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वसतिका
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वसतिका
(शय
९ मकानो में तक गिरि
बो, पा./मू /४२ सुण्णहरे तरुहिछे उज्जाणे तह मसाणवासे वा! गिरिगुह गिरिसिहरे वा भोमवणे अहब बसिते वा ।४२॥ -सूना घर, वृक्षका मूल अर्थात् कोटर, उद्यानवन, श्मशानभूमि, गिरिगुफा, गिरिशिखर, भयानकवन, अथवा वसतिका इनविर्षे दीक्षासहित मुनि तिष्ठ।४२॥ त.सू /७/६ शुन्यागारविमोचितावास. १६= शून्यागार विमोचितावास
ये अचौर्यमहावतकी भावनाएं है। स, सि /8/१६/४३८/१० शून्यागारादिषु विविक्तेषु.. सयतस्य शय्या
सनम्-- कर्तव्यमिति पञ्चमं तप । शून्यधर आदि विविक्त स्थानोमें स यतको शय्यासन लगाना चाहिए। ये पाँचत्रों (विविक्त शय्यासन नामका) तप है। (रा वा./६/१९/१२/६१६/१२), (बो.
पा./टी./७८/२२२/६)। रा वा /४/६/१६/५६७/३६ अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादय कृत्रिमाश्च
शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा..।-( शयनासनकी शुद्धिमें तत्पर सयतको प्राकृतिक गिरिगुफा, वृक्षको खोह, तथा शून्य या छोडे हुए मकानोमें बसना चाहिए। व. १३/५,४,२६/१८/८ गिरिगुहा-कंदर-पब्भार-मुसाण-मुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम । गिरिकी गुफा, कन्दरा, पन्भार (शिक्षागृह-दे० अगला शीर्षक ), श्मशान, शून्यघर, आराम और
उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते है। दे. कृतिकर्म/३/४/१ (पर्वतकी गुफा, वृक्षको कोटर, नदीका किनारा या पुल, शून्य घर आदि ध्यानके लिए उपयुक्त स्थान है।)
.. अनुद्दिष्ट धर्मशाला आदि भी युक्त है भ. आ /मू./२३१,६३६...आगंतुगारदेवकुले । अकदप्पम्भारारामघरादीणि
य विचित्ताई ॥२३११ आगंतुधरादिसु वि कडएहि य चिलि मिलीहि काययो । खवयस्सोगारा धम्मसवणमंडवादी य ।६३६॥ देवमन्दिर, व्यापारार्थ भ्रमण करनेवाले व्यक्तियोके निवासार्थ बनाये गये घर, पन्भार ( शिक्षागृह ), अकृत्रिम गृह. क्रीडार्थ आने-जानेवालोंके लिए बनाये गये घर ये सब विविक्त वसतिकाएँ है ।२३११ व्यापारियोके ठहरनेके लिए निर्माण किये गये घर या ऐसी वसतिकाएँ उपलब्ध न हो तो क्षपकके लिए बाँस व पत्तों आदिका आच्छादन या सभामडप
आदि भी काममें लाये जा सकते है ।६३६।। रा, वा /8/६/१६/५६७/३६ कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निरारम्भा सेव्या'|-(शय्या और आसनकी शुद्धि में तत्पर संयतको ) शुन्य मकान या छोडे हुए ऐसे मकानोमें बसना चाहिए जो उनके उद्देशसे नहीं बनाये गये हों
और न जिनमे उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो।( और भी दे वसतिका/१,६)। ८. वसतिकाके १६ दोषोंका निर्देश १. उद्गम दोष निरूपण भ आ./वि./२३०/४४३/१० तत्रोद्गमा दोषो निरूप्यते वृक्षच्छेदस्तदा
नयनं. इष्ट कापाक भूमिखनन । इत्येवमादिव्यापारेण षण्णा जीवनिकायानां बाधा कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन व कारिता वसतिराधाकर्मशब्देनाच्यते । यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पाषं डिनामेवेति वा श्रमणा. नामेवेति, निग्रन्थानामेवेति सा उदेसिगा वसदिति भण्यते । आत्माएं गृहं कुर्वता अपवरक स यतानां भवश्विति कृतं अब्भोवब्भमित्युच्यते। आत्मनो गृहार्थमानीत. काष्ठादिभि सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । पाप डिना गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्सयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रेण निष्पादितं वेश्ममिश्रम् । स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति
