________________
वसतिका
५२७
वसतिका
भ, आ./मू./२२६/४४२ वियडाए अवियडाए समविसमाए बहि च अतो वा। ।२२६।- १. जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषोसे रहित है, जिसमें जन्तुओंका वास न हो. अथवा बाहरसे आकर जहाँ प्राणी वास न करते हो, सस्काररहित हो, ऐसी वसतिकामें मुनि रहते है। (भ, आ /मू /२३०/४४३)-(विशेष दे. वसतिका/७) २ जिसमे प्रवेश करना या जिसमेसे निकल ना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।६३७ जिसके किवाड व दीवारे मजबूत हों, जो ग्रामके बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकारके गण (मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका) आ जा सकते हो ।६३८| जिसके द्वार खुले हो या भिडे हो, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्रामके बाह्यभागमें हो अथवा अन्तमे हो ऐसी वसतिका मुनि रहते है ।२२६॥
२. ध्यानाध्ययन में बाधा कारक व मोहोत्पादक न हो भ. आ /मू /२२८, ६३५ जत्थ ण सोत्तिग अत्थि दु सहरसरूवगंधफासे हि ।
सज्झायझाणवाधादो वा बसधी विवित्ता सा १२२८४ पचिदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहि पत्थि । चिठुदि तहि तिगुत्तो ज्झाणेण सहप्पबत्तेण । ६३५॥ - जहाँ अमनोहर या मनोहर स्पर्श रस गन्ध रूप
और शब्दो द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते, जहाँ स्वाध्याय व ध्यानमें विध्न नहीं होता ।२२८। जहाँ रहनेसे मुनियोकी इन्द्रियाँ विषयोकी तरफ नहीं दौडती, मनकी एकाग्रता नष्ट नहीं होती और ध्यान निर्विघ्न होवे, ऐसी वसतिकामे मुनि निवास करते है।६३५॥ मू आ/१४६ जत्थ कसायुप्पत्तिरभत्तिदियदारइस्थिजणबहुलं । दुक्रवमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेऊ।१४। जिस क्षेत्रमें कषायकी उत्पत्ति हो, आदरका अभाव हो, मूखता हो, इन्द्रियविषयोकी अधिकता हो, स्त्री आदि बहुत जनोका संसर्ग हो, तथा क्लेश व उपसर्ग हो, ऐसे क्षेत्रको मुनि अवश्य छोड दे। ज्ञा./२७/३१ किं च क्षोभाय मोहाय यद्विकाराय जायते। स्थान तदपि मोक्तव्यं ध्यानाविध्वसशङ्कितैः।३१ = ध्यानविध्वंसके भयसे क्षोभकारक. मोहक तथा विकार करनेवाला स्थान भी छोड देना चाहिए ।३१। ( अन. ध/७/३०/६८१)
३. कुशीलसंसक्त स्थानोंसे दूर होनी चाहिए भ. आ./मू /६३३-६३४/८३४ गंधवणट्टजट्टस्सचक्काजतग्गिकम्मफरुसे य ।
णत्तिजया पाडहि पाडहिडोबणडरायमग्गे।६३३। चारण कोट्टगकल्लालकरकचे पुप्फदयसमीपे च । एवविध वसधीए होज्ज समाधीए बाधादो।६३४॥ गन्धर्व, गायन, नृत्य, गज, अश्व आदि शालाओंके, तेली, कुम्हार, धोबी, नट, भांड, शिल्पी, कुलाल आदिके घरोके तथा राज्यमार्गके तथा बगीचे व जलाशयके समीपमे वसनिका हानेसे ध्यान में विघ्न पडता है।६३३-६३४॥ मू आ /३५७ तेरिक्खी माणुस्सिय सविकारिणि-देविगेहिससत्ते। बज्जति अप्पमत्ता णिलए सयणासणठाणे ।३५७) - गाय आदि तिर्य चिनी, कुशील स्त्री, भवनवासो व्यन्तरी देवी, असंयमी गृहस्थ, इनके रहनेके निवासोको यत्नचारी मुनि शयन करने, बैठने व खडे होनेके लिए छोडे। रा. वा./६/६/१६/५६७/३४ संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण खोक्षुद्रचौरपानासशौण्डशाकुनिकादिपापजनवासा वा , शृङ्गारविकारभूषणोज्ज्वलवेषवेश्याक्रीडाभिरामगीतनृत्यवादिनाकुलशालादयश्च परिहर्त्तव्या' ।- शय्या और आसनकी शुद्धि में तत्पर सयतको स्त्रो, क्षुद्रजन्तु, चोर, मद्यपान, जूआ, शराबो, और चिडोमार आदिके स्थानोमें नही बसना चाहिये। और शृगार, विकार, आभूषण, उज्ज्वलवेष, वेश्याक्रीडा, मनोहर गीत, नृत्य, वादित्र आदिसे परिपूर्ण शालाओ आदिमे रहने आदिका त्याग करना चाहिए। (यो पा./ टी./५७/१२०/२०)
