की टीका/३०/१० इदमत्र तात्पर्यम्स्वयं वरतुग्वरूपमेव ज्ञातव्यं पर प्रति विवादो न कर्त्तव्य' । कस्मात् । विवादे रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति, ततश्च शुद्धात्मभावना नश्यतीति । यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि स्वय वस्तुस्वरूपको जानना ही योग्य है। परके प्रति विवाद करना योग्य नही, क्योकि, विबादमें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है, जिससे शुद्धात्म भावना नष्ट हो जाती है । ( और उससे संसारकी वृद्धि होती हैद्र स.)। --(द्र स./टो./२२/६७/६) ।
२. संवाद व विसंवादका लक्षण स. सि १६/२२/३३७/१ विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । स सि./७/६/३४५/१२ ममेद तवेद मिति समिभिरसंवाद ।
-१ अन्यथा प्रवृत्ति (या प्रतिपादन-रा.बा ) करना विसवाद है। (रा वा/६/२२/२/१२८/११)। २. 'यह मेरा है, यह तेरा है' इस प्रकार साधर्मियोसे विसंवाद नही करना चाहिए। (रा.बा./७/६/-1५३६/१६); (चा. सा/१४/५))
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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