स्थापितं ठविद इत्युच्यते। संयत: स च यावद्भिदिनैरागमिष्यति तत्प्रवेश दिने गृहसस्कार सकल करिष्याम इति चेतसि कृत्वा यत्सस्कारित वेश्म तत्पाहुडिगमित्युच्यते । ( यक्षनागमातृकाकुलदेवताद्यर्थ कृतं गृहं तेभ्यश्च यथास्व दत्त तदत्तावशिष्ट यतिभ्यो दीयमानं बलिरित्युच्यते )। तदागमानुरोधेन गृहसस्कारकालापह्रासं कृत्वा वा सस्कारिता वसति प्रदीपकं वा तत्पादुष्कृतमित्युच्यते। यद्गृह अन्धकारबहुलं तत्र बहुप्रकाशसपादनाय यतीना छिद्रीकृतकुड्यं, अपाकृतफलक, सुविन्यस्तप्रदीपक वा तत्पादुकारशब्देन भण्यते । द्रव्यक्रीतं भावक्रीत इति द्विविध क्रीत वेश्म, सचित्तं गोबस्तीवीदिक दत्वा सयतार्थ क्रीत, अचित्तं वा घृतगुडखण्डादिक दत्वा क्रोत द्रव्यकोतम् । विद्यामन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतम् । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहितं अवृद्धिक पा गृहीतं सयतेभ्य पमिच्छ उच्यते। मदोये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावद्गृह यतिभ्यः प्रयच्छति गृहीत परियट्टमित्युच्यते। कुड्याद्यर्थ कुटीरककटादिकं स्वार्थ निष्पन्नमेव यत्सयतार्थमानीत तदभ्यहिडमुच्यते। तद्विविधमाचरितमनाचरितमिति। दूरदेशाद्नामान्तराद्वानीतमनाचरित । इष्टकादिभि , मृत्पिण्डेन, वृत्या, कवाटेनोपलेन वा स्थगितं अपनीय दीयते यत्तदुद्भिन्नं । निश्रेण्यादिभिरारुह्य इत आगच्छत युष्माकमिय वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमि सा मालारीहमित्युच्यते। राजामात्यादिभिर्भयमुपदर्य परकीयं यद्दीयते तदुच्यते अच्छेज्ज इति । अनिसृष्टं पुनविविध । गृहस्वामिना अनियुक्तेन या दीयते वसति यरस्वामिनापि बालेन परवशवर्तिना दीयते सोभय्यप्यनिसृष्टेति उच्यते। उद्गमदोषा निरूपिता । १. झाड तोडकर लाना, इंटें पकवाना, जमीन खोदना, इत्यादि क्रियाओंसे षट् काय जीवोको बाधा देकर स्वय वसतिका बनायी हो या दूसरोंसे बनवायी हो वह वसतिका अध कर्मके दोषसे दूषित है। २. “दीन, अनाथ अथवा कृपण आवेगे अथवा सर्वधर्म के साधु आवेगे, किवा जैनधर्म से भिन्न ऐसे साधु अथवा निम्रन्थमुनि आवेगे, उन सब जनों को यह वसतिका होगी", इस उद्देश्यसे जो वसतिका बाँधी जाती है वह उद्देशिक दोषसे दुष्ट है। ३. जब गृहस्थ अपने लिए घर बंधवाता है, तब 'यह कोठरी सयतोके लिए होगी' ऐसा मनमें विचारकर बंधवायी गयी वह वसतिका अब्भोब्भव दोषसे दुष्ट है । ४. अपने घरके लिए लाये गये बहुत काष्ठादिकोंसे श्रमणों के लिए लाये हुए काष्ठादिक मिश्रण कर बनायी गयी जो वसतिका वह पूतिकदोषसे दुष्ट है । ५. पाखंडी साधु अथवा गृहस्थोके लिए घर बाँधनेका कार्य शुरू हुआ था, तदनन्तर सयतोके उद्देश्यसे काष्ठादिकोंका मिश्रण कर बनवायी जो वसतिका वह मिश्रदोषसे दूषित समझना चाहिए। ६. गृहस्थने अपने लिए ही प्रथम बनवाया था परन्तु अनन्तर यह गृह सयतोंके लिए हो' ऐसा स कल्प जिसमें हुआ है वह गृह स्थापितदोषसे दुष्ट है। ७. "सयत अर्थात् मुनि इतने दिनोके अनन्तर आवेगे अत जिस दिनमें उनका आगमन होगा उस दिनमें सब घर झाडकर, लीपकर स्वच्छ करेंगे," ऐसा मनमें सकल्पकर प्रवेश दिन में वसतिकाका संस्कृत करना पाहुडिग नामका दोष है। ८. (मूलाराधना दर्पणके अनुसार पाहुडिगसे पहिले बलि नामक दोष है। उसका लक्षण वहाँ इस प्रकार किया है)-यक्ष, नाग, माता, कुलदेवता, इनके लिए घर निर्माण करके उनको देकर अवशिष्ट रहा हुआ स्थान मुनिको देना यह बलि नामक दोष है। ह. मुनिप्रवेशके अनुसार संस्कारके कालमें ह्रासकर अर्थात् उनके पूर्व ही संस्कारित जो वसतिका वह प्रादुष्कृत दोषसे दूषित समझनी चाहिए । १०. जिस घरमें विपुल अन्धकार हो तो वहाँ प्रकाशके लिए भित्तिमें छेद करना, वहाँ काष्ठका फलक है तो उसे निकालना, उसमें दोपककी योजना करना यह प्रदुकारदोष है । ११. द्रव्यकोत और भावक्रीत ऐसे खरीदे हुए घरके दो भेद हैं। गाय, बैल, वगैरह सचित्त पदार्थ देकर संयतोके लिए खरीदा हुआ जो घर उसको सचित्त द्रव्यक्रीत कहते हैं। घृत, गुड, खाँड ऐसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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