दे. कृतिकर्म/३/४/३ (रुद्र आदिके मन्दिर तथा दुष्ट स्त्री पुरुषोसे ससक्त स्थान ध्यान के लिए अत्यन्त निषिद्ध है) ४. स्त्रियों व अन्य जन्तुओं आदिकी बाधासे रहित व अनुकूल होनी चाहिए भ. आ./म् /२२६/४४२ इत्थिणउसयसुवज्जिदार सीदाए उसिणाए ।२२६।
-जो खी पुरुष व नपसक जनोसे वजित हो, तथा जो शीत व उष्ण हो अर्थात् गर्मियोमे शीत और सर्दियोमें उष्ण हो, ऐसी वसतिका योग्य है। स. सि /१/१६/४३८/१० विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु सयतस्य शय्या
सनम् • कर्त्तव्यमिति । = एकान्त व जन्तुओको पीडासे रहित स्थानो में मुनिको शय्या व आसन लगाना चाहिए । (रा.वा/६/१६/ १२/६१६/१३) घ. १३/५.४,२६/५८/८ स्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाणज्झेय विग्धकारणेहि वज्जिय पदेसा विवित्त णाम ! -ध्यान और ध्येयमें विघ्नके कारणभूत स्त्री, पशु और नपुसक आदिसे रहित प्रदेश विविक्त कहलाते है। (बो. पा/टी./५७/१२०/१६ तथा ७८/२२२/५ ) दे. वसतिका/नं [जिसमे जन्तुओंका वास न हो और जहाँ प्राणी बाहर से आकर न ठहरते हो, ऐसा स्थान योग्य है। (वसतिका/१ में भ. आ /मू./६३६ )। स्त्रियो व बहुजन संसर्ग तथा क्लेश व उपसर्गसे रहित स्थान मुनियोके रहने योग्य है। (वसितका/२/में मू आ./ ६४६) । कुशोलो स्त्रियो, तिर्यचिनियो, देवियो, दुष्ट पुरषोसे संसक्त स्थान तथा देवी-देवताओके मन्दिर वर्जनीय है ( वसतिका/३)।] दे कृतिकर्म/३/४/२ [ पवित्र, सम, निजन्तुक, खियो, नपुंसकों व पशुपक्षियोकी कटक आदिकी बाधाओसे रहित स्थान ही ध्यानके योग्य है।
५. नगर व ग्राममें बसनेका निषेध दे. वसतिका/१ मे भ. आ/मू/२२६, ६३८ (मुनिकी या क्षपककी वसतिका ग्रामसे बाहर या ग्रामके अन्त में होनी चाहिए।) आ. अनु /१२७-१६० इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावाँ यथा मृगा। वनाद्विशत्युपग्रामं कलौ कष्ट तपस्विन १७ वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मन । श्व खोक्टाक्ष्लुण्टाक्लोप्यवैराग्यसपद. १६८। - जिस प्रकार सिहादिके भयसे मृगादि रात्रिके समय गॉवके निकट आ जाते है, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वनको छोड गॉवके समीप रहने लगे है, यह खेदकी बात है ।१९७ यदि आजका ग्रहण किया तप कल स्त्रियोके कटाक्षरूप लुटेरोके द्वारा बैराग्य सम्पत्तिसे रहित कर दिया जाय तो इस तपकी अपेक्षा तो गृहस्थ जीवन ही कही श्रेष्ठ था।१६८! ६. शून्य गृह, गिरिगुहा, वृक्षको कोटर, श्मशान आदि स्थान साधुके योग्य हैं भ, आ.मू /गा. सुण्णघरगिरिगुहारुखमूल विचित्ताई ।२३१। उज्जाण
घरे गिरिक दरे गुहाए व सुण्णहरे ।६३८ - शून्यधर, पर्वतकी गुफा, वृक्षका मूल, अकृत्रिम गृह ये सब विविक्त वसतिकहै ।२३१। उद्यानगृह, गुफा और शून्यघर ये भी वसतिका वक्षपकका सस्तर करनेके योग्य माने गये है।६३८। मू आ /९५० गिरिकदरं मसाणं सुण्णागार' च रुक्खमूलं वा। ठाणं विरागबहुलं धीरा भिक्खू णिसेवेऊ 18101-पर्वतकी गुफा (व कन्दरा ) शमशानभूमि, शून्यघर, और वृक्षकी कोटर ऐसे वैराग्यके कारण-स्थानोमे धीर मुनि रहे।६५० (मू. आ./७८७-७८६); अन ध/७/३०/६८१)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org