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वसतिका
अचित्त पदार्थ देकर खरीदा हुआ जो बर उसको अति कहते है । विद्या मन्त्रादि देकर खरीद हुए घरको भावक्रोत बहते है । १२ अल्प ॠण करके और उसका सूद देवर अथवा न देकर सयतों के लिए जो मकान लिया जाता है वह पामिच्छदोष से दूषित है । १३ "मेरे घर में आप ठहरो ओर आपका घर मुनियाको रहनेके लिए दो- " ऐसा कहकर उनसे लिया जो घर वह परिषदोपसे दूषित समझना चाहिए । १४ अपने घरकी भीतके लिए जो स्तम्भादिक सामग्री तैयार की थी वह संयतोके लिए लाना, सो अभिघट नामका दोष है। इसके आचरित व अनाचरित ऐसे दो भेद है। जा सामग्री दूर देशसे अथवा अन्य ग्रामसे लायी गयी होय तो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं होप तो यह आपरित समझनी चाहिए। १५ ईंट, मिट्टी के पिण्ड, कॉटोको बाडी अथवा किवाड, पाषाणों से देका हुआ जो घर ना करके मुनियों को रहने के लिए देना वह उद्भि दोष है। १६. नर्मनी सोडो) रहने यहाँ आइए. आपके लिए यह वसतिका दी जाती है," ऐसा कहकर समतोको दूसरा अथवा तीसरा मजिला रहने के लिए देना, यह मालारोह नामका दोष है । १७ राजा अथवा प्रधान इत्यादिकोसे भय दिखाकर दूसरोका गृहादिक यतियोको रहनेके लिए देना वह अच्छेज्ज नामका शेष है १ अनिसृष्ट दोपके दो भेद है जो दानकार्यमें नियुक्त नहीं हुआ है ऐसे स्वामी से जो वसतिका दी जाती है यह अनिसृष्ट दोष से दूषित है । और जो वसतिका बालक और परवश ऐसे स्वामी मे दो जाती है यह अनि दोष से दूषित समझनी चाहिए। इस तरह उद्गम दोष निरूपण किये।
२. उत्पादनदोष निरूपण
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भ. आ / वि. २३० / ४४४ / ६ उत्पादनदोषा उत्पादनदोषा निरूप्यते पञ्चविधाना - धात्रीकर्मणा अन्यतमेनात्पादिता वसति । काचिद्दारकं स्नपयति, भूषयति क्रोडपति आशयति स्वापयति मा सत्यर्थमेोपादा वसतिर्थावदोषदृष्टा प्रामान्तरागरान्तराच देशादन्य देशो वा सम्बन्धिना वार्तामभिधायोत्पादिता दुतकर्मोत्पादिता । अङ्ग स्वरो, नं लक्षण छिन्नं भीम स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवभूतनिमित्तो पदेशेन लब्धा बस तिर्निमित्तदोषदुष्टात्मनो जाति, कुल, ऐश्वर्य भवाय स्वाहाकनेनोदिता मसतिशजीवशन्धेनोच्यते। भगआहारदानाइसतिदानाच पुण्यं किमु महदुषजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गृहिजन' प्रतिकूलवचनरुष्टो वसति न प्रयच्छेदिति एवमिति तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनोच्यते । अन्य चिकित्सोत्पादिता । घोरादिता कोष मानं माया, लोभ वा प्रमुत्पादिता क्रोधादिचतुष्टयदुष्टा ) । गच्छतामागच्छता च यतीना भवदीयमेव गृहमाश्रय इतीयं वार्ता दूरादेवास्माभि श्रतेति पूर्वं स्तुत्वा या लब्धा । वसनोत्तरकाल च गच्छन्प्रशंसा करोति पुनरपि वसति सप्स्ये इति एवं उत्पादितास्तदोषदृश विद्यया मन्त्रेण चूर्ण प्रयोगेण वा गृहिणं वशे स्थापयित्वा लब्धा । मूलकर्मणा वा भिन्नकन्यायोनिस स्थापना मूलकर्म। विरक्ताना अनुरागजनन वा । उत्पादनाख्योऽभिहितो दोष षोडशप्रकार - १. धात्री पाँच प्रकारकी है - बालकको स्नान करानेवाली उमे वस्त्राभूषण पहनानेवाली. उसका मन प्रसन्न करनेवाली. उसे अन्नपान करानेवाली और उसे सुलानेवाली । इन पाँच कार्योंमे से किसी भी कार्यका गृहस्थको उपदेश देकर, उससे यति अपने रहनेके लिए वसतिका प्राप्त करते है । अतः वह वसतिका धात्रीदोषसे दुष्ट है। २. अन्यग्राम, अन्य नगर और अन्यदेशके सम्बन्धीजनोकी वार्ता श्रावकको निवेदित कर वसतिका प्राप्त करना दूतकर्म नामका दोष है । ३. अंग, स्वर आदि आठ प्रकारके निमित्तशास्त्रका उपदेश कर श्रावकसे वसतिकाकी प्राप्ति करना निमित्त नामका दोष है । ४ अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य बगै
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वसतिका
