Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 533
________________ वर्तना ५२६ वसतिका श्लो. वा/४/१/३३/न्या/श्लो ३४२/४७६ ख्यापनोया मतो वयं स्याद- वर्षायोग- वर्षायामकाज वषायाग-१. वर्षा यागका लक्षण-दे० काय-क्लेश/याग । २ वर्षावयों विपर्ययाव । तत्समा साध्यदृष्टान्तधर्मयोरत्र साधने ।३४२१ योग सम्बन्धी नियम-दे० पाद्यस्थिति कल्प। ३. वर्षायोग प्रतिष्ठाप्रसिद्ध कथनके योग्य वर्ण्य है और उससे विपरोत अवर्ण्य है। ये पन व निष्ठापन विधि-० कृतिकर्म/४। दोनों साध्यदृष्टान्त के धर्म है। इसके विपर्यय वावर्ण्यसम कहाते है। जैसे लोष्ट क्रियावान व विभु देखा जाता है, उसी प्रकार आरमा वलय-Ring (ज प./प्र १०८); (ध /प्र २८)। भी क्रियावाद व विभु हो जाओ। अथवा यो कहिए कि वण्य तो वलाहक-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर । -दे० विद्याधर । साधनेयोग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात्-दृष्टान्तमें वलोक-भगवान् वीरके तीर्य के एक अन्तकृत् केवली । -दे० सन्दिग्धसाध्यसहितपनेका आपादन करना वर्ण्यसमा है और पक्षमे अन्तकृद। असन्दिग्धसाध्यसहितपनेका प्रसग देना वर्ण्यसमा है। वल्कल- एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद। वतना-स.सि./५/२२/२६१/४ वृत्तेणिजन्तात्कर्मणि भावे वा युटि स्त्रीलिङ्गे वर्तनेति भवति । वय॑ते वर्तनमात्र वा वर्तना इति। वल्गु-१. सौधर्म स्वर्गका चतुर्थ पटल । -दे० स्वर्ग/५/३१२ अपर -णिजन्तमें 'वृत्ति' धातुसे कम या भावमें 'युट' प्रत्ययके करनेपर। विदेहका एक क्षेत्र । अपर नाम गन्धा । --दे० लोक५/२१३. नागगिरि स्त्रीलिंगमें वर्तना शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति 'वयते' या वक्षारका एक कूट ।-दे० लोक/१/४ । 'वर्तनमात्रम्' होती है। (रा. वा /१२२/२/४७६/२८) । वल्लभ-वेदान्तकी एक शाखाके प्रवर्तक । समय-ई. श. १५ । रा. वा/५/२२/४/४७७/३ प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्मतैकसमया स्वसत्तानु -दे. वेदान्त । भूतिर्वर्तना ।४। - प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्यायमे प्रतिसमय जो वल्लाभका-१. इन्द्रोको प्रोति उत्पन्न करनेवाली तथा उन्हे स्वसत्ताकी अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते है। । त सा./ ३/४१)। अपनी विक्रिया, प्रभाव, रूप, स्पर्श तथा गन्धसे रमानेवाली, उनके द्र. स./टी./२१/६१/४ पदार्थ परिणतेय त्सहकारित्वं सा वर्तना भण्यते। अभिप्रायके अनुसार १६००० विक्रियाएं उत्पन्न करनेवाली बल्ल-- पदार्थकी परिणतिमें जो सहकारोपना या सहायता है, उसको भिका देवियों होती है। (ज.प./११/२६२-२६७) । २ प्रत्येक 'वर्तना' कहते है। इन्द्रकी बल्लभिका देवियाँ। -दे० देवगतिका वह-वह नाम । वर्तमान काल वल्लि भूमि-समवशरणकी तीसरी भूमि । -दे० समवशरण । बशात मरण-दे० मरण/१। दे० काल/३/७ (वर्तमान कालका प्रमाण एक समय मात्र है।) दे० नय/III (विवक्षित पर्यायके प्रारम्भ होनेसे लेकर उसका अन्त वशित्व विक्रिया ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । होने तकका काल वर्तमान काल है। सूक्ष्म व स्थूलकी अपेक्षा वह वशिष्ट-ह. पु/३३/श्लोक -एक तापस था ।