Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 538
________________ वस्तु विद्या ५३१ वातकुमार वस्तु विद्या-आ बसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) रचित एक वाग्भट्ट-१ नेमि निर्वाण काव्य के रचयिता । समयग्रन्थ । १०७५ ११२५ (ती /४/२३) । २ छन्दोनुशासन तथा काव्यनुशासन वस्तुसमास-श्रुतज्ञानका एक भेद-दे श्रुतज्ञान/II । के रचयिता कवि। समय-वि श.१४ मध्य । (ती/४/३७)।. वाचक-ध.१४/५,६,२०/२२/८ । द्वादशाङ्गविद्वाचक = बारह अगका वस्त्र-भा, पा/टी./७/२३०/६ पञ्च विधानि पञ्चप्रकाराणि चेलानि वस्त्राणि अडज वा-कोशज तसरिचीरम् (१) वोडज वा कपासवस्त्रं ज्ञाता वाचक कहलाता है। (२) रोमज वा ऊर्गामय वस्त्र एडकोष्ट्रादिरोमवस्त्र (वकज वा वाचनावलकं वृथादित्वग्भङ्गादिछन्लिवस्त्र तट्टादिकं चापि (४) चर्मजं वा ___स सि /8/२६/४४३/४ निरबद्यग्रन्थार्थोभयप्रदान बाचना । -निर्दोष मृगचर्मव्याघ्रचर्म चित्रकचर्मगजचर्मादिकम वस्त्र पाँच प्रकारके ग्रन्थ, उसके अर्थ का उपदेश अथवा दोनो ही उसके पात्रको प्रदान होते है-अडज, वोडज, रोमज, वकज और चर्मज। रेशमसे उत्पन्न करना वाचना है। (रा. वा /8/२५/१/६२४/९), (त सा/७/१७); वस्त्र अंडज है। कपाससे उपजा वोडज है। बकरे, ऊँट आदिकी (चा सा/१५३/१), (अन. ध/७/८३/७१४)। उनसे उपजा रोपज है। वृक्ष या बेल आदि छालसे उपजा वक्कज या ध.६/४,१,५५/२६२/७ जा तत्थ णवसु आगमेसु वायणा अण्णेसि भवियाणं वल्कलज है मृग, व्याघ, चीता, गज आदिके चर्मसे उपजा जहासत्तीए गथत्यपरूवणा। चर्मज है। ध.१/४,१.५४/२५०/६ शिष्याध्यापन वाचना।-१. वाचना आदि नौ २. रेशमी वस्त्रकी उत्पत्तिका ज्ञान आचार्यों को आगमोंमे वाचना अर्थात् अन्य भव्य जीवोंके लिए शक्त्यनुसार ग्रन्थके अर्थकी प्ररूपणा । (१४/५.६,१२/६/३)। २. शिष्योंको अवश्य था पढानेका नाम वाचना है । (ध. १४/५ ६,१२/८/६) । भ. आ./मू /8१६ वेढेइ विसयहे, कलत्तपासेहिं दुठियमोएहि । कोसेण २. वा बनाके भेद व लक्षण कोसियारुव्व दुम्मदी णिच्च अप्पाणं ।११।-विषयी जीव स्त्रीके स्नेहपाशमें अपने को इस तरह वेष्टित करता है। जैसे रेशमको उत्पन्न ध ६/४१.५४/२५२/५ सा चतुर्विधा नन्दा भदा जया सौम्या चेति । पूर्वपक्षीकृत परदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्षस्थापिका व्याख्या नन्दा। करनेवाला कीड़ा अपने मुखमेसे निकले हुए तन्तुओसे अपनेको वेष्टित करता है। तत्र युक्तिभिः प्रत्यवस्थाय पूर्वापरविर धपरिहारेण बिना तन्त्रार्थ कथनं जया। क्वचिव क्वचित स्खलितवृत्तेारख्या सौम्या। वह * साधुको वस्त्रका निषेध-दे० अचेलकत्व । ( वाचना) चार प्रकार है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। अन्य सवस्त्र मुक्तिका निषेध-दे. वेद/७॥ दर्शनोको पूर्व पक्ष करके उनका निराकरण करते हुए अपने पक्षको स्थापित करनेवाली व्याख्या नन्दा कहलाती है। युक्तियो द्वारा वस्त्रांग-वस्त्र प्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष ।-वृक्ष/१ । समाधान करके पूर्वापर विरोधका परिहार करते हुए सिद्धान्तमें वस्वाक-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर । स्थित समस्त पदार्थों की व्याख्याका नाम भद्रा है । पूर्वापर विरोधके परिहारके बिना सिद्धान्त के अर्थोका कथन करना जया वाचना वाइम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप/९ । कहलाती है। कही-कही स्खलनपूर्ण वृत्तिसे जो व्याख्या की जाती है, वाक्--दे० वचन। वह सौम्या वाचना है। वाकछल-दे० छल । वाचनोपगत-दे० निक्षेप/५/८ । वाकुस-भ, आ./वि./६०१/८०७/8 गिहिमत्तणिसे ज्जवाकुसे लिगो। वाचस्पति मिश्र-वैदिक दर्शनके एक प्रसिद्ध भाष्यकार गृहस्थाना भाजनेषु कुम्भकरक्शरावादिषु कस्यचिनिक्षेपण, तैर्वा कस्यचिदादानं चारित्राचार । गिमित्तणिसेजबाकुसे अर्थात जिन्होने न्यायदर्शन, सारु प्रदर्शन व बेदान्तदर्शनके ग्रन्थोपर गृहस्थोके भाजन अर्थात कुम्भ, घडा, करक-कमण्डलु, शराब वगैरह अनेको टीकाओके अतिरिक्त योगदर्शनके व्यासभाष्यपर भी पात्रो में से किसी पात्र में कोई पदार्थ रखे होगे अथवा किसीका दिये तत्त्वकौमुदी नामकी एक टीका लिखी है। (दे० वह वह दर्शन )। होगे ये सत्र चारित्राचार है । समय-ई० ८४०-दे० न्याय/१/७ । वाक्य-न्या, वि /व./९/६/१३७/१४ वाक्यं नाम पदसदोहकतिपत वाटग्राम-डॉ. आल्टेके अनुसार वर्तमान बडौदा नगर ही वाट ग्राम नाखण्डे करूपम् । सव क्य नाम पदोके समूहका है, अखण्ड एक है, क्यो कि, बडौदाका प्राचीन नाम बटरद है और वह गुजरात रूपका नही। प्रान्त में है । ( क. पा/पु. १/प्र ७४/५ महेन्द्र)। न्या. सू./मू /२/१/६२-६ विध्यर्थवादानुबादवचन विनियोगात ६२। वाटवान-भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश ।-दे० मनुष्य/४ । विधिविधायक १६३। स्तुतिनिन्दा परकृति पुराकल्प इत्यर्थवादः ६४। विधिविहितस्यानुवचन मनुवाद ६॥ ब्राह्मण ग्रन्थोंका तीन वाण-भरतक्षेत्र का एक देश --दे० मनुष्य/४। प्रकारसे विनियोग होता है-विधिवाक्य, अर्थवाक्य, अनुवादवाक्य वाणिज्य-वाणिज्यम, विषवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, दन्त1६२। आशा या आदेश करनेवाले वाक्य विधिवाक्य है । अर्थवाद चार बाणिज्य, केशवाणिज्य, रसवाणिज्य--दे० सावध/३। प्रकारका है-स्तुति, निन्दा, परकृति, और पुराकल्प ( इनके लक्षणोके लिए दे० वह बह नान)। विधिका अनुवचन और विधिसे जो वाणा-१ पश्यन्ती आदि वाणी-दे० भाषा । २ असम्बद्धप्रलाप, विधान किया गया उसके अनुवचनको अनुवाद कहते है । कलह आदि वचन-दे० वचन/१। * वचनके अनेकों भेद व लक्षण-दे० धचन । वातकुमार-भवनवासी देवोका एक भेद- दे० भवन/४ । उनका वाक्यशुद्धि-दे० समिति/१। लोक में अवस्थान-दे० भवन/४ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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