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रहका वर्णनकर अपना माहात्म्य श्रात्रक्को निवेदनकर वसतिकाकी प्राप्ति करना आजीब नामक दोप है । ५ हे भगवन् । सर्व लोगोको आहार व वसतिकाका दान देनेसे क्या महान् पुण्यकी प्राप्ति न होगी ' ऐसा श्रावकका प्रश्न सुनकर यदि मे पुण्य प्राप्ति नहीं होती. ऐसा कहूँ तो श्रावक वसतिका न देगा ऐसा मनमें विचार कर उसके अनुकूल वचन बोलकर वसतिकाको प्राप्ति करना वगिंग दोष है। ६. आठ प्रकारको चिकित्सा करके वसतिकाकी प्राप्ति करना चिकित्सा नामक दोष है । ७-१०. क्रोध, मान, माया व लोभ दिखाकर बसतिका प्राप्त करना क्रोधादि चतु दोष है। ११. जानेवाले और आनेवाले मुनियोंको आपका घर ही आश्रय स्थान है। यह वृत्तान्त हमने दूर देशमें भी सुना है ऐसी प्रथम स्तुति करके यसका प्राप्त करना पूर्वस्तुति नामका दोष है। १२. निवासकर जानेके समय पुन भो कभी रहनेके लिए स्थान मिले इस हेतुसे ( उपरोक्त प्रकार हो ) स्तुति करना पश्चातस्तुति नामका दोष है । १३-१५. विद्या, मन्त्र अथवा चूर्ण प्रयोगसे गृहस्थको अपने वशकर यतिकाकी प्राप्ति कर लेना विवाद दोष है। १६. भिन्न जातिकी कन्या के साथ सम्बन्ध मिलाकर बसतिका प्राप्त करना अथवा विरक्तों
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भा/२०/४४२/१६ अथ एपमा प्राह किम योग्या बसतिर्मेति शह किसा तदानीमेव शिता सत्याला सती वा तजलप्रवाहेण वा, जलभाजनलोठनेन वा तदानीमेव लिप्ता वा रिच्यते। सचित्तवृथिव्या अर्पा, हरितानां मोजाना प्रसान उपरि स्थापितं पीठफलकादिकं अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा चिह्निता । चेकण्टकप्रावरणाद्याकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोप दर्शिता वसति साहारणशब्देनोच्यते मृतजातयुक्त गृहिजन, मसेन, व्याधितेन नपुंसकेन, पिशाचगृहीतेन, नग्नया वा दीयमाना वसतिदविदृष्टा । स्थावरं पृथिव्यादिभि से पिपी किमणादिभि सहितोन्मिश्रा अधिक वितस्तिमात्रामा भूमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः । शीतवातातपाद्य प द्रवसहिता यततिरियमिति निन्दा कुर्तो मसनं धूमदोषः निर्माता. विशाला, नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुराग इंगाल इत्युच्यते । -- १ "यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं है,' ऐसी जिस वसतिकाके विषाका उत्पन्न होगी यह शंकितदोषसे दूषित समझनी चाहिए। २. वसतिका तत्काल ही लीपीं गयी है, अथवा छिद्रसे निकलनेवाले जलप्रवाहसे किंवा पानीका पात्र लुढ़काकर जिसकी लीपापोतो की गयी है वह म्रक्षित वसतिका समझनी चाहिए। 3. सचित्त जमीन के ऊपर अथवा पानी, हरित वनस्पति, बीज वा त्रसजीव इनके ऊपर पीठ फलक वगैरह रखकर 'यहाँ आप शय्या करें' ऐसा कहकर जो वसतिका दी जाती है वह निक्षिप्तदोषसे युक्त है । ४. हरितका बनस्पति को सचित मृत्तिका, वीरहका आच्छादन हटाकर जो वसतिका दी जाती है वह पिहितदोषसे शुरू है। लकड़ी, बस्त्र, कौटे इनका आकर्षण करता हुआ अर्थाद इनको पसी टता हुआ आगे जानेवाला जो पुरुष उससे दिखायी गयी जो वसतिका यह साधारणदोषयुक्त होता है ६. जिसको मरणाशीच अथवा जननाशौच है, जो मत, रोगी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त और नग्न है ऐसे दोषसे युक्त गृहस्थके द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायकदोषसे दूषित है। ७ पृथिवी जल स्थावर जीवोंसे और चोटी खटमल वगैरह वगैरह त्रस जीवोंसे जो युक्त है, वह वसतिका उन्मदोष सहित समझना चाहिए। ८ मुनियोंको जितने बालिश्त प्रमाण भूमि ग्रहण करनी चाहिए, उससे अधिक प्रमाण भी भूमिका ग्रहण करना यह प्रमाणातिरेक दोष है । ६. "ठण्ड, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
अनुरक्त करने का उपाय कर उनसे वसतिका प्राप्त कर लेना मूलकर्म नामका दोष है । इस प्रकार उत्पादन नामक दोषके १६ भेद हैं ।
३. पादप निरूपण
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