४६। राज्य दरबारमें दो प्रकार है। सूक्ष्म एक समयमात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त से लेकर सरमेंसे मछलियॉ निकलने के कारण लज्जित हुआ।४-५७ वीरक सख्यात-वर्ष तक है।) मुनिसे दोक्षा ले एक्ल बिहारी हो गया ।५८-७४। एक महीने का उपवर्तमान नैगमनय-दे० नय/III/२ । वास धारा। पीछे पारणावश नगरमे गया तो आहार लाभ न हुआ, वर्दल--षष्ठ नरकका द्वितीय पटल-दे० नरक/५। क्योकि राजा उग्रसेनने स्वयं आहार देनेके लिए प्रजाको आहार दान करनेको मना कर दिया था और काममें व्यस्त होनेके कारण वर्द्धमान-१.प्र.सा/ता वृ/१/३/१६ अब समन्तादृद्ध वृद्ध मानं स्वय भी आहार न दे सका था। तब वह साधु निदानपूर्वक मरकर प्रमाण ज्ञानं यस्य स भवति वर्द्धमान । - 'अब' अर्थात समन्तात, उसी राजाके घर कस नामका पुत्र हुआ, जिसने उसको बन्दी ऋद्धम् अर्थात् वृद्ध, मान अर्थात् प्रमाण या ज्ञान । अर्थात् हर प्रकारसे बनाकर बहुत दुख दिया ७५-८४। यह कसका पूर्वका भव है। वृद्ध ज्ञान जिसके होता है ऐसे भगवान् वर्द्धमान है। २. भगवान् -दे० कंस। महावीरका अपरनाम भी वर्द्धमान है-दे० महावीर । ३. रुचक पर्वतका एक कूट है-दे० लोक/१३२४. अवधिज्ञानका एक भेद । वश्यकर्म-वसतिकाका एक दोष। -दे० वसतिका । -दे० अवधिज्ञान/१६ वश्ययंत्र-दे० यंत्रा वर्तमानारत्र-कवि असग (ई.६८८) द्वारा रचित १८ सर्ग वसंत-सुमेरुपर्वतका अपर नाम । -दे० सुमेरु । प्रमाण हिन्दी महाकाव्य । (ती./४/१२) । वर्द्धमानयंत्र-दे. यंत्र। वसतभवत-क्रमश ५.६.७,८.४ इस प्रकार ३५ उपवास, करे। बीचके स्थानोमे एक-एक पारणा करे । (ह. पु./३४/५६)। वकि -कौशल देशका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । वसतिका-माधुके ठहरनेका स्थान बसतिका कहलाता है। वह वष-१. कालका एक प्रमाण । अपरनाम सवत्सर-दे० गणित//१/४। मनुष्यों, तिर्यचो व शीत-उष्णादिकी बाधाओसे रहित होना २. आज भी कन्नौजमें 'वर्ष' नाम वसतीका है-( ज. प./प्र ११६/ चाहिए। ध्यानाध्ययनकी सिद्धि के अर्थ एकान्त गुफा व शून्य स्थान A.N Up.व H, L.Jain)। ही उसके लिए अधिक उपयुक्त है। वषंधर-स. सि./३/११/२१४/११ वर्ष बिभागहेतुत्वाद्वर्षधरपर्वता १. वसतिकाका सामान्य स्वरूप इत्युच्यन्ते। -हिमवान् आदि पर्वतोके कारण क्षेत्रोका विभाग होता है, इसलिए इन्हे वर्षधर पर्वत कहते है । -(विशेष दे० भ आ /मू /६३६-६३८/८३६ उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए लोक/३/४)। हु। बसइ असं सत्ताए णिप्पाहुडियाएसेज्जाए।६३६। सुहणिवरववणद्र. सं./टो./३५/१२१/१ वर्षधरपर्वता सीमापर्वता इत्यर्थ । == पर्वतका पवेसुणवणाओ अवियडअणधयाराओ १६३७१ घणकुड्ड सकवाडे गामअर्थ यहाँ वर्षधरपर्वत अथवा सीमापर्वत है। बहि बालबुट्टगण जोग्गे ।६३८॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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